नहले पे दहला

नहले पे दहला

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  मम्मा , ये क्या है रोज सुबह-सुबह खटर-पटर करने लग जाती हो , उसी टाइम तो अच्छी नींद आती है और तुम हो कि अपनी खटर-पटर से कितना डिस्टर्ब करती हो ! फिर इतना क्या बनाना होता है जो तुम इतना जल्दी उठकर बनाने लगती हो ? तुम्हें बताया था ना कि यहां इस तरह का खाना कोई नहीं खाता , सब हेल्थ कोंशियस है ! कल जो तुमने बनाया था सब डंप करना पड़ा , आज का फिर करना पड़ेगा ! अगर इतना ही बनाने का शौक है तो खुद के लिए बना लिया करो वो भी लंच में । ब्रेकफास्ट के लिए ब्रेड , ओट्स ,दलिया , खुस-खुस , कोर्नफ्लेक्स , सीरियल वगैरह कितना है जो अच्छा लगे खा लिया करो , हम सब यही खाते हैं ! तुम्हारा यह मसाले वाला खाना कोई नहीं पसंद करता ! इस उम्र में तुमको भी ऐसा खाना नहीं खाना चाहिए पर तुम तो ...अगर तबीयत बिगड़ गई तो कितना मुश्किल होगा ! ये इंडिया नहीं है कि कहीं भी , कभी भी डाक्टर को दिखा दिया , यहां आपका बीमा भी काम नहीं आयेगा सिवाय इमरजेंसी के ! पता है कितना लंबा बिल आयेगा ? सोचा कभी , रीतेश के माॅम-डॅड भी तो आते रहते हैं इन सबका कितना सब भारी पड़ेगा !प्लीज हम पर मेहरबानी करो !

          तुम तो ,,,,, इससे क्या कहना चाहती हो ? तुम्हें क्या लगता है ,,,,,, मुझे अक्ल नहीं है ? क्या मुझे नहीं पता कि हेल्दी फूड कैसा होता है ? सबसे बड़ी बात तो यह है कि मां-बाप बोझ से कम नहीं !

       कुछ नहीं मम्मा , तुम्हें समझाना बेकार है कहां की बात कहां ले जाती हो ,,,,, आगे फुसफुसाते हुए बोली परेशान करके रख दिया है ,,,,,,, ओ गाॅड ! प्रत्यक्ष में लेकिन मम्मा ,,,,, नहीं जमता ओइली , मसालेदार! 

        ठीक है कम मसाले ,कम तेल वाला बना दूंगी इसमें कौन सी बड़ी बात है !

       जो बनाना है ,,,,, बनाओ पर अपने लिए !

       लेकिन बेटा सबके लिए बनाऊं तो अच्छा है ना फ्रोजन फूड से फ्रेश बना खाना कितना हेल्दी होता है , फ्रोजन फूड में प्रजर्वेटिव होता है जो एक प्रकार का केमिकल ही तो है ,,,,, जलन्धर में मैं ऐसा ही बनाती थी तब तो तुम भी चटखारे ले-लेकर खाती थी ! इन दो सालों में इतना बदलाव ,विदेशी रंग कुछ ज्यादा ही चढ़ गया है तुम पर ! दामादजी तो यहां दस सालों से रह रहे हैं उन्होंने तो कभी ऐसा नहीं कहा!

        मम्मा , रीतेश ने नहीं कहा तो क्या हुआ वो थोड़ा संकोच करता है लेकिन सच तो यह है कि यहां का कल्चर डिफ़रेंट हैं , एटमोसफेयर भी कितना अलग है ,यहां सब ऐसा ही चलता है ! प्लीज मम्मा ,

         पर बेटा , मैं दिनभर करूं क्या ? गाड़ी मुझे चलानी आती नहीं , कोई फ्रेंडसर्कल है नहीं और अंग्रेजी भी नहीं आती ,, अब तू ही बता करूं क्या ? 

      जो करना है करो पर खाना नहीं बनाना ,यहां के हिसाब से सबकुछ रेडीमेड मिल जाता है , बस गर्म ही तो करना पड़ता है ! तुमने तो खाया है कितना टेस्टी होता है !

