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Prafulla Kumar Tripathi

Drama

3  

Prafulla Kumar Tripathi

Drama

नीम ना मीठी होय !

नीम ना मीठी होय !

6 mins
340

सारंगी की तान पर एक गोरखपंथी अपने धुन में गाये जा रहा था

"जल मीन सदा रहे जल में,

सूकर सदा मलीना रे।

आत्मज्ञान दया विणि कुछ नहीं,

कहा भयो तन खीणा रे !"

बीच बीच में वह "अलख निरंजन " अलख निरंजन " का उदघोष करता आगे बढ़ता जा रहा था। उसके गान में कुछ प्रचलित लोक कहावतों का भी पुट रहा करता था जैसे -

" जाकर जौन स्वभाव रे भईया,जाय नहि जीसे,

नीम ना मीठी होय चाहे गुड़ कितनौ घीसे। "

लोग अपनी -अपनी श्रद्धा से आकर उसकी झोली में अन्न मुद्राएं डाला करते थे और वह आगे बढ़ता जा रहा था। जोगी को ऐसा दान करने में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या ज्यादा हुआ करती थी क्योंकि भारतीय महिलाएं धर्मभीरु ज्यादा हुआ करती हैं।

जोगी जब जब उधर से गुजरता था तो अरविन्द के मन में ढेर सारे बीते प्रसंग जीवंत हो उठते थे। उनकी अपार श्रद्धा के केंद्रबिंदु थे एक महापुरुष जिन्हें लोग संशय और घृणा की दृष्टि से देखते थे। वे गृहस्थ थे लेकिन उनको अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं। अरविन्द से उनकी मुलाक़ात उन दिनों में हुई थी जब वे अमेरिका में एक प्रोजेक्ट के लिए भेजे गए थे। अमेरिका और अपने देश की लाइफ स्टाइल में ज़मीन आसमान का अंतर था। वहां के लोग भौतिकता के चरमबिन्दू पर पहुँच कर आध्यात्मिकता की तलाश में थे। आध्यात्मिकता भी वह अपने ऎसी स्टाइल से चाहते थे मानो वह कोई कैप्स्यूल या इंजेक्शन हो जिसे लेते ही उनमें आध्यात्मिकता हिलोर मारने लगे ! उनकी इस तलाश को भारत से गए कुछ साधू संन्यासी जमकर भजा रहे थे। एक ने तो जयघोष ही कर रखा था कि सम्भोग से समाधि तक पहुंचा जा सकता है। दिग्भ्रमित जन मानस को किस तरह

लूटा जाय यह इन भारतीय तथाकथित धर्म ध्वजा वाहकों से ज्यादा कोई और नहीं जानता था। अरविन्द उन्हें दूर से ही पहचान लेते थे।

उस साल सर्दी कुछ पड़ रही थी। धूप जब निकलती तो बड़ा अच्छा लगता था। ऎसी ही एक दुपहरी में उनके एक साथी प्रोफ़ेसर रघुनाथ ने उन्हें बताया कि आज शाम को इंडिया से आये एक महापुरुष का दर्शन करने उन्हें जाना है.... .क्या वह साथ चलेंगे ? अरविन्द शाम को खाली ही थे और उन्होंने हामी भर दी।

निर्धारित स्थान पर वे पहुँच चुके थे और हाल के अन्दर एक श्वेत वस्त्रधारी पुरुष का प्रवचन चल रहा था।

"क्या आप लोग मेरे मिशन के बारे में जानते हो ?..नहीं ना ?....मैं दुनियां में आप लोगों को अध्यात्म और भक्ति की उस पवित्र धारा में भिगोने आया हूँ जो सरस्वती नदी की तरह दृश्यमान नहीं है लेकिन है ..चिर काल से है...न केवल मनुष्य बल्कि पेंड पौधे, जीव जंतु,जड़ चेतन सभी उस आनन्दमय स्पंदन में नृत्य करेंगे। धरती के प्रत्येक अणु-परमाणु में परमात्म तत्व का तरंग तुम्हे दिखेगा। मैं मूर्त होकर भी अमूर्त हूँ और मुझे किन्हीं विशेष प्रयोजन से इस धरती पर भेजा गया है। ......क्या तुम मेरा साथ दोगे ? ""

"बाबा, बाबा " की ध्वनियाँ उठने लगीं।

अरविन्द और प्रोफ़ेसर रघुनाथ ने भी अपने को जाने क्यों उस व्यक्ति के सम्मोहन में बिंधा पाया। देर रात जब वे लौटे तो वे उन गृहस्थ योगी से मन्त्र पा चुके थे। योग और तंत्र की उनकी तलाश को मानो अब जाकर पूर्णता मिली थी।

अगला दिन इतवार था और वे दोनों खाली ही थे कि किन्ही जानने वाले का फोन आ गया कि आज गुरुदेव के साथ कुछ लोगों के भ्रमण का प्रोग्राम बन रहा है। यदि इच्छा हो तो आप लोग भी आ जाइए।

