नया युग

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‘ बेटा, तेरे पिताजी की तबियत बहुत खराब है। वह तुझे देखना चाहते हैं अगर तू आ सके तो।’ कहते हुये माँ ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया था ।   

‘ माँ मैं शीघ्र पहुँचती हूँ। तुम चिंता न करो, उन्हें कुछ नहीं होगा ।’

   

प्रतीक्षा फोन पर माँ का विगलित स्वर सुनकर चिंतित हो उठी थी। यद्यपि गाँव के सभी लोग माँ –पिताजी को बहुत मानते हैं, आवश्यकता के समय सहायता भी करते हैं किंतु कोई कितना भी कर ले, बीमारी में इंसान अपनों को ही ढूँढता है, यही शाश्वत सत्य है। माँ भी बीमार रहती हैं, ऐसे में उन्हें भी शारीरिक एवं मानसिक सहारे की आवश्यकता है अतः उसका जाना आवश्यक हो गया था । 

      

प्रतीक्षा नेहा और अपूर्व को भी अपने साथ लेकर जाना चाहती थी, किंतु अनुराग नहीं चाहता था कि प्रतीक्षा बच्चों के साथ जाकर बीमार व्यक्ति को और भी परेशान करे। उसके अनुसार बीमार व्यक्ति को वास्तव में आराम की आवश्यकता होती है न कि भीड़ भाड़ की, अतः ऐसे समय उसी व्यक्ति को जाना चाहिये जो बीमार की सेवा करने के साथ-साथ घर बाहर भी संभाल सके। बच्चों को इतने दिन उसके बिना रहना पड़ेगा, इस विचार ने प्रतीक्षा को तनावग्रस्त कर दिया था किंतु अनुराग के समझाने पर वह जाने के लिये तैयार हो गई, बस में बैठते ही उसका मन अतीत के गलियारों में भटकने लगा...

   

 वह अपने माता-पिता की एकलौती संतान है। उन्होंने उस पर अपना सम्पूर्ण प्यार ही नहीं उड़ेला, उसकी हर ख़्वाहिश पूरी करने के साथ उच्च शिक्षा भी दिलवाई है। उसके पिता रामप्रकाश एक ऐसे गाँव के स्कूल में शिक्षक हैं जहाँ लड़कियों को शिक्षा दिलवाना उन्हें बिगाड़ना माना जाता था। गाँव के लोगों के अनुसार उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कियाँ घर का काम नहीं करना चाहतीं । वे घर का काम करने की बजाय मेम की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठे रह कर सजने संवरने में ही अपना सारा समय बर्बाद करती रहती हैं। ऐसी स्थिति में घर, घर नहीं सराय बन कर रह जाता है। ऐसी मनःस्थिति के लोगों से लोहा लेकर उसके पिता ने उसे उच्च शिक्षा दिलवाने के साथ-साथ, घर का अन्य काम करवाने की भी उचित शिक्षा दिलवाकर लोगों की भ्रांत धारणा को तोड़ा था। वह गाँव की पहली लड़की है जिसने गाँव से बाहर जाकर न केवल कॉलेज की शिक्षा प्राप्त की वरन् अपनी योग्यता के बल पर, आज एक नामी कंपनी में लेबर वेलफेयर आँफिसर के पद पर कार्यरत है। जितनी कुशलता से वह आँफिस का कार्यभार संभाल रही थी उतनी ही कुशलता से वह घर की देखभाल भी कर रही है। एक समय गाँव के जो लोग उसकी उच्च शिक्षा के विरोधी थे, आज उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते हैं। वह गाँव के लोगों के लिये रोल मॉडल बन गई है जिसका उदाहरण देकर गाँव वाले अपने बच्चों को पढ़ने की प्रेरणा देते रहते   