         बिल्कुल ,,,,,, मगर कितने दिनों का बासी होता है और वहां तो तुम एक दिन का फ्रिज में रखा नहीं खाती थी घर में सब खा लेते थे बस तेरे ही नखरे होते थे अब देखो ,,क्या कहूं पूजा तुझसे ! ठीक है मेरी टिकिट बनवा दो मैं चली जाऊंगी !

        टिकिट तो बनी हुई है पर दो महीने बाद की है तब तक तो रहना ही होगा ! 

       जरूरी है , ? आगे शिफ्ट कर दो ,

         ठीक है लेकिन कितना नुक्सान होगा पता भी है ? पर तुम्हें कैसे मालूम होगा ,कमाती होती तो मालूम होता ना ! खैर जो हो दो महीने तो रहना होगा और वो भी यहां के हिसाब से ! तब कमलाजी सोच रही थी - क्या यह मेरी ही बेटी है जो आज कमाने का ताना दे रही है ! मैं पहले भी कहां कमाती थी दिनभर तो घर कामों में , इन सबकी देखभाल में ही दिन गुजर जाता था कि पता ही नहीं चलता था ,कब दिन निकला कब ढला और अब ना घर अपना ,ना देश अपना ना अपने ही अपने हैं इसलिए अपनापन भी नहीं ,,कुछ भी तो अपना नहीं ,,बेटी तो अपनी होकर भी अपनी नहीं ! ऐसा लगता है जैसे सारे रिश्ते खोखले हैं ,काश ,! सोचते-सोचते दिल भर आया , जाने कब आंखें बहने लगी ।

         अब कमलाजी ने रसोई में जाना बंद कर दिया , बेचारी भीतर ही भीतर घुटती और परेशानी का आलम ,अब करे भी तो क्या करे ,! फिर मन ही मन सोचती - ठीक है भाई इन्हीं के हिसाब से रह लूंगी ! बस अब तो कुछ भी नहीं करूंगी ,अपनी चाय तक भी नहीं ! सच में अब नहीं बनाती थी , जब बेटी सबकी चाय बनाती है तभी वे भी पी लेती ! नाश्ते में वही दलिया , ओट्स ,ब्रेड वगैरह जो उनके गले नहीं उतरता लेकिन करती भी क्या ? ऊपर से दिनभर घर में पड़े रहना , कहीं आना-जाना नहीं , बेटी-दामाद जब बाहर जाते तो उनके साथ चली जाती , जाना ही कहां , यही माल वगैरह ,हालांकि दो-तीन बार गई बड़ा अजीब सा लगता था ! ऐसा महसूस होता जैसे इनके साथ वे अनफिट और अनवांटेड हैं , इस सोच को परे धकेल देती पर ये लोग अहसास करा ही देते ! अब दिन साल की तरह गुजरता , समझ में नहीं आ रहा था इतना लम्बा अर्सा कैसे व्यतीत करे ? वहां जलन्धर में अपने घर में अकेली रहती है फिर भी अकेलापन इस तरह नहीं खलता ! पहले जब यहां नहीं आई थी तब बेटी के बिना अकेलापन खलता था वो भी बेटी से विछोड़े के कारण अधिक ही था ,,,,, लेकिन ऐसे तो इस तरह घर काटने को नहीं आता था , यहां सब होने के बावजूद अकेलापन सच में काटता है ! वहां घर अपना , गली अपनी , मुहल्ला अपना , शहर भी अपना , यहां सिर्फ बेटी अपनी थी मगर अब इतनी पराई , ! अगर बेटा होता तो क्या उसकी बीवी भी ऐसे ही करती , ? शायद करती या नहीं करती , पता नहीं ! शायद कुछ तो लिहाज करती पर वह तो पराई जाई होती जब अपनी ही बेटी से कोई उम्मीद नहीं तो फिर उससे कैसी ! खैर बहू बेचारी तो है ही नहीं ,बेटा नहीं नहीं तो बहु कहां से आयेगी ! फिर मन ही मन सोचती हैं - अरे ये तो मेरी अपनी पेट जाई है फिर भी इसने सारे लिहाज ताक पर रख दिए हैं !

