Author Kumar

Romance Tragedy

4.1  

Author Kumar

Romance Tragedy

नानों (Naano)

नानों (Naano)

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कहानी के बारे में-

यह कहानी वर्तमान की परिस्थिति और भूतकाल की यादों का मिलाप है। पत्र की आज की जिंदगी तथा उसकी बीती जिंदगी को समय-समय अनुसार, क्रमबद्ध तरीके से बताने का प्रयास किया गया है।

 

नानों

हर साल की तरह इस साल भी ठंड काफी ज्यादा थी। सूरज ढलने के साथ ही, लोग, अपने-अपने घरों की खिड़कियाँ, दरवाज़े बंद कर, अंदर ही रहना पसंद करते थे। गली में हर वक्त आपस में लड़ने-झगड़ने वाले, कुत्ते-बिल्लियाँ भी, किसी गर्म जगह को ढूंढ कर, दुबक बैठे थे। रात के सिर्फ दस ही बज रहे थे, लेकिन, वहाँ की गली और स्ट्रीट लाइट में चमकती सड़क, किसी मुर्दा सी खामोश दिखाई दे रही थी। न वहाँ कोई इंसान था और न ही कोई जानवर। वहाँ किसी तरह की कोई हलचल नहीं थी, सिवाय, खड़खड़ाती, गूँजती पावरलूम की आवाज के।

हालांकि, उसी कड़कड़ाती ठंड में, एक थका हुआ कमजोर बूढ़ा आदमी, ठिठुरता और अपने पैरों को घसीटता हुआ, उस खाली सड़क पर, कुछ ढूँढता हुआ जा रहा था।

उसने एक सफेद लेकिन गंदा हो चुका कुर्ता पहना हुआ था, जिसके ऊपर एक गेरुआ रंग का स्वेटर था, जो कंधे और कमर पर उधेड़ चुका था। चेहरे को ढंका हुए एक मफ़लर ओढ़ रखा था। और एक हाथ में एक डंडा और दूसरे हाथ में कुछ पुरानी चद्दरें थी।

उसका नाम जयंतीलाल था। उसकी उम्र, करीबन सत्तर साल के आसपास थी। हालांकि उसका झुका हुआ शरीर, हड्डी से चिपकी हुई, झुर्रियों वाली त्वचा, धस चुकी आँखें और थरथराते हाथ देख कर वह अस्सी साल से ज्यादा का लगता था। वह इसी गलियारे से थोड़ा आगे की ओर, पिछले कई सालों से रह रहा था।

सुबह से मजदूरी कर, थका हुआ उसका शरीर, अब साथ नहीं दे रहा था। हर एक चलते कदम पर, उसके पैर जवाब दे रहे थे। लेकिन फिर भी वह, उस खाली सड़क पर, घरों के आँगनों पर, अपनी कमजोर नजरें घुमाता हुआ, आँखों में फिक्र लिए जा रहा था।

और, थोड़ी दूरी जाने पर उसे, एक पावरलूम की इमारत से सटे, छोटे चबूतरे पर, एक औरत, सोती हुई दिखाई दी। जिसे देख, उसकी सुखी आँखों में एक तसल्ली सा भाव आया।

उस औरत के बिखरे, सूखे और धूल से सने हुए बाल थे, जो कई दिनों से धुले नहीं होने के कारण उलझे हुए थे। चेहरे पर हल्की-हल्की झुर्रियां थी। बंद आँखें भी, उसके गालों की तरह धसी हुई थी। साड़ी पर कई जगह धूल और मिट्टी लगी हुई थी और सिर्फ एक पैर में चप्पल थी।

वह चबूतरे की ठंडी फर्श पर, अपने दोनों पैर को, अपने पेट में दबाये हुए सोई हुई थी।

वह जयंतीलाल की पत्नी थी।

‘नानों’ उसने, पास जाकर, हल्की सी आवाज़ से, उसे उठाते हुए कहा ‘उठ जा नानों, घर चल कर सो’

लेकिन नानों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

पीछे पावरलूम की आवाज़ काफी तेज थी, और उस खामोशी में वह अकेली गूंज रही थी।

‘उठ जा नानों, यहाँ काफी ठंड है। घर चल कर सोते है’ उसने फिर एक बार उसे, जोरों से हिलाते हुए, उठाने की कोशिश की। लेकिन नानों ने अभी भी कुछ जवाब नहीं दिया, बल्कि अपने दोनों पैर, पहले से ज्यादा पेट के अंदर दबा लिया।

जब आवाज़ से कुछ काम नहीं हुआ, तब जयंतीलाल ने उसे, अपने थरथराते हाथ से, खींच कर उठाने की, नाकाम कोशिश की ‘उठ जा, यहाँ पर ज्यादा ठंड है। तू बीमार पड़ जाएगी....’

लेकिन नानों ने जयंतीलाल का हाथ झटक दिया और अपने पैरों को पेट के और करीब लाते हुए, गहरी नींद में सोने लगी।

जयंतीलाल अब काफी कमजोर था। उसमें इतनी ताकत नहीं थी के वह उसे, अकेले उठाकर घर तक ले जा सके। हालांकि पावरलूम चालू था और अंदर कुछ लोग जाग भी रहे थे। लेकिन वह जानता था के उसकी मदद के लिए कोई नहीं आयेगा। और भला इस ठंड में, किसी पागल, भिखारी की मदद के लिए कौन तैयार होगा।

लेकिन वह भी इस परिस्थिति से पहले ही अवगत था। क्योंकि, यह पहली बार नहीं था के नानों, घर के बाहर, किसी खुली जगह पर सो गई हो। पिछले दस सालों से वह ऐसा ही करती थी। वह, दिन भर बाहर घूमती और रात को जहाँ जगह मिले वहाँ सो जाती थी।

और जयंतीलाल ने भी, आज वैसा ही किया जैसा वह पिछले दस सालों से करता आ रहा था।

वह तीन चद्दरें ले आया था। उसमें से एक बड़ी चद्दर को, उसने चबूतरे पर फैला दिया। फिर, उस चद्दर पर, नानों को, बड़ी मुश्किल से खिसकाकर सुलाया। और बची दो चद्दरें उसे ओढ़ा दी।

उसके बाद उसने, दूर खड़े स्ट्रीट लाइट से आती धुँधली रोशनी में, नानों की दूसरी चप्पल ढूंढ निकाली और उसके पैर के पास रख दी।

वह नहीं जानता था के नानों ने खाना खाया भी है या नहीं। कई बार गली के कुछ लोग, उसे खाना खिला देते थे लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता था और तब वह भूखी ही सो जाती थी।

जयंतीलाल ने कुछ देर, नानों की ओर सहानुभूति की नजर से देखा। हालांकि अब उसकी आँखें पूरी तरह सुख चुकी थी और वह भाव विरहित नजर आती थी। लेकिन उसके दिल में अभी भी भावनाएं जिंदा थी और वह दिल, नानों की ऐसी हालत देख, पीस जाता था।

उसके बाद, उसने अपना डंडा उठाया और नानों को, उस भगवान के भरोसे छोड़ दिया, जिस पर उसे कभी सबसे ज्यादा विश्वास था। और वहाँ से पैर घसीटता हुआ, घर की ओर चल पड़ा।

जब से नानों की मानसिक हालत खराब हुई है, जयंतीलाल ही उसका खयाल रखता हुआ आ रहा था। वह दिन भर, घर के नज़दीकी पावरलूम में काम करता, शाम को घर आकर, दोनों के लिए खाना बनाता और रात को नानों को ढूंढने निकल पड़ता। हालांकि नानों, घर के आसपास की कुछ गलियों को छोड़ कर ज्यादा दूर नहीं जाती थी। लेकिन सोने से पहले, जब तक वह नानों को घर ना ले आए या देख न ले, उसे तसल्ली नहीं होती थी। और कई बार जब, वह देर रात तक नहीं मिलती थी तो वह उसे पूरी रात ढूँढता था।

