BinayKumar Shukla

Inspirational

4.5  

BinayKumar Shukla

Inspirational

ऑफिस डेस्क से समाधि तक

ऑफिस डेस्क से समाधि तक

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अपने डेस्क से बगल वाले डेस्क पर झांक कर देखा। कुर्सी पर बैठे बाबू बीच बीच में लंबी सांसे ले रहे थे, कभी सिर खुजाते कभी सिर रगड़ते और फिर लंबी सांसे लेने लगते। ऐसा लग रहा था मानो दर्द से उनका सिर फट रहा हो या फिर कोई गहरी बेचैनी उनको खाए जा रही हो। पहले तो मैंने उनकी इन हरकतों को अनदेखा किया, सोचा थोड़ी देर में स्वतः ठीक हो जाएंगे, पर जब उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुई तो मैं उनकी सीट के पास पहुँचा और पूछ बैठा कि दादा माजरा क्या है।

काम के बोझ के कारण कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए। अभी पिछला ही समाप्त नहीं हुआ कि बस दिनों-दिन नए काम का टेंशन सिर पर आ जा रहा है, उन्होंने कहा।

उनकी बात सुनकर मुझे ठाकुर रामकृष्ण परमहंस की बात याद आ गई। वे अक्सर कहा करते थे “कोथाओ सुख नेई रे भाई, ईश्वरेर चरण छाड़ा”,  अर्थात ईश्वर के चरण के अलावा कहीं सुख नहीं है। मैंने सहकर्मी को समझाया कि क्यों व्यर्थ चिंता करते हैं। यह सब व्यथा तो क्षणिक ही है। आज यह समस्या लग रही है, कल कुछ और नया आ जाएगा। उस समय वह समस्या बड़ी लगने लगेगी और यह छोटी। आप कभी विमान से यात्रा करके देखिए, आपको जमीन पर खड़ा मनुष्य चींटी के समान छोटा दिखेगा। जैसे जैसे आप ऊपर उठते जाएंगे, मनुष्य की स्थिति आसमान में टिमटिमा रहे तारों जैसी भी नहीं रहेगी, अर्थात इस धराधाम पर मनुष्य की औकात तिल भर भी नहीं है फिर भी मनुष्य मिथ्या उछाल मारता रहता है। इसे दूसरी तरह से यदि सोचें तो इस ब्रह्माण्ड को चलाने वाले के पास कितनी चिंता और फाइलें पड़ी होंगी? अनगिनत न!! पर काम के सिलसिले में वह न तो कभी भ्रमित रहता है ना ही तो कभी तनाव में। यदि कभी वह तनाव में आ जाए तो यह श्रृष्टि चक्र छिन्न भिन्न हो जाए, पृथ्वी सूर्य से जा टकराए, अन्य ग्रह आपस की परिधि छोड़ अन्य परिधि की ओर भाग खड़े हों। पर ऐसा कुछ नही होता है, क्योंकि वह कभी तनाव में नहीं आता है, कभी भ्रमित नही होता।

लेकिन हम तुच्छ नौकरी पेशा लोग, फाइलों में मुँह डाले यह सोच लेते हैं कि यही हमारी दुनिया है, इसे ही अपनी परिधि मान लेते हैं और सोते जागते चलते फिरते बस ऑफिस, फाइलें और ऑफिस के कामों की चिंता में उलझे रहते हैं। यदि साफ शब्दों में कहें तो जो क्लार्क है वह क्लार्क का, जो अधिकारी है वह अधिकारी का या अन्य लोग अपनी नौकरी के अनुरूप लबादा ओढ़े रहते हैं और फिर ऐसा ही व्यवहार और अनुभव करने लगते हैं मानो यही लबादा हमारी स्थाई पहचान है। सचमुच हम सब पढ़े लिखे मूर्ख हैं जो अपने आपको भूलकर क्षणिक और छद्म आभासी दुनिया में ऐसे निमग्न हैं जिसका कोई तोड़ नहीं है। यह झूठा लबादा ही हमारे कष्टों और व्याधियों का कारक है। शायद यही कारण है कि पढ़े लिखे, सभ्य और नौकरी पेशा लोग अधिकतर काम उम्र में विविध व्याधियों से पीड़ित होकर अपना अधिकांश समय या तो कार्यालय में बिताते हैं या फिर अस्पतालों या डॉक्टरों के ओपीडी पर। इसके विपरीत सड़क पर घूम रहा भिखारी या पागल कभी समझ ही नहीं पाता कि उसे कोई बीमारी है।

एक से एक महंगे शैंपू और हेयर केयर का प्रयोग, साफ सुथरे घर, एयर प्यूरिफायर और एयर कंडीशंड वाहन में रहने और घूमने वाले अधिकांश लोग आपको गंजेपन के दंश से पीड़ित मिल जाएंगे पर शायद ही सड़क पर घूमने वाले भिखारी या कोई पागल गंजा दिखे, जबकि वे न तो अपने स्वास्थ्य और ना ही तो सफाई के प्रति सजग होते हैं, ना कभी गैस के लिए ओमेज खाते हैं ना ही पेट साफ करने के लिए कायम चूर्ण का प्रयोग करते हैं। सेहत के इस भेदभाव का मूल कारण क्या है बता पाएगे?

