पड़ोसी
पड़ोसी
गेट के दरारों से कैदी की भाँति मुक्ति की चाह रखती एक नज़र सुबह के साढे छः बजे अक्सर दिखने लगी थी मोहिनी को ! न चाहते हुये भी हर बार नज़र अपने आप उस पाँच साल की बच्ची की ओर चली जाती थी । नज़रें मिलती और वह हँसती तो मोहिनी भी हँस देती। ये सिलसिला कुछ दिन चलने लगा। जब कभी वह बच्ची न दिखती तो मोहिनी की नजरें उसे ढूँढती। आज जब वह बच्ची न दिखी तो मोहिनी उदास सी हो गई।
अरे ,आज घर का दरवाजा खुला कैसे?पर बच्ची वहाँ नहीं थी। मन में अनेकों सवाल लिये मोहिनी अपने घर के रास्ते चल पड़ी। यह क्या ? आज मोहिनी के घर का गेट खुला था। वह सोचने लगी,मैं तो बंद करके
गई थी। घबराई हुयी वह ज्यों ही भीतर गई, दृश्य देखकर हैरान रह गई। वह बच्ची घर के किचन के भीतर से कुछ हाथों में छिपाये निकल रही थी। मोहिनी ने क्रोध में आकर दो चार थप्पड़ मारते हुये कहा,"चोरी करती है,चोर कहीं की," पर वह बच्ची हाथ में पकड़े पैकट को जल्दी से खोलने हेतु अपने नन्हें-नन्हें दाँतों से प्रयास कर रही थी, बीच-बीच में मोहिनी की ओर देखकर मुस्कुरा रही थी।
" बदतमीज कहीं की, तेरी माँ ने यही सिखाया तुम्हें।"
जब मोहिनी ने उस बच्ची को तीन-चार थप्पड़ और मारे तब उसके हाथ का पैकट नीचे गिर गया तब वह रोती-रोती बोली,"आँटी ,मेरी माँ नहीं है । "
मोहिनी लजाई हुई जमीन पर गिरे पैकट में से बिखरे हुये बिस्कुट एकत्र करते हुये सोचने लगी,यह कैसी आधुनिकता है कि व्यक्ति पड़ोस में रहते हुये पड़ोसी से भी अनजान है। मैंने हमेशा इस बच्ची के होंठों की हँसी ही देखी। इसकी आँखों से झलकती भूख गरीबी और बेबसी देख पाती तो शायद मैं खुद की नजरों में यूँ न गिरती।