Binay KumarShukla

Drama

4.8  

Binay KumarShukla

Drama

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

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"बाबू, 'राजू' से कहियेगा की आते वक्त हमारे लिए कान में लगाने के लिए सुनने वाला मशीन लेते आएंगे। उम्र हो गयी है सुनाई भी कम देने लगा है, और हाँ आँखों से दिखाई भी नहींदेता है, कहियेगा की मेरे लिए एक नया चश्मा भी लेते आएंगे।"- दादाजी ने कहा। 

 "भैया, चाचाजी से कहियेगा आते समय मेरे लिए कलकत्ता से नयी सैकिल लेते आयेगें। ” छोटे डब्बू ने कहा। 

 "बाबू, सुमी के लिए नयी बनारसी साड़ी लेनी है, उसके गौना के लिए, और फिर उनके शादी के लिए कुछ कर्ज लिया था। उसको भी चुकाना है 'राजू' से कहियेगा की कुछ पैसा भेज दे" उसकी माताजी ने कहा।

 परिवार के हर सदस्य अपनी मांगों की फेहरिश्त लिए मेरे सामने बैठे हुए थे। ये सब संदेश मेरे मित्र 'राजू' के लिए हैं जो रोजी रोटी की तलाश में कलकत्ता शहर गया हुआ है, और इस समय किसी जूट मिल में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम सीख रहा था मैं और 'राजू' एक ही गांव के रहनेवाले  है। कुछ दिनो के लिए मैं गाँव आया था। सोचा चलो राजू के घर भी हो आते हैं। उसे मां के हाथ के बने चना-चबेना बहुत पसंद है। मैंने सोचा वह भी ले लूंगा और उसके घर वालों का संदेशा भी लेता जाऊंगा। राजू खुश हो जाएगा माँ के हाथ के बने व्यंजन को पाकर। 

 'राजू' गॉव में रहने वाला एक सीधा सादा लड़का था। यूँ तो खेती योग्य काफी जमीन उनके पास है तथा खेती करवाने के लिए पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध हैं। यदि अपने घर में खेती करने का मन न हो तब भी यदि थोड़ी सी मेहनत करे तो पैसे का अभाव न हो। पर जबसे उसकी शादी पास के गांव के मास्टरजी के बेटी के साथ हुई है, ससुराल वालों की तरफ से मौखिक रूप इस बात का काफी दबाव दिया जा रहा था कि अब राजू बाबू खेती का काम छोड़ कर शहर जाए और कहीं नौकरी करे। फूलमती को अपने साथ ले जाए। मास्टरजी का दामाद खेती के कामो में लगा रहे यह उन्हें अच्छा नहीं लगता। फूलमती भी संयुक्त परिवार के झंझट से दूर रहना चाहती थी। उसकी शहर में व्याही सहेलियां जब भी उससे मिलने आती थीं, शहर के जीवनशैली का कुछ ऐसा बखान करती कि फूलमती का मन दौड़कर शहर जा कर बसने का करने लगता। अब जब शादी हो गयी तो यह सपना उसे साकार होता दिखने लगा। कुल मिलाकर मास्टरजी का पूरा परिवार भी यही चाहता था कि दामाद कहीं दूर जाकर नौकरी करे तो सबकी इज्जत बढ जायेगी। लोग कहेंगे कि फलाने बाबू के दामाद परदेश में रहते है और खूब पैसा कमाते है।

एक दिन अचानक फोन आया, सियालदह रेलवे स्टेशन से। यह राजू की आवाज थी। बोला, 'भइया कहाँ रहते है? मैं सियालदह स्टेशन तक आ गया हूँ। आइये मुझे ले चलिए। ”

राजू का आना सुनकर मैं भी प्रसन्न हो उठा। आज लगभग चार- पांच साल बाद हम मिलने वाले थे। तैयार होकर मैं स्टेशन पहुंचा और उसे लिवा लाया। इधर उधर की ढेर सारी बातें होने लगी। अगले दिन राजू ने कलकत्ता आने के अपने मकसद के बारे में बताया। उसने कहा कि मैं उसे कहीं नौकरी पर लगवा दूं।

उसकी बात सुनकर मैं हैरान रह गया। मैंने उसे बहुत समझाया कि आया है तो जबतक इच्छा हो रहे, कलकत्ता देखे, घूमे-फिरे, लेकिन नौकरी की बात न सोचे। पर उसके सर पर मानो भूत सवार  था। बात 1990 के आसपास की है। उन दिनों कलकत्ता में चंद जूट मिलों को छोड़कर नौकरी का विशेष अवसर कहीं था नहीं। काफी भागदौड और मशक्कत के बाद थक हारकर उसने एक जूट मिल में दिहाड़ी के आधार पर नौकरी कर ली। पहले काम का कोई अनुभव तो था नहीं, लिहाजा उसे अप्रेंटिस के रूप में स्पिनिंग मिल डिपार्टमेंट में रोज के 25 रुपये पर काम मिल गया। जूट मिल का सबसे कष्टदायक विभाग होता है यह। अक्सर लोग कुछ ही दिन में छोड़ कर भाग जाते हैं। पर मेरा दोस्त इरादे का पक्का और मेहनती भी था, अतः डटा रहा। उसे तो मानो सोने की चिड़िया मिल गयी हो। काम मिलते ही उसने मुझसे कहा कि उसके लिए अलग रहने की व्यवस्था करवा दिया जाए।हमने बहुत समझाया पर हारकर उसकी बात मान ली।