वह हर वक्त उसके साथ नहीं रह सकता था। उसे पैसों के लिए हर रोज, दिन भर, मजदूरी करनी पड़ती थी और उसके बाद, शाम के समय, नानों को ढूंढने निकलना पड़ता था। जिससे वह हर रोज थका हारा, दिखाई देता था। और अब तो उसका शरीर भी, समय से पहले ही कमजोर पड़ रहा था।

दो दिन पहले ही वह, भरे बाजार में, चक्कर आकर गिर पड़ा था। जिससे उसे मामूली चोटें भी आयी थी। लेकिन अब भी उसे अपनी परवाह नहीं थी। उसे तो सिर्फ नानों की ही चिंता सताए रहती थी। हर रोज, नानों को इस हालत में देख, उसे काफी दुःख होता था लेकिन सालों से दुःख झेल रही उसकी आँखें भी अब सुख चुकी थी। अब तो उनमें कोई भाव नहीं झलकता था।

जयंतीलाल अपने घर पहुँच गया। वह एक कमरे का छोटा, आधा-अधूरा बनाया हुआ घर था। जिसकी दीवारें तो पक्की थे लेकिन छत पुराने, जंग लगे पत्तर की थी। बाजू में, पीपल का एक बड़ा सा पेड़ था जिसके नीचे, महादेव का एक छोटा मंदिर था।

उसने घर की कुंडी खोली। अंदर एक दीया जल रहा था और सिर्फ उसकी ही धुँधली रोशनी उस कमरे में फैली हुई थी। जिसमें, पुरानी, जंग लगी अलमारी के कांच के ऊपर, उसका और नानों का, एक पुराना ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो था।

वह अंदर आया। उसने अपने और नानों के लिए बनाया हुआ खाना, अच्छे से ढंक दिया, ताकि सुबह उसके या नानों के खाने के काम आ सके।

फिर उसने चारपाई बिछाई और उस पर, भूखे पेट ही लेट गया। शायद उसे भूख नहीं थी या फिर इच्छा नहीं थी।

जयंतीलाल की उम्र हो गई थी। अब वह नानों की, इस अस्थिर दिमागी हालत के साथ, देखभाल करने में असमर्थ था। हालांकि जब तक उसकी जान बाकी है वह तब तक उसकी देखभाल करने के लिए तैयार था। लेकिन उसके मरने के बाद?

इस सभ्य समाज में, एक अकेली औरत का रहना तक दुश्वार हो जाता है और नानों तो नासमझ भी थी। आए दिन छोटे बच्चों से लेकर बड़े लड़कों तक, उसका मज़ाक उड़ाते, उसे चोट पहुँचाते थे। कई बार उसके पीछे कुत्ते छोड़ देते थे, तो कभी-कभी पत्थर मार कर भाग जाते थे। जिससे जयंतीलाल सबसे ज्यादा आहत होता था।

नानों पर होते अत्याचार को देख कर दुःखी होता था। लेकिन, उसे बार-बार उन लोगों से बचाने के अलावा वह कुछ नहीं कर सकता था। ना ही, उन बिगड़ैल लड़कों को वह कुछ कह सकता था और ना ही उन बच्चों के घर वालों को कहने के बाद कोई फर्क पड़ता था। और फर्क पड़ता भी क्यों? लोग अपने बच्चों को किसी भिखारी या पागल के साथ कैसे व्यवहार करना, यह थोड़े ही सिखाते है।

नानों उसके लिए, इससे पहले कभी बोझ नहीं थी और शायद अब भी नहीं है। लेकिन हाल ही में, उसके साथ हुए हादसे के बाद, अब उसे नानों की काफी चिंता होने लगी थी। उसका थका हुआ शरीर कभी भी उसका साथ छोड़ सकता था। और उसके बाद, नानों को संभालने वाला कोई नहीं था।

हालांकि, कुछ लोगों ने उसे सुझाव दिया था, के ‘उसे, पागलों के सरकारी अस्पताल में डाल दिया जाए। वहाँ पागलों की देखभाल के लिए लोग होते है’ लेकिन वह सुझाव थे। और सुझाव देना आसान होता है।

भला कोई अपने चाहने वाले को पागलों के अस्पताल में कैसे डाल सकता है, जब की, उसे सरकारी अस्पतालों की हालत पता हो। जितना दुर्व्यवहार नानों के साथ यहाँ होता है, उससे ज्यादा ही उसके साथ पागल अस्पताल में किया जाएगा।

और वैसे भी, नानों पूरी तरह से पागल नहीं थी। उसकी सिर्फ दिमागी हालत अस्थिर थी। आज तक, उसने, मोहल्ले की किसी भी व्यक्ति को, चोट नहीं पहुँचाई थी और ना ही किसी का नुकसान किया था। वह तो एक सुशील और समझदार औरत थी, जो दुखों की वजहों से टूट चुकी थी। लेकिन यह बात वह, उससे बेवजह नफरत करते समाज को कैसे समझाए?

आज, नानों की फिक्र में, उसे नींद नहीं आ रही थी। वह, उसके लिए, सोचते हुए आसमान को घूरे जा रहा था। बेवजह। उसकी जिंदगी की तरह।


हालांकि पैंतालीस साल पहले, उसके ऐसे हालात नहीं थे। बड़े शहर से दूर, एक छोटे शहर में, उसकी जिंदगी एक अच्छे दौर से गुजर रही थी। वह बाईस साल का था और उसे एक बड़ी, धागा बनाने की फैक्टरी में नौकरी लग गई थी। जिससे वह और उसका परिवार काफी खुश था।

उस दौर में, किसी फैक्टरी में नौकरी लगना, किसी सरकारी नौकरी लगने जैसी बात होती थी। क्योंकि ज्यादातर लोग, अनिश्चित मौसम के भरोसे वाली खेती से ऊब चुके थे। किसी भी फैक्टरी में एक अच्छी खासी तनख्वाह मिलती थी। और इसीलिए, एक साल के भीतर ही जयंतीलाल के लिए लड़की देखने का काम शुरू हो गया था।

‘अब तो बस इसकी शादी बाकी है’ जयंतीलाल के पिता, किशोरीलाल ने, अगली चिंता जाहीर करते हुए कहा।

आँगन में, नीम की छाँव के नीचे, दो चारपाई बिछाई हुई थी, जिसपर उनके पड़ोसी राहत इंदोरी और गाँव के एक पंडितजी बैठे हुए थे।

‘अरे भाई अभी तो उसे नौकरी लगी है। शादी भी जल्द हो जाएगी’ इंदोरीजी ने खरखराती आवाज़ में कहा ‘और जयंती में कोई कमी थोड़े ही है। वह अच्छा खासा नौजवान है, दिखने में सुंदर है, पढ़ा लिखा है और अब तो वह नौकरी भी करता है’

‘आपकी बात सही है इंदोरी जी। लेकिन सही बहु मिलना भी तो मुश्किल है। ऊपर से हमारा समाज काफी छोटा है’

‘आप इसकी चिंता क्यों कर रहे हो!’ पंडितजी ने कहा ‘हम यहाँ किस लिए बैठे है? जयंती बेटे के लिए मैं खुद रिश्ता ढूंढूंगा। और यह तो हमारे घर जैसा मामला है’

‘इसीलिए तो आपको बुलाया है पंडितजी ’ जयंतीलाल की माँ ने, चाय लाते हुए कहा ‘हमें आप पर पूरा भरोसा है। अब आप ही हमारे लिए एक योग्य बहु ढूंढ कर ला सकते है’