प्रतीक्षा को अपने माता-पिता पर गर्व है। वह केवल उसके माता-पिता ही नहीं पूरे गाँव के संरक्षक बन गये हैं। यही कारण है कि गाँव के सभी लोग उन्हें बेहद आदर तथा मानसम्मान देते हैं। स्कूल में अध्यापन के अतिरिक्त पिताजी ने प्रौढ़ लोगों के लिये भी रात्रिकालीन पढ़ाई की व्यव्यस्था की है। इसके लिये वे समय-समय पर अपने स्कूल के कुछ छात्रों की सेवायें भी लेते रहते हैं। सच तो यह है कि उन्हीं के विचारों एवं प्रयासों के कारण गाँव के लोगों में जागृति आई है। अब तो बिजली, पानी, मोबाइल फोन, हर घर में शौचालय की सुविधा के साथ-साथ गाँव में एक अस्पताल भी बन गया है। पिताजी के प्रयास का ही फल है कि आज उसके गाँव इस्माइलपुर का प्रत्येक नागरिक शिक्षित हो गया है। पिछले वर्ष ही उसके गाँव को राज्य सरकार की ओर से पूर्ण साक्षरता का खिताब प्राप्त करने का गौरव प्राप्त हुआ था।   

माँ-पिताजी ने प्रतीक्षा को बड़े लाड़-प्यार से पाला था। फूल के समान उसकी परवरिश की थी। बीमार होने पर रात भर जागकर उसकी देखभाल की थी। अपना पेट काट कर उसकी प्रत्येक आवश्यकताओं को पूरा करने का उन्होंने हर संभव प्रयास किया था। गाँव वालों की बात तो छोड़िये अपनों के विरोध के बावजूद उसे उचित शिक्षा दिलवाई, अपने पैरो पर खड़े होने के लिये प्रेरित किया। अब जब वह बीमार हैं तब उनकी बीमारी में उनकी देखभाल करना उसका कर्तव्य ही नहीं दायित्व भी है । इसी दायित्व के निर्वाह के लिये वह बच्चों को अनुराग के सहारे छोड़कर चल पड़ी।     

यद्यपि ऐसा नहीं है कि उसने पहली बार बच्चों को छोड़ा था किंतु इस बार अचानक घर जाने के कार्यक्रम के कारण वह घर की देखभाल का समुचित इंतज़ाम नहीं कर पाई थी। अनुराग को तो घर के कामों से कोई मतलब ही नहीं रहा था। इसीलिये वह थोड़ी चिंतित थी लेकिन पिताजी की बीमारी के सामने उसकी अन्य चिंतायें गौण हो गई थीं। माँ वैसे ही दमे की मरीज़ थीं, यदि पिताजी को कुछ हो गया तो माँ को वह कैसे संभाल पायेगी ? दोनों एक जान, दो जिस्म हैं। बचपन से लेकर अब तक उसने उन दोनों को कभी अकेले रहते नहीं देखा है। चाहे इसका कारण माँ की बीमारी रही हो या दोनों का परस्पर प्यार। बार-बार यही विचार उसके मनमस्तिष्क में आकर उसे परेशान कर रहे थे ।      

बस के रूकने के साथ ही उसकी विचार श्रंखला पर ब्रेक लग गया। घर पहुँची तो पता चला कि पिताजी को सीवियर हार्टअटैक आया है। वह अस्पताल में एडमिट हैं। डाक्टर से पूछने पर पता चला कि हालत सीरियस है। जब तक वह स्टेबल नहीं हो जाते उन्हें शहर भी नहीं ले जाया जा सकता। 

प्रतीक्षा ने पिताजी की स्वास्थय की सूचना अनुराग को फोन पर दे दी। अनुराग को भी आभास हो गया था कि किसी भी हालत में प्रतीक्षा दस पंद्रह दिनों से पूर्व नहीं आ सकती है।

    

प्रतीक्षा को गये हुए अभी दो ही दिन हुए थे कि पूरा घर ही अस्तव्यस्त हो गया था। यद्यपि प्रतीक्षा के नौकरी करने के कारण सबको अपना-अपना काम स्वयं करने की आदत थी किंतु खाना बनाने का काम अनुराग से कभी नहीं हो पाया। कभी प्रतीक्षा एक दो दिन के लिये जाती भी थी तो सब्जी बनाकर फ्रिज में रख जाती और वह रोटियाँ बाहर से ले आया करता था या ब्रेड बटर से ही काम चला लेता था। वह तो गनीमत थी कि पिछले महीने जब प्रतीक्षा को अपने काम के सिलसिले में चार दिन के लिये शहर से बाहर जाना पड़ा था तब उसने उससे कुछ ही दिन पूर्व लिये माइक्रोवेव में पुलाव बनाना सीख लिया था किंतु इतने दिनों तक केवल ब्रेड बटर या पुलाव से तो काम नहीं चल सकता। अकेला होता तब किसी तरह काम चला लेता किन्तु बच्चों के साथ ऐसा कर पाना कठिन है।     