       अब खुद को व्यस्त रखूं भी कैसे और करूं भी तो क्या ? यह सवाल ही मुझसे बार - बार सवाल करता रहता है ! यहां मेरे लिए कुछ भी नहीं , बाहर ऐसे ही घूमने जाती हूं मगर सब अनजान लोग , अनजान रास्ते ,ऊपर से तो भाषा भी एक बड़ी समस्या , यहां की बोली और अंग्रेजी वो भी राम-राम ! मुझे कुछ समझ ही नहीं आता ! बात करने को भी तरस जाती हूं , हां हिन्दी के साथ कुछ अंग्रेजी शब्द जरूर ठीक से बोल लेती हूं पर यहां की अंग्रेजी के नहीं । आजकल तो अक्सर लोग हिन्दी के साथ अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करते ही हैं पूजा तो आधे शब्द अंग्रेजी के ही बोलती थी सो मुझे भी थोड़े-बहुत बोलने की आदत हो गई ,,,, हां कुछ-कुछ हल्की-फुल्की अंग्रेजी अपने देश की तो समझ लेती हूं ,वो भी काम चलाऊ ! पिछले कुछ दिनों से एक महिला अक्सर मेरे ही टाइम पर निकलती थी हम दोनों चलती तो साथ-साथ ही थी पर चुपचाप ,,,,, आखिरकार एक दिन मैंने उनसे बात करने की पहल करनी चाही पर उन्होंने बाजी मार ली - मैं क्या जी तुसी पंजाबी हो ? सुनकर मुझे तो जैसे खज़ाना मिल गया , मन बल्लियां उछलने लगा , यहां पंजाबी जनानी ! कुछ देर तो बोल ही नहीं पाई ,,सब सपना सा लग रहा था ,, खुद को चूंटी काटी तो हकीकत का अहसास हुआ ! फिर हम दोनों के बीच बहुत सारी बातें हुई , वो अंबाले की रहने वाली थी , उसकी बातों में एक अजीब सा अपनापन था कि ‘आप ‘ की दीवार जाने कब हट गई ! शालिनी मेरी ही हमउम्र थी , मिलनसार थी , बहुत प्यारी महिला थी वो निहायत ही मेरी अपनी लगती थी मुझे ,,,, सच में उसका साथ बहुत अच्छा लगता !

       हम घूमते-घूमते सामने वाले गार्डन में बैठ गई , शालिनी का बेटा यहां रहता है उसे आये हुए अभी एक महीना ही हुआ था । वो यहां अपने बहु-बेटे पास घूमने आई थी , नायग्रा फाल की बहुत तारीफ कर रही थी , कहने लगी - तू भी जाके आ । लेकिन वो मेरी ही तरह बोर होती थी क्योंकि यहां का लाइफ स्टाइल ही ऐसा है कि हम जैसे लोग वास्तव में अकेलापन महसूस करते हैं , क्योंकि सुबह-सुबह छोटे-बड़े सब अपने-अपने काम पर और स्कूल-कालेज चले जाते हैं ,,,, फिर यह अकेलापन अजनबी जगह पर और भी अखरने लगता है ! अब एक हफ्ता हो गया था हमें साथ घूमते हुए हमारा घूमने का यह सिलसिला जारी रहा । आज वो भारी मन से बाहर निकली थी मैंने उसे उदास देखकर पूछा - क्या बात है शालिनी ,,कुछ उदास लग रही हो ,,, सब ठीक तो है ?

      हां बस कुछ खास नहीं , लगता है जल्दी चली जाऊं पर बच्चे जाने नहीं दे रहे हैं तुम्हें तो पता ही है यहां हम जैसे वेले बंदों का मन मुश्किल से ही लगता है !

       हां यही तो सबसे बड़ी परेशानी है ,चलो , कोई नहीं हम दोनों हैं ना ,, क्यों नहीं हम खाली समय में दिनभर साथ रहें , साथ में खाना-पीना , घूमना-फिरना सब एक साथ , एक दिन तेरे घर एक दिन मेरे ,,,,, कैसा लगा आइडिया ? 

       इकदम वदिया ,,,, पर इक दिन शाम के समय इक दूजे के घर जायेंगे , अपने बच्चों से मिलेंगे , बातचीत करेंगे ।

       ऐ ते वडी चंगी गल ,,,,,, !