‘भाभी जी, ऐसा समझ लीजिए आपका काम हो गया। मैं आपके बेटे के लिए सबसे अच्छा रिश्ता लेकर आऊँगा। आप बस मिठाइयां तैयार रखिए’

इस पर किशोरीलाल ने कहा ‘हाँ, हाँ, बिल्कुल। अच्छा रिश्ता मिलते ही सबसे पहले मिठाई आपको ही मिलेगी’

जयंतीलाल देखने में अच्छा था। लंबा ऊँचा और गठीला बदन और ऊपर से नौकरी वाला भी। उसका परिवार भी अच्छा था। माता पिता काफी घुलमिल स्वभाव के और भले लोग थे। इसलिए, उसके लिए रिश्ते ढूँढना, ज्यादा मुश्किल काम नहीं था। और पंडितजी, कहे अनुसार, दस दिन में ही तीन रिश्ते ढूंढ लाए थे।

‘....और फिर जब मैं वहाँ गया, तो उन्होंने मेरी काफी खातिरदारी की....’ पंडितजी , पूरे दस दिन का लंबा चौड़ा बौरा देते हुए बताने लगे।

‘तो.... पंडितजी’ किशोरीलाल ने बीच में टोकते हुए पूछा ‘इन तीनों रिश्तों में से, हमारे लायक सबसे अच्छा कौन सा है?’

‘यह तीन रिश्ते आपके लिए उत्तम है किशोरीजी। अब आपको ही तय करना है के इनमें से कौन सा आपको पसंद है’ पंडितजी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा ‘और इन तीनों रिश्तों के बारे में आप आश्वस्त रहे। यह तीनों परिवार मेरे परिचित में है। मैं इन तीनों के परिवार को अच्छे से जानता हूँ। वह मेरे लिए वैसे ही है जैसे आप है। अब सिर्फ आपकी पसंद पर है। आप बताओ, और मैं आगे बात चलाता हूँ’

‘धन्यवाद पंडितजी, लेकिन यह निर्णय हम अकेले नहीं ले सकते। हमें हमारे जीजाजी से भी राय लेनी पड़ेगी’

‘हाँ, मैं समझ सकता हूँ किशोरी जी। आप बेझिझक सला मशवरा ले लीजिए और फिर मुझे बताएं। मैं इंतजार करुंगा’

और अगले दिन किशोरीलाल ने, जयंतीलाल द्वारा, अपने जीजा छेदीलाल को, पत्र लिखा।

छेदीलाल थोड़े सख्त स्वभाव के व्यक्ति थे। वह हमेशा कायदे और उसूलों की ही बातें करते थे, और उनकी इसी आदत से सब उनसे डरते थे। हालांकि वह हमेशा ही सख्ती में नहीं रहते थे। कभी कभार वह काफी मजाकिया भी बन जाते थे।

उन्हें अपनी पुरानी रीतियों पर काफी गर्व था और वह अकसर सख्ती से उनका पालन करते थे और दूसरों से करवाते थे। लेकिन, वह गलत चीजों का भी विरोध करते थे। भले ही वह कोई पुरानी रीत ही क्यों न हो।

और सबसे बड़ी बात तो यह थी, के वह, किशोरीलाल के जीजा थे। तो जाहिर सी बात थी के, उनका सन्मान उस घर में सबसे ज्यादा था। इसीलिए कई बार, बड़े फ़ैसलों में उनकी राय ली जाती थी और कई फ़ैसले तो वही लेते थे।

अब, जयंतीलाल की शादी का फैसला भी वही लेने वाले थे। इसलिए, उसकी शादी की बात सुनते ही, वह, अगले ही सप्ताह, किशोरीलाल के घर आ गए।

छेदीलाल, मध्यम कद काठी और बड़ी तोंद वाले आदमी थे। सफेद कुर्ता और सफेद धोती के ऊपर एक सफेद रुमाल, उनका यही पोशाक पिछले कई सालों से सब देखते आ रहे थे।

छेदीलाल को शादियाँ जुड़वाने में काफी रुचि रहती थी। उन्हें, कही भी शादी जुड़ाने का मौका मिलता तो वह वक्त निकाल कर वहाँ जरूर जाते थे। उन्हें उनके समाज के ज़्यादातर रिश्ते नाते मालूम थे। कौन किसका क्या लगता है? यह उनका, बातें करने का पसंदीदा विषय था।

और जब किशोरीलाल ने, आए हुए रिश्तों की बात, छेदीलाल से की तो उन्होंने उन रिश्तों के अंदर आने वाले बाकी रिश्तेदारों की, सारी कुंडली खोल डाली।

‘...तो, उनकी भाभी की, बहन की, ननद का लड़का हमारे ही गाँव में रहता है’ छेदीलाल ने एक रिश्ते की, पहचान कराते हुए कहा।

‘तो जीजाजी, आपका इन रिश्तों के बारे में क्या खयाल है?’ किशोरीलाल ने पूछा।

‘देखो, मैंने तो जयंतीलाल के लिए पहले से ही एक रिश्ता देख रखा था’ छेदीलाल ने थोड़ा नाराज़ होते हुए कहा ‘वह लड़की भी अच्छी थी और परिवार भी अच्छा था। लेकिन तुमने तो हम से पूछे बगैर ही रिश्ता ढूँढना शुरू कर दिया’

‘वैसी बात नहीं है जीजाजी। यह तो सिर्फ पंडितजी द्वारा लाए हुए रिश्ते है। आखिरी फैसला तो आप ही करोगे। हम आपके शब्दों के बाहर थोड़े ही है’

‘नहीं भाई, आखिरी फैसला तो लड़के को ही करना होगा। आखिर जिंदगी उसकी है। हम तो सिर्फ मशवरा देंगे, जो हमारे अनुभव से हमें लगेगा। बाकी फैसला तो उसका ही होगा। और पंडितजी ने भी अच्छे ही रिश्ते लाए है। उन्हें एक बार देख लेने में कोई हर्ज नहीं है’

‘तो क्या हम पंडितजी से बोल दे, हमें उनसे मिलाने को?’

‘हाँ, पंडितजी से कह दो के, हो सके तो हमें तीनों लोगों से इस महीने तक मिलवा दे। क्योंकि अगले महीने, मेरी खेती में, कुएं का काम शुरू हो जाएगा और अगले महीने में नक्षत्र भी कुछ खास नहीं है। अगर इसी महीने में देख ले तो अच्छा है’

जयंतीलाल की, शादी से जुड़ी घटनाएं काफी तेजी से घट रही थी। एक महीने के भीतर ही, उसकी शादी कराने के बारे में तय हुआ और अब तो रिश्ता देखने जाने की भी तैयारी शुरू हो चुकी थी।

अगले कुछ दिनों तक घर में उसकी शादी की ही बातें होती रही। जिसे सुनते वक्त, वह अपनी उत्सुकता को दबाते हुए, भावहीन चेहरा बनाने की नाकाम कोशिश करता।

हालांकि जब से उसकी शादी की बात निकली थी, उसकी उत्सुकता चरम पर पहुँच गई थी। उसका अब काम पर ज्यादा ध्यान नहीं रहता था। उसके कान, हमेशा घर पर होने वाली बातों के लिए खड़े रहते थे। उसके कई दोस्तों की शादियाँ हो चुकी थी और वह अपने पारिवारिक जिंदगी की ओर बढ़ चुके थे। अब जयंतीलाल को भी एक हमसफर की तलाश थी।

