पराया घर
पराया घर
आज घर की दरों-दीवार, आंगन - चौबारे सब मुझे विदा कर रहे थे। घर के कोने में रखा संदूक, जिसमें बचपन की सारी यादें बंद थी। खेल - खिलौने, मनुआ और रघुआ के साथ प्यार - तकरार, सब छोड़े जा रही थी।
महुआ काकी से ही जाना था कि यही दुनिया की रीत है, सबको एक ना एक दिन अपना घर छोड़ पराये घर जाना पड़ता है । मै जा भी रही थी लेकिन मन में एक ही भय था कि पराये घर को मैं अपना बना लूंगी लेकिन क्या वो पराया घर मुझे अपना बना पायेगा? या महुआ काकी की तरह मुझे भी अपने घर और अस्तित्व के लिए ताउम्र संघर्षरत रहना पड़ेगा।जैसे निसंतान होने के कारण उन्हें परिवार वालों से हर वक्त घर से निकल जाने के लिए ताने मिलते थे। कहां जाती वो... मायके? जहां से यह कहकर विदा किया गया था कि अब वो ही तुम्हारा अपना घर है। उनका रोना और टूटना देखा था मैंने।
अतः काकी से पूछ ही लिया "क्या पराया घर मुझे अपना पायेगा?"