अभी कल की ही बात है नेहा और अपूर्व खाने की मेज पर पुलाव देखकर चिढ़ कर बोले, ‘ पापा , हम इतने दिनों से पुलाव खाते-खाते थक गये हैं, हमें रोटी सब्जी खानी है।’ ‘बच्चों मुझे रोटी सब्जी बनानी नहीं आती, आज यही खा लो, कल बाहर चलकर खा लेंगे।’ बच्चों की बात सुनकर अनुराग ने असहाय स्वर में कहा। 

‘आप से अच्छी तो मम्मी हैं जो हमें तरह-तरह की चीजें बनाकर खिलाती हैं।’ उसका उत्तर सुनकर छह वर्षीया नेहा ने कहा।

 ‘मम्मी लड़की है, खाना बनाना उनका काम है। पापा तो लड़के हैं, लड़के तो बस आँफिस जाते हैं, घर का काम थोड़े ही करते हैं।’ अपूर्व जो उससे दो वर्ष बड़ा था, ने उसे समझाते हुए कहा।

‘आँफिस तो मम्मी भी जाती हैं, पर वह घर का काम भी करती हैं। जब मम्मी आँफिस के साथ-साथ घर का काम कर सकती हैं तो पापा क्यों नहीं।’ मासूमियत से नेहा ने कहा था ।

     

नेहा की बात सुनकर अनुराग सोचने लगा....ठीक ही तो कह रही है नेहा, आजकल औरतें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पदार्पण कर अपनी योग्यता और विशिष्टता की छाप छोड़ते हुए घर और बाहर के कामों में सामंजस्य स्थापित कर गृहस्थी को संपूर्णता प्रदान कर सकती हैं तो एक पुरूष क्यों नहीं कर सकता ? पुरूष यह सोचकर क्यों पीछे हट जाता है कि यह काम तो सिर्फ औरतों का है। इसके पीछे कहीं उसका पुरूषोचित दंभ या अहंकार तो नहीं है...!    

यही कारण है कि स्त्री से घर, घर लगता है, पुरूषों से नहीं। पुरूष चाहे कितना भी कमा ले, कितना भी बड़ा बंगला बनवा ले, जब तक उसमें स्त्री का हाथ नहीं लगता तब तक वह घर, घर न रह कर सराय जैसा ही नजर आता है । पुरूष के न रहने पर मानसिक ,भावात्मक एवं आर्थिक रूप से टूटने के पश्चात् भी एक स्त्री घर को टूटने नहीं देती, वहीं विपरीत परिस्थतियों में सबल कहलाने वाला पुरूष घर चलाने के लिये किसी निर्बल कंधों का सहारा पाने का विवश हो जाता है।     

आज उसे लग रहा था कि हमारे प्राचीन संस्कार ही इस समस्या की जड़ हैं जिनके अनुसार पुरूषों के द्वारा घर का काम किये जाना को हेय दृष्टि से देखा जाता है । आज जब स्त्री सभी सामाजिक सीमाओं को लाँधकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह शिक्षा हो या क्रीड़ा जगत, चाहे धरती हो या आकाश पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर जीवन संग्राम में लिप्त है तो पुरूष ही क्यों जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पदार्पण करने से हिचकता है। यह सच है कि स्त्री पुरूष एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं....एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तो फिर उनमें असमानता क्यों....? जब स्त्री अपने घर के सुरक्षित घेरे को तोड़कर बाहर की कंटीली दुनिया की आपदायें झेल कर अपनी क्षमता और हिम्मत का प्रदर्शन कर सकती है तब क्या पुरूष घर की छोटी सी चारदीवारी को नहीं संभाल सकता..    