उसे नहीं पता था के उसका, होने वाला हमसफर कौन होगा और कैसा होगा? हालांकि उसने, अपने होने वाले हमसफर के बारे में कई सारे ख़्वाब देख रखे थे। और अपने होने वाले हमसफर के विचारों की वजह से, उस वक्त भी, उसे देर रात तक नींद नहीं आती थी।


और अचानक, हर रोज़ की तरह, मंदिर में जल चढ़ाने वाले लोगों द्वारा, बजाई गई मंदिर की घंटियों की वजह से उसकी आँख खुल गई। सुबह के छह बज चुके थे और नानों रात भर से बाहर ही सो रही थी।

वह उठ खड़ा हुआ और अपनी फटी चप्पल पहन कर, फिर से, उसे, उसी जगह देखने गया। लेकिन वहाँ अस्तव्यस्त पड़ी चद्दरों के अलावा कुछ नहीं था। नानों, सुबह ही वह जगह छोड़ कर, कही जा चुकी थी।

परेशान जयंतीलाल ने, उन चद्दरों को उठाया और नानों को उन खाली गलियों में ढूंढने लगा।

रात की तुलना में सुबह की ठंड कम थी, लेकिन बहती हवा, किस काटें की तरह चुभ रही थी। फिर भी ऐसी ठंड में वह नानों को ढूंढने के लिए गली-गली भटकने लगा। आखिर उसे नानों को देखे बगैर चैन कहा था।

और कुछ देर गली-गली भटकने के बाद उसे नानों दिखी। वह गली के मुहाने पर बनी चाय के ठेले के पास खड़ी, लोगों से चाय मांग रही थी।

अक्सर ठेले वाला या वहाँ, चाय पीते लोग, उस पर तरस खा कर उसे चाय दे देते थे। लेकिन ऐसा हर बार नहीं होता था। कई बार लोग उसके साथ वैसा ही सुलूक करते थे जैसा हर जगह किसी पागल के साथ किया जाता था। और आज भी वैसा ही हो रहा था।

वहाँ कुछ बड़ी उम्र के लड़के, उसका मज़ाक उड़ाते हुए हँस रहे थे। वह उनसे चाय मांग रही थी और वह उसकी खिल्ली उड़ाते हुए मजे ले रहे थे। आसपास कई बड़े आदमी भी थे, लेकिन वह उन लड़कों की इस बेहूदा हरकत को इस कदर नज़रअंदाज़ कर रहे थे, मानो वह लड़के किसी बेजान पत्थर का मज़ाक उड़ा रहे हो।

यह ऐसा दृश्य था, जिसमें यह तय कर पाना मुश्किल था के दिमागी हालत किस की खराब है। उसकी जो, गंदी साड़ी में, चाय के लिए लोगों के आगे हाथ फैला रही है या उन, चमकदार कपड़े पहने लोग की, जो उसका मजाक उड़ा रहे थे।

जयंतीलाल नानों के पास गया और उसका हाथ खींच कर, उसे घर ले जाने लगा। और तभी, वह लड़के, उसका भी मजाक उड़ाने लगे। उनके अंदर ना ही किसी प्रकार की शर्म थी और ना ही डर।

आपकी लाचारी, ना ही आपको न्याय दिलाती है और ना ही सम्मान। और यह बात जयंतीलाल जानता था। और ना ही उसे इनसे कोई उम्मीद थी। इसलिए वह सब को उसी तरह नजरंदाज करता था, जिस तरह वह लोग उसकी और नानों की भावनाओं को नज़रअंदाज़ करते थे।

घर आने के बाद उसने नानों से सख़्त शब्दों में कहा ‘तुम से मैंने कितनी बार कहा है के, अगर तुम्हें चाय पीनी हो या कुछ भी खाना हो तो मुझे बताया करो। यहाँ वहाँ भीख मत मांगा कर। भिखारी है क्या तू?’

नानों, कमरे में अलमारी से सट कर, नीचे मुंडी झुकाए, खामोश बैठ गई।

जयंतीलाल ने एक बर्तन निकाला और उसमें चाय बनाते हुए बड़बड़ाने लगा ‘लोगों से मांगने के लिए, हजार बार मना किया है। कितनी बार कहा है के अगर भूख लगती है तो घर पर आकार खाना खाया कर। मैं हर रोज, दोनों समय, तुम्हारे लिए खाना बना के रखता हूँ। लेकिन तुम सुनती कहाँ हो’

नानों जरा भी नज़रें ऊपर करे बगैर ज़मीन पर उँगली घूमा रही थी।

‘कल रात कुछ खाया था या नहीं?’

‘दुकान वाले के यहाँ बिस्कुट खाये थे’

‘और इतने में तुम्हारा पेट भर गया?’

इस पर नानों ने कुछ नहीं कहा।

‘तो पहले कुछ खाना है?’

लेकिन नानों ने ना में सिर हिलाया।

फिर जयंतीलाल ने भी आगे कुछ नहीं कहा। उसने चाय बनाई और डंडी टूटे हुए कप में उंडेल दी। हालांकि उसके हाथ की चाय में वह एहसास नहीं था जो कभी नानों की हाथ की चाय में हुआ करता था।

ठेले पर हुई घटना को याद करते हुए उसे काफी काफी गुस्सा आ रहा था और दुःख भी हो रहा था। कभी जिसकी हाथ की चाय की सब तारीफ किया करते थे, जिसे पीने के लिए वह तरसता था, आज उसी चाय के लिए, वह लोगों के सामने गिड़गिड़ा रही थी।


 ‘बहुत ही बढ़िया!’ पंडितजी ने चाय की पहली चुस्की लेने के बाद उत्साह से कहा ‘बनवारीलाल, बेटी ने काफी बढ़िया चाय बनाई है’

कमरे में जयंतीलाल के साथ, छेदीलाल, किशोरीलाल, पंडितजी, राहत इंदोरी, किशोरीलाल का दोस्त बिहारीलाल, जयंतीलाल की माँ और किशोरीलाल की बहन यानी छेदीलाल की पत्नी भी मौजूद थी।

आज वह तीसरे रिश्ते के घर आए थे। पहले दो रिश्ते भी, जयंतीलाल को पसंद आए थे लेकिन छेदीलाल के कहने पर ही वह आखिरी वाले रिश्ते को भी देखने आ गए थे।

चाय की तारीफ सब ने की। और जयंतीलाल को भी वह चाय काफी पसंद आयी। वह, उसने अब तक पी हुई चाय में से सबसे अच्छी थी। या शायद, वह हद से ज्यादा उत्साहित था इसलिए उसे ऐसा लग रहा हो, यह तो वह भी नहीं जानता था।

‘धन्यवाद पंडितजी’ लड़की के पिता ने कहा ‘बेटी, जरा बाहर तो आओ’

पिता के बुलवाने के बाद, रसोई से, हल्के गुलाबी ड्रेस में एक लड़की, रसोई के दरवाजे तक आयी। उसने, दुपट्टे से अपना सिर ढँका हुआ था और वह दरवाजे के पास इस तरह खड़ी हुई थी के, जयंतीलाल को छोड़ कर, सब को, उसका चेहरा साफ-साफ दिखाई दे रहा था।

‘तुम्हारा नाम क्या है बेटी?’ जयंतीलाल की माँ ने पूछा।

‘जी....नंदमाला’

नंदमाला की आवाज कोमल, मधुर और साथ ही आत्मविश्वास से भरी थी। वह अपने माँ बाप की इकलौती संतान थी। उसके माता पिता गरीब लेकिन एक अच्छी खानदान से थे। सरलता और सभ्यता में ही उसका पूरा बचपन गुजरा था। और अपने माता पिता के दिए अच्छे संस्कार के गुण उसमें साफ दिखाई देते थे।

