पलाश की चाँदनी
पलाश की चाँदनी
मैं अक्सर खिड़की पर खड़ी होकर रात के अंधेरे के साथ अपना सुख दुख बाँटती। जब सुखी होती तो यही रात अपनी सी लगती,और जब दुखी होती तो यही रात काटने को दौड़ती। मेरे घर के सामने ही पलाश का पेड़ है। जो रात को बेहद खूबसूरत लगता है। रात की सफेद चादर की चाँदनी न जाने क्यों पलाश के पेड़ पर लगे फूलों के समान ही पलाश के पेड़ को अपनी चाँदनी के समान लगती है।
कि तभी मैं पीछे की आवाज़ सुनकर मुड़ी, अवनी तुम यहाँ क्या कर रही हो?? "कुछ नहीं शरद, मैं बस रात और उसके चारों तरफ फैली चाँदनी से बातें कर रही थी।"
"तुम न कभी मेरी समझ में आती ही नही हो, तुम और तुम्हारी बातें दोनों ही मेरे समझ से परे हैं। तुम करो अपनी रात और उसकी चाँदनी से बातें मैं तो चला सोने।"
शरद तो कंबल तानकर सो गये लेकिन मेरी आँखों में नमी थी, लेकिन अपने दिल का दर्द निकालने का अधिकार मुझे अभी तक नही मिला था। मेरे साथ ये एक रात ही तो थी जो मेरी थी, पलाश अपनी चाँदनी को ढूँढता और मैं अपने सुख दुख को बाँटने वाला साथी। पलाश के पास उसकी चाँदनी तो थी लेकिन मेरे पास तन्हाई के सिवा और कोई नही था।
शरद और मेरी शादी को भी ज्यादा समय तो नहीं हुआ था। मगर दूरियों नें घर ज़रूर कर लिया था।
मैं शरद की पत्नी तो बन गयी मगर अर्द्धांगिनी तो अभी तक कहाँ बन पायी।
वो तो मेरा साथ कब का छोड़ चुके हैं। बस एक हम दोनों का शरीर ही बचा है। जो एक दूसरे के हिस्से की जिम्मेदारी निभाए जा रहा है।
मैं वहीं खिड़की के पास बैठे-बैठे यही सब अंर्तद्वंद से लड़ते-लड़ते वहीं कब आँख लग गई कुछ पता नहीं चला। सुबह जब हुई तो मुझे ये एहसास हो रहा था कि कोई मुझे पुकार रहा है। "अवनी उठो, कब से आवाज़ लगा रहा हूँ।" पर मैं क्यों आँख नहीं खोल पा रही हूँ। शायद बहुत देर रात सोयी होंगी। वो मेरा हाथ पकड़कर मुझे हिला रहे थे। मगर वो अचानक इधर उधर पागलों की तरह भागने लगे। फोन पर फोन लगाने लगे। तभी वो डॉक्टर को बुलाकर दौड़ते हुए आए। तो उन्होंने जो बताया उसे सुनते ही पैरों तले ज़मीन खिसक गयी।
"शरद जी बेहद अफसोस जताते हुए कहना चाहता हूँ कि आपकी पत्नी अवनी अब नहीं रहीं।" डॉक्टर की ये बात सुनकर मैं तो सन्न सी रह गयी। कुछ देर बाद बाद मैं वहीं अपने आसपास लोगों की भीड़ जमा महसूस कर रही थी। सभी मेरे लिए विलाप कर रहे थे। और सबसे ज्यादा जो दुखी थे वो मेरे पति शरद थे। मुझे आज पता चला कि जिस तरह मैं शरद के बिना अपूर्ण थी ठीक उसी तरह शरद भी मेरे बिना अपूर्ण हैं।
आज मुझे ये रात भी बिल्कुल काली लग रही है। न तो चंद्रमा की सफेद चादर है। और न ही पलाश के पास उसकी चाँदनी, आज पलाश भी मेरे और शरद की तरह अपनी चाँदनी से अलग हो गया है।
जिस तरह शरद मेरे वियोग में रो रहे थे। उसी तरह मैं पलाश को भी अपनी चाँदनी के वियोग में विलाप करते महसूस कर रही थी।