दोनों अध्यात्म पिपासु इस समय गुरुदेव और उनके कुछ विदेशी भक्तों के साथ एक अमेरिकन कब्रिस्तान के विशाल प्रांगण में टहल रहे थे। गुरुदेव की चाल में तेज़ी थी और वे अमेरिकन अंग्रेज़ी कुछ इस तरह से बोल रहे थे जैसे वे अमेरिका में ही पैदा हुए हों। बीच - बीच में वे हिन्दी और बांगला भी बोला करते थे। चलते चलते वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। सारे भक्तों को उन्होंने खड़े होकर नृत्नाय शैली में नाम संकीर्तन करने को कहा। नाम संकीर्तन की मधुर करतल आवाज़ से मानो अद्वितीय स्पंदन प्रस्फुटित होने लगा। उस समय हवा एकदम शांत थी फिर भी वहां के पेंड पौधों की पत्तियां हिलने - डुलने लगीं। यह एक अति अविश्वसनीय दृश्य था लेकिन आज भी अरविन्द की आँखों में सजीव झलक जाया करता है। गुरुदेव ने बाद में बताया था कि;

" To dance as per His will is the real devotion. "

अरविन्द को पौराणिक प्रसंग याद आ गये जब भगवान शिव अपनी शरदकालीन राजधानी काशी जाया करते थे तो उनके साथ नन्दी तो नाचता ही था, चर - अचर प्राणी भी नाचते गाते रहते थे। अरविन्द की जिज्ञासाएं लगातार बढ़ती जा रही थीं। उन्होंने गुरुदेव के पी.ए. से अनुनय विनय करके अपना व्यक्तिगत मिलन का कार्यक्रम बनवाने की हामी भरवा लिया। गुरुदेव के भारत वापस जाने में कुछ ही दिन शेष थे कि एक दिन उनके पी.ए.का फोन आया। अरविन्द का अगले दिन गुरुदेव से एप्वाइंटमेंट फिक्स हो गया था।

कमरे के अन्दर घुसते ही झुक कर अरविन्द ने गुरुदेव को प्रणाम किया।

आश्चर्य ..घोर आश्चर्य ..गुरुदेव ने तो उनके जन्म जन्मान्तर की कुण्डली ही खोल डाली !उसके बाद उन्होंने अरविंद को आदेश देते हुए कहा -

" मेरुदंड सीधा करके पद्मासन में बैठ जाओ !"

यंत्रवत अरविन्द ने वैसा ही किया।

अब उनकी छड़ी अरविन्द की त्रिकुटी को स्पर्श कर रही थी ..वे बोल उठे :

" अरविन्द ! अब तुम अपने आज्ञा चक्र को एकाग्र करो। "

अरविन्द ने यथावत किया।

अरे यह क्या ? आज्ञा चक्र के चारो ओर गुरुदेव यह शुभ्र ज्योति कैसी है ? ...गुरुदेव .. गुरुदेव मेरा अणु- परमाणु रोमांचित होता जा रहा है और मैं मैं एक दिव्य आनन्दानुभूति कर रहा हूँ ..मैं मैं....|"

अरविन्द को उसके बाद का कोई प्रसंग याद नहीं था और घंटों बाद गुरुदेव के पी.ए. उन्हें बाहर के कमरे में जगाते मिले। बाद में अरविंद को बताया गया कि तुम भाग्यशाली हो जो तुमने शुभ्र ज्योति के रूप में ब्रम्ह का दर्शन किया है क्योंकि ब्रह्म ज्योति स्वरूप सत्ता हैं।

गुरुदेव वापस भारत आ गये थे। अरविंद जल्दी से जल्दी अपने प्रोजेक्ट को निपटा कर भारत वापस आना चाहता था लेकिन आ नहीं सका। इधर भारत में उन क्रान्तिकारी विचारधारा के गुरुवर पर एक ख़ास विचारधारा की राजनीतिक पार्टी का अत्याचार बढ़ता गया और अन्ततः उन्हें जेल में ज़हर देकर मारने तक की साज़िश रची गई। गुरुदेव का भौतिक शरीर अन्ततः समाप्त हो गया लेकिन उन्होंने अपने सूक्ष्म शरीर से भक्त वत्सल समाज का मार्गदर्शन करना जारी रखा है।

अरविंद लगभग दस साल बाद जब भारत आए तो सीधे गुरुदेव के आश्रम पहुंचे। आश्रम में माहौल बहुत कुछ बदल चुका था लेकिन गुरुदेव की हर जगह सूक्ष्म उपस्थिति का उन्हें एहसास होता रहा। उन्हें महसूस हुआ कि वे अब भी गुरुदेव की गोद में बैठे हुए हैं।

जोगी अपने सारंगी की धुन पर गाते हुए अब तक बहुत दूर संभवतः गाँव के सीवान पर जा चुका था लेकिन अरविन्द के मन में अभी भी उसके बोल गूँज रहे थे। थोड़ी देर बाद जब स्मृतियों के आगार से निकल कर वह सामान्य हुए तो उनके सामने एक ऐसी पत्रिका पड़ी हुई थी जिसमें देश के एक नहीं अनेक बाबाओं के कुकर्मों का पर्दाफाश हुआ था। उसके मुंह से निकल पड़ा - "संत संत नहि एक समाना !"


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