नंदमाला की आवाज़ सुनाने के बाद, जयंतीलाल उसे देखने की काफी इच्छा हुई। लेकिन वह कुछ इस क़दर खड़ी थी के जयंतीलाल ना ही उसे अच्छे से देख पा रहा था और ना ही नंदमाला उसे। और तो और, उसकी इस जटिल समस्या की ओर किसी का भी ध्यान नहीं गया था।

अब जयंतीलाल तो खुद हो के, सब का ध्यान इस बात की ओर तो नहीं ला सकता था के, वह नंदमाला को देखने के लिए बेचैन है। इसलिए अपने आप को कम उत्साहित दिखाने के लिए वह चाय की चुस्की लेने लगा। हालांकि वह, आँख के कोने से, नंदमाला को देखने की, नाकाम कोशिश भी कर रहा था, जिसके चक्कर में दो बार उसकी चाय गिरते-गिरते बची थी, जिस पर शायद ही किसी की नजर गई हो।

वह उम्मीद कर रहा था के वहाँ बैठे लोगों में से कोई, नंदमाला को आगे आने के लिए कहेगा, जिससे वह दोनों एक दूसरे को अच्छे से देख पाए। लेकिन, सब उसकी बिन बताई बेचैनी छोड़, अपने ही सवालों में मशगूल हो गए थे।

‘तो क्या तुम्हें पढ़ना आता है बेटी?’ छेदीलाल ने पूछा।

‘जी हाँ, मैं चौथी तक पढ़ी हूँ’

‘बहुत बढ़िया’ पंडितजी ने बीच में कहा।

‘और क्या तुम्हें खाना बनाना आता है?’ जयंतीलाल की माँ ने पूछा।

‘जी हाँ’

‘बुनाई?’ किशोरीलाल की बहन ने पूछा जिस पर नंदमाला ने हाँ में जवाब दिया।

‘और सिलाई?’ उसके अगले सवाल पर छेदीलाल ने हल्की आवाज में उसे डाँटते हुए कहा ‘सिलाई-बुनाई का क्या करना है? हमें उसके लिए सिलाई की दुकान थोड़े ही डलवानी है!’

‘अजी तुम चुप बैठो। तुम्हें कुछ नहीं पता। लड़की को तो सारे काम आने चाहिए’

‘अच्छा। शादी के वक्त तुम्हें बड़ी सिलाई आती थी’

‘शादी के वक्त तुम्हारे घर में कौन सी सिलाई मशीन थी’

‘अरे तो अब कौन सी तुम्हारे भाई के घर में सिलाई मशीन है?’

छेदीलाल के इस जवाब से वह थोड़ी चिढ़ गई और धीरे से झिड़कते हुए कहा ‘अजी तुम जरा चुप बैठो तो। औरतों के बीच में दखल मत दो। यह हम औरतों वाले सवाल है’

दोनों की नोक झोंक की आवाज़ सिर्फ जयंतीलाल के कानों तक ही पड़ रही थी। और वह मन ही मन सोच रहा था के, जहाँ वह, नंदमाला को देखने में असमर्थ है, वही यह लोग उसकी मदद करने के बजाय आपस में ही झगड़ रहे है।

कुछ देर तक औरतों के, औरतों वाले सवाल शुरू चालू रहे। जिसका नंदमाला ने भी बड़े सलीके से जवाब दिया। उसकी विनम्रता की बोली और आवाज़ सब को पसंद आयी। छेदीलाल भी उससे, कई सारे सवाल पूछ कर, उसका दृष्टिकोण, उसके संस्कार, और उसकी सूझबूझ को परखने लगा।

जयंतीलाल अपने आप में बेचैन सा बैठा रहा। नंदमाला को देखने की उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। क्योंकि अभी भी किसी का, इस ओर ध्यान नहीं गया था के ना ही जयंतीलाल उसे देख पा रहा था और ना ही नंदमाला उसे।

लेकिन कुछ देर बाद जब नंदमाला, चाय के कप उठाने आयी, तो एक झलक में ही उन दोनों ने, एक दूसरे को देखा।

जयंतीलाल ने देखी पिछली दोनों लड़कियों के मुकाबले, नंदमाला कम गोरी थी। या यूं कहे तो वह थोड़ी सांवली थी और शरीर माध्यम कद काठी का था। हालांकि उसका चेहरा आकर्षक था। काजल लगाई आँखें, गहरी काली और मोहक थी। उसकी चाल में एक आत्मविश्वास और चेहरे पर एक शर्मीला भाव था।

और जब जयंतीलाल और उसकी नजर एक पल के लिए, एक हुई तब, उस शर्मीले चेहरे के साथ एक हल्की मुस्कराहट देख उसका दिल पिघल गया।

उसके दिल में एक अजीब सी खुशी वाला भाव उमड़ने लगा। न जाने क्यों पिछली दो खूबसूरत लड़कियों के मुकाबले इस साधारण सी लड़की की ओर वह ज्यादा खिंचाव महसूस कर रहा था। उसके चेहरे पर अपने आप मुस्कराहट का भाव बन रहा था, जिसे वह कमरे में इधर-उधर देख कर दबाने की नाकाम कोशिश कर रहा था। यह ऐसा एहसास था जिसे शायद बयां ना किया जा सके और ना ही लिखा जा सके। वह तो महसूस किया जा सकता था।

जयंतीलाल ने उसे मुश्किल से एक पल के लिए ही देखा था। और अब, वह फिर से उसे, तसल्ली से देखना चाहता था। लेकिन तब तक वह, सारे कप समेटते हुए अंदर जा चुकी थी। और फिर काफी देर तक उसकी आँखें नंदमाला को फिर से देखने के लिए तरस उठी।


और आज भी, हर रोज, उसकी आँखें वैसे ही, नानों को ढूंढने के लिए तरस जाती है।

नानों को चाय देने के बाद जयंतीलाल नहाने चला गया और जब वापिस आया तब तक वह, वहाँ से जा चुकी थी। घर के अंदर सिर्फ उसका झूठा खाली कप पड़ा हुआ था।

नानों रात से भूखी थी, और उसने सोचा था के नहाने के बाद उसे खाना खिलाएगा। लेकिन अब वह जा चुकी थी।

घड़ी में भी अब साढ़े आठ बज रहे थे और यह उसका काम पर जाने का वक्त था। अब वह चाह कर भी उसे, फिर से ढूंढने नहीं जा सकता था।

हर दिन की मजदूरी, उसकी मजबूरी बन गई थी। वह चाह कर भी, एक दिन के लिए भी घर पर नहीं रह सकता था। क्योंकि उसके पास पैसे न के बराबर थे। हर वक्त, उसे पैसों की जरूरत पड़ती थी। सब्जी खरीदने के लिए, राशन खरीदने के लिए और ज्यादातर बार नानों के लिए। वह कई बार बीमार पड़ती थी, उसे चोट लग जाती थी। और ऐसे कई मामलों में उसकी थोड़ी बहुत जमा की हुई राशि खतम हो जाती थी।

हालांकि उस गली में कई लोग अच्छे भी थे, जिन से उधार मांगने पर उसे पैसे मिल जाते थे। लेकिन उसे लोगों से पैसे मांगना कभी अच्छा नहीं लगता था।

हालांकि वह अपनी सच्चाई भी जानता था। उसे मालूम था के वह ज्यादा दिनों तक काम नहीं कर पाएगा। उसका शरीर अब थक चुका था। और जब वह काम करना बंद कर देगा, तो एक वक्त की रोटी जुटाना भी उसके लिए मुश्किल हो जाएगा। और इसीलिए वह जितने हो सके, उतने पैसा कमा कर, बचत करने की कोशिश में लगा रहता।

