पलायन
पलायन


महामारी के प्रकोप में लॉकडाउन के कारण चारों तरफ सन्नाटा था, कितना बोरियत भरा दिन जा रहा था तभी घर के बाहर कुछ हलचल हुई तो झरोखे से देखने पर मालूम हुआ कि सरकारी आदेश पर सब्जीवाला ठेला लेकर घर-घर सब्जियाँ बेचने निकला है।
हमें भी सब्जियाँ खरीदनी थी इसलिए सुधीर झोला लिए बाहर निकले। अपने जरुरत भर की सब्जियाँ लेने के बाद सुधीर ने आवाज लगाई -" सुधा, जरा मेरा पर्स तो लेती आना वहीं आलमारी पर होगा।"
मैं पतिदेव का पर्स लेकर बाहर सब्जीवाले ठेले के पास पहुँची तभी सड़क पर कुछ लोग अपने सिर पर सामान लादे ,औरतें गोद में बच्चे को लिए बेहाल -परेशान चले जा रहे थे।
सड़क पर जाते लोगों में से एक आदमी अपने साथ दो छोटे बच्चे और एक औरत को साथ लिए हमारी तरफ आकर बोला-"भैया क्या आप हमें पीने का पानी दे देंगे, बड़ी प्यास लगी है।"
"हाँ हाँ क्यों नहीं "- सुधीर पानी लेने घर की तरफ चल दिये।
राहगीरों को बेहाल देखकर मेरे मन में कुछ सवाल उमड़ने लगे - " तुम सब इस तरह से कहाँ से चले आ रहे हो ?"
तभी पानी लेकर सुधीर भी आ गये-" लो पानी तुम पी लो, भूख लगी हो तो कुछ खाने के लिए भी ले आऊँ"।
बच्चों के लिए राहगीर और उसकी बीवी ने खाने के लिए देने को कहा तो हम दोनों ने उनके लिए घर से भोजन की व्यवस्था की।
मैंने फिर अपना सवाल दोहराया तो राहगीर बोला -" दीदी हम लोग गाँव से रोजगार के लिए बड़े शहर गये थे लेकिन महामारी ने हमें बेरोजगार कर दिया तो फिर लौट आये"।
राहगीर की बात सुन कर सुधीर ने कहा-" अरे , तुम लोग कहीं घबरा कर तो नही भाग आये क्योंकि हमने तो सुना है कि बड़े शहर में सरकार ने बेघर-बेरोजगार के रहने - खाने का बड़ा इंतजाम किया है।"
राहगीर रुआंसे स्वर में बोला-" भैया कहने और करने में फर्क होता है हम जहाँ से आ रहे हैं हमको वहाँ मदद नही लाठी -डंडे और गालियाँ मिली है , खाना - ठिकाना मिलता तो हम ऐसे नही भागते।"
राहगीर की बीवी भी तड़पकर बोली -" सही है दीदी, हमको भी अब अपने गाँव के पास आकर लगता है कि हम जिंदा बच जायेंगे वरना तो हम महामारी से नही भूख और पैसे की किल्लत से ही मर जाते।"
उन दोनों की बातें हमें भी सोचने पर मजबूर कर रही थी।