पहली पोस्टिंग में हुआ हिमाचल दर्शन
पहली पोस्टिंग में हुआ हिमाचल दर्शन
कठोरतम मिलिटरी प्रशिक्षण के बाद हम बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे कि भाग्य को जो भी मंजूर होगा भारत के किसी भी स्थान पर हमलोगों की पोस्टिंग होगी। अब हमें उन सख्त प्रशिक्षणों से नहीं गुजरना होगा ! खुशी का आलम चारों तरफ फैला हुआ था। सब प्रशिक्षणार्थी, सहपाठी, मित्र और कुछ ग्रामीण लोगों का एक साथ रहना और संग -संग 3 वर्ष 4 महीने तक एक साथ प्रशिक्षण करना, सुख -दुख में साथ -साथ रहना मानो एक नए परिवार का सृजन हो गया था। बस उन लोगों से बिछुड़ना, भारत के किसी कोने में जाना और वो भी नए परिवेशों में, थोड़ी सी खल तो अवश्य रही थी। पर यह तो मानना ही था कि तमाम सैनिकों को इसी प्रशिक्षण ने “ आत्म निर्भर “,साहसी “आज्ञाकारी, ” अनुशासित और कर्मठता के साँचे में ढाल दिया था ! आग में तपा के एक खरा सोना बनाया गया था। आखिर किसे नहीं चाहत होती है कि आने वाले कल के अध्याय को पढ़ें और सुनहरे भविष्य की परिकल्पना करें ?12,दिसम्बर 1975 संध्या काल सबों की लाटरी खुली। भारत के विभिन्न सैनिक अस्पतालों और यूनिटों में सबकी पोस्टिंग हुयी। मेरी पोस्टिंग सैनिक अस्पताल योल कैम्प हिमाचल प्रदेश हुयी। उत्सुकता लोगों में व्याप्त थी “ कहाँ है ? कैसा है ? और जाने का साधन क्या है ?” उन्हीं प्रांत के लोगों से वहाँ के विषय में पुछते थे। मेरे साथ में बिहारी लाल डोगरा और शमशेर सिंह डोगरा कंगड़ा जिला, हिमाचल प्रदेश के ही थे। उन दोनों से पूछा तो सांत्वना देते हुए शमशेर ने कहा,” तुम बहुत लक्की हो, बहुत सुंदर स्थान पर तुम्हारी पोस्टिंग हुई है। मैं भी वहीं का रहनेवाला हूँ।“ बिहारी लाल ने भी अपनी सहमती जतायी। वैसे सब एक दूसरे को ढाढस इसी तरह देते हैं। किसी से कोई पूँछ ले पर किसी को किसी भी प्रान्त के जगहों की आलोचना करते आप नहीं पाएंगे। थोड़ी बहुत चिंता थी। घर से तकरीबन 1900 किलोमीटर दूर हो जाएंगे।18, दिसम्बर 1975 को लखनऊ से पठानकोट के लिए रवाना हो गया ! लोगों ने बताया था पठानकोट बस अड्डे से बस योल कैम्प जाएगी। दूसरे दिन पठानकोट पहुँच गए। फिर बस यात्रा शुरू हुई। मुझे खिड़की वाली सीट मिली थी। प्राकृतिक दृश्य, पर्वत शृंखला और टेढ़े -मेढ़े रास्ते को निहारता चल गया। पहले नूरपुर में बस रुकी और बहुत से छोटे -छोटे स्थानों पर भी रुकी। फिर शाहपुर और अंत में योल कैम्प। अद्भुत नज़ारा चारों तरफ पर्वत ही पर्वत, जंगल ही जंगल, संकीर्ण रास्ते हिमालय के पर्वतों में बसा योल कैम्प की मनोरम छटा मन को मोह गयी। सीढ़ी नुमा विभिन्न सैनिक यूनिट दिखलाई दे रहे थे। ऊँचे पर्वतों पर बर्फ दिखाई दे रही थी। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई 1,221 m (4,006 ft) है। इस शहर का नाम YOL (Young Officers Living) से लिया गया है, जो 1849 के आसपास ब्रिटिश भारतीय सेना द्वारा स्थापित एक छोटा सा शहर है। योल कैंट । (छावनी) का निर्माण 1942 में किया गया था। पहले इसे "मझैथा" गांव के रूप में जाना जाता था। बस ने मुझे मैन रोड पर उतार दिया था। ऊपर खड़ी पहाड़ी 2 किलोमीटर पर हमारा अस्पताल था। बगल चेकपोस्ट से फोन किया और कुछ ही क्षणों में हमारी गाड़ी आ गयी और अपने सैनिक अस्पताल में मुझे ले गयी। वहाँ लोगों ने मेरा स्वागत किया। सब के साथ घुल -मिल गया। चमुड़ा देवी का मंदिर अद्भुत लगा। धर्मशाला, ब्रिगैड बाज़ार और दाह पिक्चर हॉल की यादें अभी तक ताजी है। वैसे बहुत दिन हो गए पर उस सुनहरे क्षणों को अभी तक अपने मनोमस्तिष्क में कैद कर के रखा है