उसने रात का बचा खाना, खा लिया और नानों के लिए फिर से ताजा खाना बनाकर, ढंक दिया। ताकि अगर उसे भूख लगे और वह घर पर आए तो उसके खाने को कुछ हो। और उसके बाद, वह कम पर चला गया।

जयंतीलाल, अगली गली के, एक पुराने मकान में बने पावरलूम में काम करता था। उसने इससे पहले, कई कपड़ों की फैक्टरी में काम किया था और पढ़ा लिखा होने की वजह से उसे हमेशा एक अच्छा औंधा मिलता था। लेकिन यह उसके जवानी की बात थी। अब वह बूढ़ा हो चुका था। अच्छी तरह से दिखाई नहीं देने की वजह से वह लिख या पढ़ नहीं पाता था। अब वह कोई भी काम पहले की मुताबिक नहीं कर पाता था। और जब से नानों की मानसिक हालत खराब हुई है, उसका ध्यान काम से काफी हद तक हट गया था। वह कोई भी जिम्मेदारी वाला काम करने योग्य नहीं था। और वहाँ का मालिक, उसकी इस परिस्थिति को समझता था। इसलिए उसने, जयंतीलाल को ऐसे कामों के लिए रखा था, जो कम महत्वपूर्ण और कम मेहनत के थे।

जयंतीलाल वहाँ हल्के-फुल्के मजदूरी वाले काम करता था। जैसे लूम की देखभाल करना, साफ सफाई करना, बॉबिन भरना, दफ्तर के छोटे-मोटे काम करना या गट्ठे हाथगाड़ी से यहाँ से वहाँ ले जाने जैसे आदि काम।

दोपहर को जब वह हाथगाड़ी पर धागों का एक गट्ठा, दूसरे लूम की ओर ले जा रहा था, तभी एक गली में, उसे, नानों दिखी। वह एक घर के चबूतरे पर बैठ कर टमाटर खा रही थी।

उसके बाल वैसे ही गंदे, बिखरे हुए थे। चेहरे पर मिट्टी लगी हुई थी। और साड़ी पूरी तरह से धूल, मिट्टी से भरी हुई थी।

जयंतीलाल, हाथगाड़ी को सड़क के बाजू में लगाकर, उसके पास गया।

‘सुबह कहाँ चली गई थी? और यहाँ क्या कर रही है। तुझे पता है, मैं तुझे सुबह से ढूंढ रहा हूँ’ जयंतीलाल ने थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए कहा।

‘मैं यही पर तो थी’ उसने मासूमियत से डरते हुए कहा।

‘जा, घर पर जा। और यह टमाटर कहाँ से लाई?’ जयंतीलाल ने, पल्लू के नीचे छिपाए तीन-चार टमाटर को देखते हुए पूछा।

‘मैंने गाड़ी पर से लिए’

‘क्यों?’ उसने गुस्से से पूछा।

‘मुझे भूख लगी थी’

‘तो घर पर क्यों नहीं गई?’

उसने कुछ जवाब नहीं दिया और फिर से टमाटर खाने लगी।

जयंतीलाल जानता था के वह घर जाने के बजाय फिर से कही और भटकने चली जाएगी। इसलिए वह खुद उसे घर ले जाने लगा।

‘चल! घर चल’

उसने नानों को, वहाँ से उठाया और हाथगाड़ी को धकेलता हुआ अपने घर आ गया।

‘मुंह धो ले, देख कितना गंदा हो गया है। अपना कुछ खयाल ही नहीं रखती। अब काम धंधा छोड़ कर, तुम्हारा ही ध्यान रखता फिरुँ......’ वह बड़बड़ाते हुए दरवाजा खोलने लगा और नानों बाहर नल के पास रखी पाणी से भरी बाल्टी में अपना चेहरा धोने लगी।

‘......हर बार कहता हूँ के शाम को घर आ जाया कर। लेकिन मेरी सुनती कहा है। दिन भर काम करुँ और शाम को पागलों की तरह ढूँढता फिरूँ। यही काम रह गया है अब मुझे। यही काम करते-करते मर जाऊंगा’

जयंतीलाल को गुस्से में देख नानों दरवाजे के पास ही, सहमी सी खड़ी रही और अपनी गंदी साड़ी से अपना चेहरा पोंछने लगी।

नानों की दिमागी हालत ठीक नहीं थी। वह सोचने और समझने में असमर्थ थी। और सीधी भाषा में कहें तो वह पागल थी। लेकिन आज तक उसने जयंतीलाल से कोई अपशब्द नहीं कहे थे और ना ही कभी कोई चोट पहुँचाई थी। उसके मन में आज भी जयंतीलाल के लिए वैसी ही सम्मानजनक भावना थी जैसी उसके ठीक रहते वक्त हुआ करती थी।

नानों का, थोड़ा डरा हुआ चेहरा देखने के बाद, जयंतीलाल का गुस्सा भी सहानुभूति में बदल गया। वह जानता था के उस पर गुस्सा कर के कोई फायदा नहीं था। अगर उसमें पहले जैसी समझ होती तो वह ऐसा कभी नहीं करती।

फिर, जयंतीलाल ने, सहानुभूति से उसका हाथ पकड़ कर, चारपाई पर बिठाते हुए कहा ‘यही बैठ, मैं तेरे लिए खाना गरम कर देता हूँ’ और वह चूल्हे के पास बैठ कर खाना गर्म करने लगा।

‘कल रात, बिस्कुट के अलावा कुछ खाया था?’

‘नहीं’

‘वैसे बिस्कुट किसने दिया था?’

‘मास्टरजी के दुकान से लिया था’

‘पैसे दिए?’

‘नहीं’

‘कितनी बार कहा है, बिना पैसे के कुछ खरीदा मत कर। तुझे मालूम है न मैं कहाँ काम करता हूँ। वहाँ आकर पैसे ले लिया कर’

नानों कई बार मुहल्ले की दुकानों से, कुछ न कुछ, खाने का सामान खरीद लेती थी। और कई दुकानदार उसे दे भी देते थे, क्योंकि जयंतीलाल हमेशा उन्हें, बाद में पैसे लौटा देता था। लेकिन वहाँ भी कुछ दुकानदार, ऐसे भी थे के, नानों इस हालत का फायदा उठा कर, उसके नाम की झूठी उधारी बता कर जयंतीलाल से पैसे ऐंठ लेते थे।

‘वैसे क्या बिस्कुट से पेट भरता है?’

नानों ने ना में सर हिलाया।

‘पेट भरने के लिए रोटी सब्जी चाहिए होती है। मैं हर रोज, तेरे लिए, ताजा खाना बनाकर छोड़ जाता हूँ। तू यहाँ आकर क्यों नहीं खाती?’

