नक्सलवाद
नक्सलवाद
लाल पगड़ी बांधे, गुलाबी चेहरा सबसे आगे आगे चल रहा था और हजारों की भीड़ जिसके नाम को आकाश की स्मृति पटल पर अंकित कर रही थी। इतनी शान शौकत को देखकर आप समझ ही गए होंगे कि ये कोई आम नागरिक तो नहीं ही होगा। गरीबों के मसीहा और हजारों की जुबां की आवाज बन चुके ये महाशय अमरावती के सांसद हैं। और अभी तुरंत जीतकर आम नागरिक के बीच में इस फुर्ती से पधारे हैं की जो काम इन्होंने पिछले पन्द्रह साल से नहीं किया अब वो जरूर करेंगे।
रामचंद्र यादव लगातार चौथी बार संसद की दहलीज पर आकर खड़े हो गए हैं। इनकी काबिलीयत सिर्फ इससे पता लगा सकते हैं की ये महानुभाव अमरावती के सांसद हैं जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं रही है। इनके जिंदगी में सब कुछ सही चल रहा था तभी अखबार के एक पन्ने ने मानो इनके कदमों तले की जमीन खिसका दी हो। रुचिका श्रीवास्तव की एक आर्टिकल " अमरावती नक्सली क्षेत्र हो ,सच या साजिश?"
इस बार की चुनाव के मुख्य वादों में शुमार "नक्सल क्षेत्र घोषित करना" को शायद किसी को नजर लग गई या फिर वर्षों कि नज़रों को कलम के काले रंग ने उतार दी हो। रुचिका श्रीवास्तव की आर्टिकल अमरावती के बहुत से हत्या के मामले को सुलझा रही थी जो अब तक पुलिस के लिए अबूझ पहेली साबित हो रही थी। इसमें खासकर दो परिवारों के मध्य अनेक हत्या मामले को सुलझा रहा था।
वर्षों पूर्व रामपाल के भाई की हत्या उसी के गांव के कुछ दबंगों ने कर दी थी। रामपाल का भाई रामविनय उस बीहड़ से गांव का एक मात्र वो सितारा था जो अमरजीत के सिर की रेखाएं बढ़ाया करता था। उसके मरते ही अमरजीत एक छत्र राज करना चाहता था। मगर अमरजीत के लिए इतना आसान नहीं था। रामविनय जरूर कड़क मिजाज का था लेकिन रामपाल नहीं। अभी तक तो लोहा का मुकाबला लोहा से था। अब यह लड़ाई अलग मोड़ ले रहा था। जहां लोहा का मुकाबला एक कलम से था। शांतिप्रिय रामपाल अपने अंदर की आग को बुझाने की कोशिश अपने बच्चों को नई तालीम देकर कर रहा था। इधर अमरजीत की लालसा परवान चढ़ने लगी उसे तो अब गांव से लेकर अब पंचायत तक का सफर करना था । उसे उम्मीद भी था कि वो ये सफर बहुत जल्द ही हासिल कर लेगा। तभी उसके अरमानों पर पानी फेरने लगा रामपाल का दामाद विजय। विजय ने अपने अंदाज से पूरे पंचायत में प्रसिद्ध हो चुका था। और वह तो विधानसभा तक का सफर भी करना चाहता था। बस यही वो दिन था जो अमरावती के खूनी इतिहासों को अपनी लाल स्याही से लिखना शुरू कर दिया था। लाल स्याही कितनी चलेगी और इतनी चलेगी ! शायद किसी ने सोचा भी ना था। दुश्मन के दुश्मन दोस्त होते हैं ठीक वैसा ही अब अमरजीत और रामचंद्र में दोस्ती बढ़ने लगी। धीरे धीरे ही सही लेकिन विजय के अरमानों पर पानी फेरने की नाकाम कोशिश दोनों करने लगे। लेकिन खुदा को कुछ और ही मंजूर था । विजय के इशारों पर पंचायत के लोगों ने विजय समर्थित उम्मीदवार को विजय बनाया। अब अमरजीत को और सदमा बर्दाश्त नहीं हो रहा था।