इन सबका मूल कारण है बेफिक्री! यह बेफिक्री एक वर्ग के लोगों में आ नहीं पाती इसलिए वे नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित हैं जबकि भिखारी और पागल वर्ग के लोगों की संपत्ति बेफिक्री ही है जिसके बल पर हर हाल में वे स्वस्थ और मस्त रहते हैं।

इतना सुनने के बाद सहकर्मी मित्र की ओर से प्रश्न आना स्वाभाविक था। उन्होंने पूछा, ‘ये सब बातें, सुनने में तो बड़ी अच्छी लगती हैं पर इनको जीवन में उतारकर चल पाना आखिर संभव कैसे है?’

उनका प्रश्न भी बड़ा ही स्वाभाविक है। हम लोग काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा और ईर्ष्या के जाल में कुछ ऐसे उलझे हुए हैं कि अन्य मार्ग का हमें चेत ही नहीं होता है। यही कारण है कि आजीवन हम इसमें ही उलझे रह जाते हैं और स्वयं को न तो कभी पहचान पाते हैं और ना ही तो अपना हो पाते हैं। यही हमारे समस्त कष्टों का मूल भी है। यदि हमें इन कष्टों से निपटना है तो पहले खुद को जानना होगा कि हम क्या हैं, क्यों हैं और हमारा अंतिम लक्ष्य क्या होना चाहिए।

गीता के एक श्लोक का यदि वर्णन करें तो :

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥

इस श्लोक का मूल आशय यह है कि मनुष्य को अपने मन को नियंत्रण में रखने का प्रयास करनी चाहिए । जिस व्यक्ति ने अपने मन पर नियंत्रण कर लिया वह इस ब्रह्मांड के रहस्य को कुछ-कुछ जानने लगेगा और फिर अपने जीवन के उद्देश्य को भी समझने लगेगा।


‘लेकिन मन को वश में करना इतना आसान हैं क्या?’ मित्र ने पूछा।


कठिन तो है पर असंभव नहीं है। अपने मन पर नियंत्रण करने के लिए सबसे आपको खुद को साधना पड़ेगा, साधना अर्थात नियंत्रण की प्रक्रिया में ढालना होगा खुद को, और इसके लिए शांत और स्थिर होकर एक स्थान पर बैठने से शुरुआत करनी होगी । मन तो है ही चंचल, और जब मन ही चंचल हो तो वह तन को कहाँ शांत बैठने देगा । जैसे ही आप शांत बैठने का प्रयास करेंगे, आपका मन उसे विरक्त करना शुरू करेगा। नाना प्रकार की बातें याद दिलाएगा, यह प्रयास करेगा कि आप एक स्थिति में अधिक देर तक बैठ न सकें । अब जब आप बैठ ही नहीं पाएंगे तो इसके निग्रह का प्रयास भला कैसे कर पाएंगे। इसके लिए आपको थोड़ा हठ करना ही होगा। हठ अर्थात बैठने की प्रक्रिया पर ध्यान देना होगा अर्थात एक निर्धारित समय में निश्चित योग या आसन में और निश्चित समय के लिए बैठना शुरू करना होगा । इसके बाद दूसरी स्थिति की ओर चलने का प्रयास करना है। मन पर नियंत्रण का प्रयास । चूंकि मन पर नियंत्रण करने का आप जितना प्रयास करेंगे, आपका मन उतना ही बेचैन करेगा। इससे बचने के लिए आपको इसे ढील देना होगा अर्थात, इसे अपनी रौ में बहने देना होगा। यहाँ आप अपने मन से अलग हो जाते हैं, अर्थात केवल मन को देखते रहते हैं कि वह किधर जा रहा है, कितना भाग रहा है। जैसे ही आप मन को ढीला छोड़, उससे खुद को अलग करना प्रारंभ करते हैं, आपका मन भी क्रमशः आपकी ओर ही खींचे आने के लिए बाध्य होने लगता है और धीरे-धीरे आपके नियंत्रण में आने लगता है, शांत होने लगता है।


मन के नियंत्रण में आते ही आप ‘विरक्त’ अर्थात निर्लिप्त होने लगते हैं, शरीर और आत्मा का संबंध समझने लगते हैं। यही स्थिति आपको समाधि की ओर ले जाती है। समाधि का अर्थ मृत्यु नहीं है। कुछ लोग समाधि को मृत्यु या जीवन का अंत मान लेते हैं पर ऐसा कुछ भी नहीं है। अध्यात्म में समाधि का अर्थ है आप खुद को जानने की राह पर अग्रसर हो उठते है, खुद को जानने लगते हैं। और फिर मन पर नियंत्रण पाते ही आपमें यह भावना आ जाती है कि आप जो कुछ भी कर रहे हैं क्यों कर रहे हैं, आप किस कार्य के लिए जीवन ग्रहण किए हैं और फिलहाल क्या कर रहे हैं!!


मन पर नियंत्रण ही हमें मनुष्य जीवन और हमारे कर्म-धर्म की सही राह दिखाएगा और यही हमें हमारे दफ्तर के काम के बोझ को कैसे हल्का करना है और कैसे द्रुत गति से निस्तारित करना है, हर मार्ग स्वयं ही प्रकट होता जाएगा। 



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