‘बाहर मुझे अच्छा-अच्छा खाना मिलता है और तुम्हारा खाना मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम्हें खाना बनाना नहीं आता’ नानों ने मासूमियत से बोल दिया।

और यह सच था। जयंतीलाल को खाना बनाना नहीं आता था। वह तो जैसे तैसे खाना बनाता था और जिंदा रहने के लिए खाता था। और भला, उस औरत को यह खाना कैसे अच्छा लगेगा, जिसके हाथों में कभी-


‘साक्षात अन्नपूर्णा’ पंडितजी ने, पहला निवाला खाते ही, खुशी से कहा।

और पंडितजी कोई अतिशयोक्ति नहीं कह रहे थे। सच में नंदमाला के हाथ का बनाया खाना काफी स्वादिष्ट था और यहाँ छेदीलाल और दूसरों ने भी दिल खोल कर तारीफ की थी, सिवाय जयंतीलाल के। हालांकि वह भी, उस खाने की तारीफ तो करना चाहता था लेकिन सब के सामने वह कुछ नहीं कह सकता था।

नंदमाला, खाना परोसते वक्त कई बार, जयंतीलाल के सामने आयी। और वह उसे, अच्छे से देखना भी चाहता था लेकिन न जाने क्यों उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। वह, नंदमाला के आने के बाद भी, किसी भेड़ की तरह, नीचे मुंडी कर के ही खा रहा था।

‘अरे बेटा जलेबी तो लो’ नंदमाला के पिता ने, जयंतीलाल को जलेबी के लिए आग्रह किया।

‘वैसे जलेबी काफी अच्छी है’ पंडितजी ने पाँचवी जलेबी ठुसते हुए कहा।

‘जी हाँ, गुड़ की जलेबी है। हमारी बिटिया को काफी पसंद है’

और जयंतीलाल ने, मीठा पसंद नहीं होने के बावजूद, जलेबी के लिए हाँ कर दी और नंदमाला ने दो जलेबी रख थी। हालांकि उसने इस बार भी मुंडी ऊपर कर के नहीं देखा था।

भर पेट खाना खाने के बाद, सब मर्द लोग, बाहर आँगन में आकर, नीम के पेड़ के नीचे बिछाए खटिए पर बैठ गए। वहाँ छेदीलाल और पंडितजी में, समाज के कुछ लोगों की गहरी बातें हो रही थी। किशोरीलाल और बिहारीलाल पान चबाने में व्यस्त थे और बनवारीलाल से खेती बाड़ी के विषय में बातें कर रहे थे।

महिलाएं घर में खाना खा रही थी और जयंतीलाल बाहर से ही अंदर, महिलाओं को परोस रही नंदमाला को देखने की नाकाम कोशिश कर रह था।


थोड़ी ही देर में जयंतीलाल ने नानों के लिए खाना गरम कर लिया और उसे परोस दिया।

नानों को उसके हाथ का खाना पसंद नहीं था लेकिन कल रात से उसे काफी भूख लगी थी इसलिए उसने चुपचाप खाना शुरू कर दिया।

कुछ देर तक तो वहाँ शांति थी लेकिन कुछ ही देर बाद नानों ने बोलना शुरू किया। क्योंकि वह ज्यादा देर तक खामोश नहीं रह सकती थी।

उसने जयंतीलाल को कल की सारी बातें बताई, जैसे वह कहाँ गई थी, किसके घर बैठी थी, किसने क्या बातें बताई, गली मोहल्ले में क्या कुछ नया हो रहा है और ऐसी ही कई सारी बेतुकी, आधी अधूरी बातें, जिसका न कोई सिर था न कोई पैर और न ही कोई तुक।

फिर भी जयंतीलाल उसकी हर एक बात, ध्यान से सुनता गया और उससे बात करने लगा। भले ही उन बातों का कोई तुक नहीं था लेकिन आज भी उसे उसके साथ बात करना अच्छा लगता था। आज भी उसे उसकी आवाज़ वैसे ही सुनाई दे रही थी जैसी उसने उसके साथ पहली बार बात करते वक्त सुनी थी।


उसी रात, जयंतीलाल ने नंदमाला से पहली बार बात की थी, जब वह, उसे छत पर सोने की जगह दिखाने ले गई थी।

नंदमाला का गाँव, जयंतीलाल के गाँव से काफी दूर दराज इलाके में था। और वहाँ से आने जाने के लिए सिर्फ एक ही बस थी जो हर सुबह आती थी। उसके बाद वहाँ से, जयंतीलाल के गाँव जाने के लिए और कोई वाहन नहीं था। और इसलिए, सब लोगों का रात के ठहरने का इंतजाम, नंदमाला के घर पर ही था।

रात को फिर से, नंदमाला के हाथ का स्वादिष्ट खाना खाने के बाद सब, बाहर आँगन में गप्पें लड़ा रहे थे। घर के चबूतरे पर बैठी औरतें, बातें करते वक्त कपास की बत्ती बना रही थी और सारे मर्द, आँगन में खटिए पर बैठ कर गाँव की बातें कर रहे थे।

जयंतीलाल को उनकी बातों में कोई रुचि नहीं थी और उसे काफी नींद भी आ रही थी। तब नंदमाला की माँ ने, नंदमाला से, जयंतीलाल को सोने की जगह दिखाने के लिए कहा और वह जयंतीलाल को ऊपर छत पर ले गई।

वह पूर्णिमा की रात थी और चाँद, उस नीम की डालियों के पीछे से निकलता हुआ, अपनी सफेद दूधिया रोशनी फैला रहा था। हल्की-हल्की ठंडी हवा बह रही थी और पड़ोसी के आँगन से, रेडियो पर बज रहे, किशोर कुमार के पुराने गानों की हल्की-हल्की आवाज आ रही थी।

वहाँ, कई सारी चारपाइयां, फैलाई हुई थी। जिस पर, गद्दे बिना फैलाए, रखे हुए थे। और नंदमाला हर एक चारपाई पर गद्दे को बिछाने लगी।

जयंतीलाल भी उसकी मदद करने के लिए आगे आया।

‘जी, आप रहने दीजिए, मैं कर लूँगी। आप आराम कीजिए’

‘जी, कोई बात नहीं’ और उसने गद्दे पर बिछाने वाली चद्दर की एक बाजू पकड़ ली।

नंदमाला हल्के-हल्के में शरमाते हुए मुस्करा रही थी।

जयंतीलाल को भी उससे बात करने की इच्छा हो रही थी, लेकिन न जाने क्यों उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी।

लेकिन वहाँ कोई नहीं होने से, उसने हिम्मत कर के बोलना शुरू किया ‘वैसे आपसे एक बात कहनी थी’ जयंतीलाल की बात सुनते ही नंदमाला ने उसकी ओर देखा ‘......अ.... लेकिन नीचे सब के सामने नहीं कह सका..... अ.. आपने खाना सच में काफी अच्छा बनाया था’

‘जी, धन्यवाद!’ वह हल्के से मुस्कराहट के साथ शरमाई।

‘और चाय भी’

‘जी, आप कुछ ज्यादा ही तारीफ कर रहे है’ नंदमाला के चेहरे पर लाली आ गई।

‘बिल्कुल नहीं, आप सच में इस तारीफ के काबिल है। लेकिन नीचे सब लोगों के सामने नहीं कह सकता था’

नंदमाला पहले से ज्यादा शर्मा गई और दूसरी खटिए पर भी चद्दरें बदलने में लग गई, जिसमें जयंतीलाल भी मदद करने लगा।

उन दोनों में कुछ क्षण के लिए खामोशी छा गई। हालांकि रेडियो पर बज रहे गानों की आवाज़ और आँगन में लग रहे ठहाकों की आवाज़ ऊपर तक आ रही थी।

दोनों के बीच की खामोशी को तोड़ते हुए जयंतीलाल ने फिर से कहा ‘वैसे आपका गाँव काफी खूबसूरत है। और यहाँ काफी शांति भी है’

‘हाँ, वैसे क्या आप पहले भी यहाँ आए है?’

‘अ...नहीं, मैं पहली बार यहाँ आया हूँ। और मुझे यह जगह काफी पसंद आयी’

‘वैसे आपको, यहाँ का शंकर जी का मंदिर ज़रूर देखना चाहिए। हर सोमवार उस मंदिर में कई दूर से लोग आते है’ नंदमाला ने भी बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए कहा। शायद उसे भी जयंतीलाल से बात करने की इच्छा हो रही थी। शायद इसलिए क्योंकि उसे भी वह पसंद था।

‘मैंने आते वक्त उसे देखा था, लेकिन दूर से ही। अ...मैं मंदिरों में जाता नहीं हूँ’

‘आप नास्तिक है?’