अमरजीत का एक प्रिय पंक्ति था "इश्क़ और युद्ध में सब कुछ जायज है" और शायद इसी पंक्ति से ही अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहा था। हर तरह का प्रपंच अख्तियार कर रहा था। इसी प्रकरण में उसने विजय को मारने की कोशिश करने लगा। अब तक विजय अपने क्षेत्र का लोकप्रिय नेता बन चुका था और उम्मीद लगाया जा रहा था कि वो इस बार संसद भवन पहुंचने की कोशिश में लगा हुआ है। बस फिर क्या था? अमरजीत के प्रपंच में रामचंद्र यादव भी सरीक हो गए। अब फिर क्या था दिमाग की खुराफात को अंजाम तक पहुंचाने के लिए सही वक़्त का इंतजार कर रहा था। वक़्त की एक अच्छी और बुरी आदत ये है कि ये कभी भी किसी के लिए ठहरता नहीं है। कुछ अराजक तत्वों की सहायता से विजय की हत्या करवा दी गई उसके बाद का काम रामचंद्र यादव सम्हाल रहे थे। इस हत्या को एक नक्सल हत्या घोषित करने पर तुले थे ताकि अमरजीत को बचाया जा सके।
अब तक की कहानी से तो आप समझ ही चुके होंगे की रुचिका श्रीवास्तव की कलम ने अखबार ही नहीं, भारत के गलियारों में आग लगा चुका थी और रामचंद्र यादव के कानों से निकलते धुएं को देखा जा सकता था। बस फिर रामचंद्र यादव और अमरजीत दोनों की शातिर दिमाग को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें? फिर कुछ दिनों बाद जब जनता दूसरे मुद्दे पर भटक चुकी थी तब अमरजीत ने एक योजना बनाई की रास्ते में पड़े कंकड़ को हटाया जाए और वो कंकड़ पत्रकार रुचिका श्रीवास्तव थी। बस फिर क्या था? फिर से योजना बनी और रुचिका श्रीवास्तव की हत्या गाड़ी दुर्घटना में हुई। और इसी तरह योजनाएं बनती रही और रामचंद्र यादव एवं अमरजीत यादव के रास्ते के कांटे हटते रहे। अब तक बहुत सी हत्या होती रही। कभी सड़क दुर्घटना के माध्यम से तो कभी नक्सल प्रभावित क्षेत्र के कारण।
वक़्त के उस पहलू से अनभिज्ञ रामचंद्र और अमरजीत कभी सोच भी नहीं पाया की वक़्त बदलता भी है। कुछ वर्षों बाद पहले रामचंद्र यादव की मृत्यु सड़क दुर्घटना में होती है फिर रामचंद्र यादव के तेरहवीं के दिन अमरजीत यादव आत्महत्या कर लेते हैं। तेरह दिनों के अन्दर एक सांसद और एक मुखिया कि अचानक मृत्यु किसी को रास नहीं आ रही थी। पुलिस ने जांच शुरू की तो सबको समझ आ चुका था कि बुरे कर्म का फल इसी जमीन पर भुगतना पड़ता है। वो सड़क दुर्घटना एक सोची समझी साजिश थी और ये आत्महत्या, आत्महत्या नहीं मर्डर था। इसके पीछे कोई और नहीं भारत के नामचीन हस्तियों में से एक रामपाल का पुत्र नारायण था। नारायण बहुत बड़ा और सफल बिजनेसमैन बन चुका था। अब कोर्ट की लंबी तिरछी लड़ाई उसे लड़नी थी जिसे जिला कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। वह जिला कोर्ट से उच्च न्यायालय फिर सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करता रहा और इसी तरह उसकी जीवन चल रही थी।