जूट मिल में मजदूरों को हर पंद्रह दिन में तनख्वाह मिलती है। इसे लोग पन्द्रहिया कहते हैं। जिस दिन पन्द्रहिया मिलती है उस दिन जैसे मेला सा लगा होता है। जूट मिल के गेट से लेकर बाजार तक बाजार सज जाता है। हर तरफ उमंग का वातावरण होता है। छोटी-छोटी तंग गलियों से लेकर खुले आसमान के नीचे तक रहने वाले मजदूर आज सजधज कर निकलते है। कोई जिलेबी की दूकान पर खड़ा मिलता है तो कोई इस दिन का भरपूर आनन्द लेने लिए वीराने में सजे चुल्लू(देशी शराब) के अड्डे पर देसी चुल्लू पीकर मस्ती के आलम में झूमते हुए अपने कमरे की तरफ जाता दिखाई दे जाता है। कहीं खरीददारी तो कहीं बाजीगरी। लगता है जैसे सब इनके लिए ही सजाया गया हो। आज राजू को पहली पन्द्रहिया मिली थी। ओवरटाइम मिलकर कुल 400 रुपया मिला था। पहली पगार का सुख उसके चेहरे पर झलक रहा था। कलकत्ते को धरती पर मेहनत की पहली कमाई पाकर फूला नहींसमा रहा था हमारा 'राजू'। लग रहा था जैसे मुट्ठी में आसमान समा गया हो। आँखो में चलचित्र की भाती सभी घरवालों की बातें और उनकी मांग घूम गयी। एक छोटी सी रकम मंहगाई का दौर और फिर चाहतों की एक लम्बी सी लिस्ट कैसे पूरा हो पायेगा सबकुछ। जमीन और आसमान मानो एक करने की बारी आ गयी थी।

'यह तो शुरूआत है धीरे-धीरे सबकुछ ठीक होता चल पड़ेगा' , वह बुदबुदाया। उसने मुझे भी जलेबी खाने के लिए आमंत्रित किया था।

समय पंखों पर बैठकर आगे बढ़ता चला जा रहा था। मैं भी अपने काम में मशगूल हो गया। व्यस्तताओं के कारण उससे मिलने का समय भी नहीं निकाल पा रहा था। चार पाच महीने बीत गए थे उससे मिले हुए। एक दिन घर वापस आया तो माताजी ने कहा, “बेटा हैं कई दिन हो गए है राजू की कोई खबर नहीं मिली। कभी मिलने भी नहींआया। कल गाँव से चंदू आया था। बता रहा था कि राजू ने कई दिनों से अपने घर भी कोई समाचार नहीं भेजा है।

जबसे आया है सब उसकी राह देख रहे है। ना कोई संदेश ना ही कोई जानकारी।“ देखो जाकर की कहॉ रह रहा है ? क्या कर र मैं भी परेशान और हैरान हुआ की क्या हो गया हमारे इस दोस्त को ? क्यों दूर हो गया है अपनों से ! कपडे बदल कर तुरंत मैं निकल पड़ा उससे मिलने के लिए।  ढूढते ढूढते उसके निवास पर पहुचा। एकाएक देखा तो पहचान ही नहीं पाया अपने उस राजू की जो पांच महीने पहले हंसता खेलता था मुट्ठी में आसमान भरने का सपना सजोये हुए उमंग में था आज मेरे सामने नरकंकाल के रूप में खड़ा था। बढ़ी हुई दाढ़ी, पिचके गाल, निस्तेज आँखें उसका हाल बयां कर रहे थे।

 'ये क्या हाल बना रखा है तुमने ? ना कोई खबर ना कोई बात, चलो हमें नहीं। कम से कम अपने घर वालों को तो खबर दे सकते थे। ", मैंने छूटते ही सवाल दागा।

 मेरे गले लगकर वो फूट पडा। ज्यादा कुछ बोलने को जरूरत नहीं थी। उसका हुलिया उसका हाल बता ही रही थी। पड़ोसियों ने बताया कि आज एक महीने से बीमार चल रहा है। सही देखभाल न हो पाने के कारण इलाज भी नहीं करवा रहा है। मैं उसे घर ले आया। थोड़ी सी देखभाल और सेवा से स्वस्थ होने लगा। शाम को माँ के गले लग कर रोने लगा। कहा चाची बड़ी भारी भूल हो गयी। भइया की बात शुरू में ही मान लिया होता तो आज ये दशा नहीं होती। लोगों की हवाई बातों में आकर घर बार छोड़ कर जाने क्यों भटकने के लिए आ गया। मेरा टिकट कटवा दीजिये। अब और नहीं रह सकता मैं यहाँ। यहाँ तो जितना मैं काम ना सका उससे अधिक गवां गया। अपने गाँव में तो कम से कम इतना तो कमा ही लेता था पूरे परिवार का भरण पोषण कर सकू, और फिर अपनो के बीच में था।"हम किसानों के लिए अपनी मिटटी, अपनी खेती ही भली है। धरती माता के आँचल में ही हमारी गति है।"

 अगले दिन पूर्वांचल एक्सप्रैस में उसे बैठाकर मैं भी सूकून की साँस ले रहा था। गाड़ी धीरे धीरे रेंगने लगी। वपासी में मैं सोचता हुआ आ रहा था कि चलो आज एक भूमि पुत्र को यह अहसास तो हुआ कि अपनी धरती ही अपना सबकुछ है। चलो एक मासूम इस भीड़ में खोने से तो बच गया। 


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