 अनुराग ने उसी पल निश्चय कर लिया कि वह अपनी सोच का दायरा बदलेगा। उसने अपूर्व और नेहा की ओर मुखातिब होकर कहा ,‘ अपूर्व, नेहा ठीक ही कह रही है। लड़कों को भी घर के कामों में हाथ बँटाना चाहिये। इस समय यही खा लो। कल हम सब मिलकर आलू के पराँठे बनायेंगे।’      

 ‘ ठीक है पापा लेकिन क्या हमसे मम्मी जैसे आलू के परांठे बन पायेंगे ?’ अपूर्व ने पूछा ।

 ‘ मम्मी जैसे तो नहीं बन पायेंगे पर खाने लायक बन जायेंगे ।’

 ‘ क्या आपको आलू के परांठे बनाने आते हैं ?’ नेहा ने पुनः प्रश्न किया।        

 ‘ नहीं आते होगें तो हम गुगल बाबा की सहायता ले लेंगे। हैं न पापा।’ अपूर्व ने कहा ।

  ‘ तुम ठीक कह रहे हो बेटा, हम ऐसा ही करेंगे।’  

    

दूसरे दिन अपूर्व और नेहा उत्साह से अनुराग के साथ रसोईघर में लग गये। आड़े तिरझे, कुछ जले, कुछ कच्चे परांठे तीनों ने ही बड़े चाव से अचार के साथ खाये, हफ्ता भर ऐसे ही गुजर गया। एक दिन प्रतीक्षा का फोन आया पिताजी नहीं रहे...अब अनुराग को बच्चों को लेकर जाना ही था। उसके पहुँचने से पूर्व कुछ नाते-रिश्तेदार पहुँच चुके थे तथा कुछ आने बाकी थे। एक बार सुख में कोई न पहुँचे पर दुख में सभी पहुँचने कि कोशिश करते हैं।   

 माँजी का तो रो-रोकर बुरा हाल था। सभी की नज़रों में प्रतीक्षा की माँ के लिये दीनता के भाव, उनके भविष्य की चिंता के साथ उनकी जुबां पर एक ही प्रश्न था कि राम प्रकाश जी को मुखाग्नि कौन देगा...? इसी दिन के लिये तो लोग पुत्र की आशा करते हैं।

     

किसी का कहना था कि पुत्री का पुत्र अंतिम क्रिया सम्पन्न करा सकता है लेकिन अपूर्व काफी छोटा था। कुछ लोगों का कहना था कि इतने छोटे बच्चे द्वारा मुखाग्नि दिलवाना ठीक नहीं है, न जाने उसके मासूम दिल पर क्या असर हो....? 

     

आखिर प्रतीक्षा के रिश्ते के भाई को इस कार्य के लिये तैयार किया गया किंतु प्रतीक्षा को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था, अचानक उसने एक निर्णय ले लिया, अंतिम विदा के समय प्रतीक्षा ने स्वयं अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने तथा मुखाग्नि स्वयं देने की बात कहकर सबको चौंका दिया। उसका तर्क था कि आज लड़के और लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया है। उसके माता-पिता ने उसको हर तरह की स्वतंत्रता दी है। उसे पढ़ाया लिखाया, आत्मनिर्भर बनाया है। वह एक औरत है क्या केवल इसलिये वह पिता की छोड़ी हुई जिम्मेदारियों का वहन नहीं कर सकती, अंतिम क्रिया में सम्मिलित नहीं हो सकती, मुखाग्नि नहीं दे सकती...?          

रामप्रकाशजी के पड़ोसी, सहअध्यापक श्री सदानंद पांडेय जिन्होंने सदैव सामाजिक जीवन में छाई कुरीतियों को दूर करने में रामप्रकाशजी का साथ दिया था, ने प्रतीक्षा की बातों को सुनकर कहा, ‘ बिटिया ठीक ही कहती है, प्रकाशजी के लिये प्रतीक्षा बेटी नहीं बेटा ही है जिसने बेटों से भी बढ़कर सदा उनके सुख-दुख में साथ दिया है। उनके एक इशारे पर जब-तब उनकी सेवा के लिये दौड़ी चली आती है, आज के युग में ऐसे कितने पुत्र मिलेंगे जो अपने दायित्वों के प्रति इतने सचेत हों ।   

 प्रतीक्षा ने अपने माता-पिता की आकांक्षाओं को साकार कर दिया था। प्रकाशजी उसके हाथों पंचतत्व में विलीन हो गये थे। इसके साथ ही माँ की देखभाल की जिम्मेदारी उठाकर प्रतीक्षा ने एक नये युग का सूत्रपात ही नहीं किया समाज को एक नई दिशा भी दे दी है। उसे प्रसन्नता तो इस बात की थी कि अनुराग ने भी सदा की तरह उसकी भावनाओं का सम्मान ही किया वरन सदा साथ देने का वचन भी दिया। 


     



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