पिता का दर्द (लघुकथा)

पिता का दर्द (लघुकथा)

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तिरंगे में लिपटे अपने आंख के तारे एकलौते बेटे को केशव सिंह बस टकटकी लगाएं देखे ही जा रहे थे।आंखें नम थीं पर खुलकर रो नहीं पा रहे थे ।सामने पत्नी और बेटी बिलख बिलख कर रो रही थीं,कहें भी तो क्या उनसे।बस मन ही मन अपने बेटे से शिकायत कर रहे थे गीली आंखों को गमछे से बार बार पोंछते जो बस एक ही बात कह रही थी।


"तुम तो अपना फर्ज निभाकर चले गए, एक बेटे का फर्ज चाहे वो अपनी मां के कोख से पैदा होने का हो, या फिर भारत माता की रक्षा के लिए हो, तुमने तो जान देकर देश की रक्षा का फर्ज निभा दिया,तिरंगे से लिपटा अपने जिगर के टुकड़े को इन बूढ़े कंधों से कैसे उठाया जाएगा,इन बूढ़ी आँखों को तेरे आने का इंतजार था पर इस तरह नहीं, तेरी मां रो कर मन हल्का कर लेगी पर मैं क्या करूंगा ?जिन कंधों पर मुझे जाना था उसे मैं कैसे कंधा दूं ,मैं पिता हूं रो भी नहीं सकता"।

पिता का दर्द कैसे समझाऊं।



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