      उसका घर हमारी लाइन के पीछे वाली रो में है वैसे यहां के घर बड़े , खुले और अच्छे होते हैं , रास्ते भी साफ -सुथरे होते हैं और खुले ,,,,,, रास्तों पर कहीं धूल-मिट्टी का नामोनिशान तक नहीं दिखता , सड़कों के अलावा सब जगह तराशी हुई घास ,,,,, परियों का देश है मानो ,,,, मगर जीवन नज़र नहीं आता ! पर शालिनी की वजह से यहां का माहौल रास आने लगा ! उसके विचारों ने मुझे जीने की , सोचने - समझने की खुली सोच दी ! अब बेटी को लेकर भी कोई खंत नहीं था , सोचा - अरे , उसका अपना संसार है चाहे जैसे रहे , मैं तो यहां कुछ समय के लिए आई हूं फिर क्यों बेकार ही में दखलंदाजी करूं ! यह सोच दी शालिनी ने ,,,, तहेदिल से उसकी शुक्रगुजार हूं ! उसने कहा - बदलते समय के साथ सब बदलता है, देखो - हमारे माता-पिता या बड़ों के समय सब अलग था हम भी तो अपने मन की करना चाहते थे , है कि नहीं ?हम भी तो अपने हिसाब से रहा करते थे , हां यह बात अलग है कि हम उनकी इच्छाओं - मान्यताओं का भी सम्मान करते थे ! उन्हें ऐसा नहीं लगता था कि वे बोझ है या बेकार ही में आये , लगता भी होगा तो कभी खुलकर बताया नहीं फिर भी समझौतावादी थे! दोनों पीढ़ियों की अपनी-अपनी मर्यादाएं थीं , किसी अच्छे कार्य के लिए हौंसला अफजाई भी करते थे । मुझे याद है जब मेरी सासू मां मेरे पास कुछ समय के लिए आये थे , मेरे पति महोदय की नौकरी ऐसी थी कि हर दो तीन साल में बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ता था इसलिए गांव में सुकून से रहते थे । नई जगहों पर घूमने-फिरने आते थे उनका भी अधिक समय के लिए नई जगह पर मन नहीं लगता था जैसे कि हमारा ! लेकिन मैं कभी उनकी पसंद का बनाती तो कभी अपनी पसंद का उनसे बनवाती इस तरह उन्हें परायापन नहीं लगता मगर आज हालात बदले हुए हैं आज एक नई विचारधारा है जो स्वकेंद्रित है पर इसमें दोष किसी का भी नहीं ! इसलिए नाराज़ रहकर घुटने से क्या फ़ायदा ? जितने दिन बच्चों के पास आये हैं खुशी से रहें ताकि उन्हें भी हम बोझ न लगें ! शालिनी की ऐसी बातें सुनकर सारे बादल छंट गए , अब मुझे कुछ नहीं लगता था ,,, वे कभी कुछ कहते तो बना देती थी या फिर उनके खाने से ऊब जाती तो अपने लिए कुछ बना लेती थी कभी दामादजी कहते - मम्मा मेरे लिए भी बनाना लेकिन बेटी का रवैया अब भी परायों जैसा ही था । मैं शालिनी की वजह से ही इस परायेपन से निकल रही थी । कभी कुछ लगता तो शालिनी के आगे उड़ेल देती । जैसे हमने तय किया था उसके अनुसार आज शालिनी मुझे अपने घर ले गई और बोली - बैठ मैं चाय पकौड़े बना लेती हूं तब तक सब आ जायेंगे पर मुझे लग रहा है पहले एक बार हम चाय पी लें फिर उनके साथ पी लेंगे । चाय पीये दस मिनट हुए ही थे कि उसके बेटा-बहू आ गये दोनों ने नमस्ते की पर बहू के चेहरे पर नागवार भाव थे , वैसे बेटे के चेहरे पर भी झुंझलाहट तो थी ही फिर भी तमीज से पेश आया था । बच्चे स्कूल से आ गये थे , अंदर जाने लगे तो बेटे ने कहा - दादी मां के फ्रेंड है ये भी दादी मां है नमस्ते करो ,,,, सुनकर बहू ने मुंह बिचकाया और ऊपर से मुंह ऐसे किया जैसे किसी ने देखा न हो । वैसे इसके अलावा किसी ने बात नहीं की मैं बात करती तो सिर्फ हां हूं ही करते ,,,,,, बस ! खैर पहली बार इस तरह ही सही पर सबसे मिलकर अच्छा लगा । दूसरे दिन मैं उसे अपने घर ले गई पता चला अभी तक आज आये नहीं थे शायद काम से लेट हो गये हों । हम अभी चाय नाश्ता लेकर बैठे ही थे कि आ गये तो पूछा - बेटा , तुम लोग चाय पीयोगे ?

