निष्काम सेवा

निष्काम सेवा

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एक योगी किसी वन में बैठा- एक वृक्ष के नीचे तपस्या कर रहा था। 12 वर्ष के कठिन तप ने उसमें सिद्धि शक्ति पैदा कर दी थी परंतु उस योगी को खबर नहीं थी। एक दिन वह नहा धोकर अपने ध्यान के लिए बैठा था। इतने में कोई चिड़िया उड़ती हुई आई और उस वृक्ष पर बैठ गई।

स्वभाव अनुसार चिड़िया ने वीट कर दी और वह इत्तफाक से उस तपस्वी के सिर पर जा गिरी। उसे क्रोध आ गया। क्रोध की भरी दृष्टि से वृक्ष की ओर देखा ही था कि चिड़िया भस्म होकर उसके आगे आ पड़ी।

अब तो इसके अभिमान का कोई ठिकाना नहीं रहा। समझने लगा मैं भी बड़ा सिद्ध हूं। जितने मनुष्य इस संसार में दिखाई दे रहे हैं सब दुनिया के कीड़े दिन-रात उसी में मरते खपते रहते हैं। मेरे सामने इनकी क्या हैसियत है। मैं ही ईश्वर का सबसे प्यारा पुत्र हूं; मैंने उसके लिए कठिन तप किया है और देखो, उसने प्रसन्न हो मुझे अनेक सामर्थ्य प्रदान की है, यह राजे और रईस भी वृथा ही अकड़े फिरते हैं, मेरी एक दृष्टि- इनको पल भर में खाक में मिला सकती है। कौन प्राणी मेरी बराबरी कर सकता है। इस तरह के विचारों योगी को सताने लगे और वह इसी दशा में अपने मन ही मन प्रसन्न होता हुआ वहां से चल खड़ा हुआ। उसने समझ लिया कि मेरी तपस्या पूर्ण हो चुकी अब मुझको निर्भय होकर संसार में विचरना चाहिए।

वह चलते-चलते एक नगर में पहुंचा, भूख लग रही थी, एक गृहस्थ के दरवाजे पहुंचकर आवाज दी "माता भिक्षा ”दो अंदर से आवाज आई थोड़ी देर ठहरो "भिक्षा आती है" यह ठहर गया, परंतु बड़ी देर हो गई "अभी किसी ने इसकी बात को ध्यान से सुना ही नहीं" यह विचार आते ही इसको क्रोध आ गया। गुस्से की आवाज में कहा, "मूर्ख स्त्री! क्या तू हम को नहीं जानती जो इतनी देर कर रही है, क्या तेरा भाग्य उलटने वाला तो नहीं है जो साधुओं की ओर से इस कदर लापरवाह है। " भीतर से फिर उत्तर मिला," महाराज यहां चिड़िया नहीं बसती जिनको आप भस्म कर देंगे, थोड़ी देर धीरज के साथ बैठिये है मैं अभी फुर्सत पा जाती हूं उस समय आप को भोजन दूंगी" साधु के होश उड़ गए दिल ही दिल में कहने लगा यह स्त्री तो मुझसे बढ़-चढ़कर सिद्ध मालूम देती है भला निरंजन वन कि वह घटना घर में बैठे हुए इसने कैसे जान ली। अब तो इसके दर्शन किए बिना यहां से नहीं जाऊंगा। ऐसे कहते हुए उसी स्थान पर आसन लगाकर बैठ गया और उस ग्रह देवी की प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़ी देर पश्चात भोजन का थाल हाथ पर रखे हुए गृह लक्ष्मी बाहर आई और साधु जी से बोली -'लो महाराज! भोजन पा लो।' परंतु यहां और ही दशा थी ना भूख है ना प्यास केवल एक बात की चाहना है। मैं केवल आपसे एक प्रश्न का उत्तर चाहता हूं "कि "किस साधन के प्रताप से आपको यह गति प्राप्त हुई है कि जिसके द्वारा आपने मेरा गुप्त भेद जान लिया।"

स्त्री ने कहा-" योगी जी! मैं ना तो योग क्रियाएं जानती हूं और ना किसी और साधन की मुझको खबर है। मैं गृहस्थ स्त्री हूं, ऐसी स्त्रियों के लिए पति सेवा ही सबसे बढ़कर साधन है। निष्कामता के साथ पति सेवा करने वाली स्त्रियों के लिए किसी दूसरे साधन और दूसरे नियम- व्रतों की आवश्यकता नहीं होती। उनको सब कुछ इस एक ही साधन से प्राप्त हो जाता है। स्त्रियों का मुख्य धर्म "पति सेवा "ही है।

साधु जी! मेरा मुख्य साधन भी पति सेवा ही है, मैं तन, मन और वचन से दिन-रात पति सेवा में ही लगी रहती हूं, मेरा पति आजकल बीमार है जिस समय आप आए थे उनकी सेवा में लग रही थी इसलिए ही मैंने आपसे ठहरने के लिए कहा था जब तक उनकी सेवा से निवृत नहीं हो जाती तब तक किसी भी कार्य में हाथ नहीं डालती। बस यही मेरी साधना है और इसी के प्रताप से मेरा अनुभव खुल गया और मुझे सब कुछ प्राप्त हो गया इससे अधिक मुझे और कुछ ज्ञान नहीं है।


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