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नयी सुबह हो गयी

नयी सुबह हो गयी

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भगवान आदित्य ने अपना रथ धरती की ओर मोड़ दिया। आकाश और धरती ने भास्कर की अगवानी में रतनारी रंग का कारपेट बिछा दिया। सूर्य की किरणों ने गगनचुंबी इमारतों की खिड़कियों पर दस्तक दी। खिड़कियों पर टँगे मोटे-मोटे परदों को छूती किरणें आगे बढ़ गयी। रात के गहन अंधकार में ही नये साल का जश्न मना थक कर चूर हो लौटे धनाढय और नवधनाढय अभी नींद की गोद में छिपे थे।

किरणों ने सीधे झील किनारे बनी झुग्गी के फटे मोमजामे पर दस्तक दी। नसीब की आँख खुली। बाहर अभी धुंध और अंधेरा है। भीतर चारों बच्चे ठंड के कारण एक ही चादर में एक दूसरे से लिपटे सो रहे थे। उठ मीना, रीना, उठ सोनू बीनू उठो। खाली बोरे समेटती वह बाहर आ गयी, पीछे-पीछे बच्चे भी। कालोनी के पार्क में रात के जश्न का सबूत बिखरा पड़ा था। नसीब ने फटाफट खाली बोतलें बोरी में डालनी शुरु की। बच्चों के हाथ उससे भी ज्यादा फुर्ती से चल रहे थे । "माँ आज हम चावल के साथ चोखा बनाएंगे न" - बीनू ने कहा। तब तक मीना को डिस्पोजेबल के ढेर से अधखायी पेस्ट्री और पैट्टियाँ दिख गयी थी। सभी बच्चे उस ओर लपक लिए। बच्चों को वहीं छोड़ नसीब ने तीनों बोरियां उठा ली। सफाईवालों के आने से पहले एक दो बोरी और मिल जाएँ तो इस पूरा हफ्ता बच्चों को शायद दाल-चावल खिला पाएगी।

सूर्य की किरणें तृप्त भाव से खाते बच्चों के चेहरों पर चमकी और वहाँ से फिसलती हुई खाली बोतलों के ढेर पर टिक गयी। नये साल की नयी सुबह हो गयी थी।


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