       ओ यस मम्मा ,,,, आपके हाथ की चाय और मैं ना बोलूं ,,,, ना,,, ना ,,,, दामादजी ने बड़े प्यार से हां कहा मगर पूजा इतनी रुखाई से बोली - अपनी शक्कर की चाशनी तुम ही पीयो ! मन को ठेस तो लगी पर क्या करती ,,,,,, झेंप मिटाने को बस यूं ही इधर-उधर की बातें करती रही ! शालिनी भी मेरी स्थिति को समझ रही थी वो खुद भी तो ऐसे ही हालात की शिकार है,,,, मैं और वो ही क्या हमारी पीढ़ी ही इस दौर से गुजर रही है मानो हम केवल रिश्तों का जमघट हैं ! वैसे यही तो शालिनी के साथ भी हो रहा है लेकिन वो सब पोजिटिव लेती है । 

        अभी जब चाय - नाश्ते के बाद वो अपने घर के लिए रवाना होने लगी तो मैं भी उसके साथ आई दरवाजे के बाहर तक छोड़ने । इस तरह की परिस्थितियों में खुद को संयत रखना ,,,,,, यह भी तो मैंने उसी से ही तो सीखा और समझा है फिर भी मेरे चेहरे पर मायूसी साफ झलक रही थी ,,,,,, शालिनी ने कहा - छोड़ो यार , दांत भी अपने जीभ भी अपनी ,अरे बहना , बच्चे अपने ही है बस पीढ़ियों का अंतराल बदलाव ले आता है इसमें दुखी क्यों होना । सच में शालिनी अपमानित महसूस नहीं कर रही थी बल्कि मुझे सामान्य महसूस करवा रही थी ! उसी ने कहा - अभी घर जाकर क्या करेंगे ,,,,, चल थोड़ा टहलते हैं । मुझे भी यही सही लगा और चल उसके साथ चल दी और बाहर से ही कहा - जरा टहल के आ रही हूं आगे चलकर टहलते-टहलते एक बैंच पर बैठ गई फिर इधर-उधर की बातें चलती रही । लेकिन इन सब के बावजूद हम दोनों कहीं न कहीं गिल्ट महसूस कर रही थी जिससे निकलना भी जरूरी था , इस मामले में शालिनी मुझसे अधिक समझदार और समझौतावादी थी इसलिए वो मुझे अपना आधारस्तम्भ लगती ! मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोली - जाने दो यार , हमाम में सब नंगे ,,,,, खुश रहा करो ! अब चलो अपने - अपने घर चलते हैं , कल फिर मिलते हैं ।

         घर पहुंचने में देर होने के कारण बेटी ने कहा - मम्मा , कबकी गई अब लौट रही हो ,,,, हम तो डर गये थे ! कितनी चिंता हो रही थी , ऐसा भी क्या घूमना ! तुम बच्ची हो ? 

         क्यों क्या हो गया ? अपने दोस्त के साथ ही तो थी , तेरे सामने ही तो गईं थीं , कहकर भी तो गई थी फिर चिंता किस बात की ? कल फिर जाना है ऐसे ही देर हो जायेगी इसलिए कि उसने चाय नाश्ते पर बुलाया है !

       क्यों ? 

        क्यों क्या ? ऐसे ही ,,,,, उसने मुझे न्यौता दिया है तो जाना ही पड़ेगा ! तुम अपने हिसाब से रहते हो , आते-जाते हो ,,, मैं कभी कोई दखलअंदाजी करती हूं ? जैसे तुम अपने मन से रहते हो वैसे ही मैं भी अपने मन से रहना चाहती हूं ताकि खुद को बोझ महसूस न करूं ! तुम्हें कोई ऐतराज है ?

     इतना परिवर्तन देखकर दामादजी के होंठों पर प्यारी -सी मुस्कान थी तो बेटी की आंखों में अचंभा !

                                                                             

                                                  


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