‘नहीं, मेरा भगवान पर विश्वास है। लेकिन मुझे मंदिरों में जाना पसंद नहीं है’

‘भगवान पसंद है लेकिन मंदिर नहीं। यह कैसी बात है?’

‘मेरा मतलब है, आजकल के मंदिरों में जाना पसंद नहीं है। हाँ पुराने मंदिरों में जाना अच्छा लगता है’

‘तो वह मंदिर आपको भी पसंद आएगा। वह भी एक पुराना मंदिर ही है। और उसके बाजू में एक खूबसूरत छोटी नदी भी है’

‘शायद आपको वह मंदिर काफी पसंद है’

‘हाँ, मैं हर सोमवार को वहाँ जाती हूँ। मुझे वहाँ अच्छा लगता है। आपको वह जगह सच में काफी पसंद आएगी’

‘अब शायद, आपके कहने से में एक बार वहाँ जरूर जाऊँ’ उसने मुस्कराते हुए कहा जिस पर नंदमाला भी मुस्कराई।

‘वैसे आपका गाँव कैसा है?’ नंदमाला ने पूछा।

‘ठीक ही है। असल में वह गाँव नहीं है। वह एक छोटा शहर है। वहाँ ज्यादातर लूम है, कारखाने है, भीड़ है और शोर-शराबा भी। इसके अलावा वहाँ कुछ नहीं है। मुझे वह जगह पसंद भी नहीं है लेकिन वहाँ पैसा है। हर हाथ को काम है। और जिंदगी जीने के लिए वह भी जरूरी है। वैसे आपको कौन सी जगह रहना पसंद है? शहर या गाँव?’

‘मुझे शांत जगह ज्यादा पसंद है। लेकिन मुझे अकेले रहना पसंद नहीं है। मुझे लोगों के बीच रहना ज्यादा पसंद है। उनसे बातें करना पसंद है। और आपको?’

‘मुझे ज्यादातर अकेले रहना पसंद है। मुझे लगता है के मैं जब अकेला रहता हूँ तो ज्यादा सोच पाता हूँ। हालांकि मुझे समझदार लोगों से बातें करना भी पसंद है’

‘समझदार लोगों से ही क्यों?’ नंदमाला ने हँसते हुए पूछा।

‘क्योंकि अक्सर मैं लोगों को अपनी बात ठीक तरह से समझा नहीं पता हूँ और वह उसका गलत मतलब निकाल लेते है। समझदार लोगों के साथ ऐसा नहीं होता। उन्हें समझाना आसान होता है’

‘तो मैं कौन हूँ? समझदार या नासमझ?’ उसने फिर से हंसते हुए पूछा।

‘मुझे आपसे बात करते हुए अच्छा लग रहा है। तो जाहिर है आप समझदार है’

नंदमाला खिलखिलाकर हँसने लगी, लेकिन तभी उसकी माँ ने, उसे, सीढ़ियों से आवाज लगाई और वह झट से सीढ़ियों के पास गई।

उसकी माँ ने उसे धीमी आवाज़ में झल्लाते हुए कहा ‘लड़की जात को इतनी बड़बड़ शोभा देता है क्या? उन्हें नींद आ रही थी, और तू वहाँ अपनी बकबक करे जा रही है। क्या सोचेंगे वह?’ और उसे अपने साथ नीचे ले गई।

अब छत पर, नीम के पेड़ की डालियों से छान कर निकलती चंद की रोशनी में, वह अकेला खड़ा था। जहाँ रेडियो पर बज रहे किशोर कुमार के सुरीले गाने सुनाई दे रहे थे।

वह चारपाई पर लेट गया और नंदमाला के बारे में सोचने लगा। उसने उससे, कुछ थोड़े वक्त के लिए ही बातचीत की थी, लेकिन पता नहीं क्यों, उसे नंदमाला से बात करते वक्त काफी अच्छा लगा और उससे एक खास जुड़ाव महसूस हुआ।


और वह जुड़ाव आज भी वैसा ही था। नानों अभी भी बातें करते हुए, खाना खा रही थी और जयंतीलाल उसकी बातों को सुन रहा था। लेकिन वह ज्यादा देर उसके साथ नहीं बैठ सकता था। उसे जो गट्ठे पहुँचने थे वह अभी भी बाहर, हाथगाड़ी पर ही थे। इसलिए वह वहाँ से निकलने लगा।

‘देख, अच्छे से खाना खा लेना और घर पर ही रहना। बाहर जाने की जरूरत नहीं है’ जयंतीलाल ने दरवाज़े के पास जाते हुए कहा ‘अब मुझे काम पर जाना है। मैं शाम को जल्दी आ जाऊंगा। और तब तुम्हारे लिए अच्छा खाना बना दूँगा’ और इतना कह कर वह, उस ठेले को धकेलता हुआ काम पर लौट गया।

जयंतीलाल के पास हल्का-फुल्का ही काम होता था। लेकिन वह भी इतना होता था के, उसका पूरा दिन व्यस्तता में निकल जाता था। हालांकि उसमें भी वह, थोड़ा वक्त निकाल कर, नानों का ध्यान रखने की पूरी कोशिश करता था। उसके दिलों दिमाग में उसी के विचार आते रहते थे। वैसे ही जैसे-


उन दिनों, एक साधारण सी दिखाने वाली नंदमाला उसके के दिलों दिमाग पर छा गई थी। रात की नींद से लेकर दिन भर के कामों में उसका ही चेहरा, उसकी, आँखों के सामने मंडराता रहता था। उसकी यादें, बेवजह ही उसके चेहरे पर मुस्कराहट लाती थी। न जाने क्यों, वह, हर वक्त उसके ही ख़यालों में खोया हुआ रहता था। इसमें अब कोई शक नहीं था के उसे नंदमाला से प्यार गया था। अब तो वह मंदिर तक जाने लगा था, ताकि उसकी शादी नंदमाला से ही हो।

और शायद इसी का फल था जो, आगे की सारी घटनाएं उसके ही पक्ष में घट रही थी। घर वालों को भी नंदमाला पसंद आ गयी थी, नंदमाला और उसके घरवालों को भी यह रिश्ता मंजूर था और दोनों की कुंडलियों में भी ३२ गुण जुड़ रहे थे। फिर क्या था, छेदीलाल की मध्यस्था में रिश्ता तय हो गया और फिर देखते ही देखते दोनों पक्षों की ओर से, शादी तय होने से लेकर, शादी के ख़र्चों तक की बातचीत शुरू हो गई थी।


शाम को जब वह बाजार से लौट रहा था, तब उसे, होटल पर गरमागरम गुड़ की जलेबियाँ दिखाई दी। जो नानों को काफी पसंद थी। उसे याद भी नहीं था के पिछली बार उसने, नानों को कब जलेबी खिलाई थी या अच्छा खाना खिलाया था।

उसने, अपनी जेब टटोली और उसमें से दस रुपये निकाल कर उसकी जलेबी खरीद ली।

और जब वह घर लौट तो उसे, सुकून भरा एक दृश्य दिखा। आज, नानों दरवाजे के पास, उसका इंतजार करते वैसे ही खड़ी थी, जैसी, शादी के दिन, मंडप में, उसके स्वागत के लिए खड़ी थी। उसने, दोपहर के, अपने झूठे बर्तन तक धो डाले थे। ऐसा अकसर नहीं होता था, और ना ही जयंतीलाल को, आज, इसकी उम्मीद थी।

‘तु बाहर क्यों खड़ी है?’ उसने दरवाज़ा की कुंडी खोलते हुए पूछा।

‘मैं तुम्हारा इंतजार कर रही थी’

‘भला क्यों?’

इस पर उसने कुछ जवाब नहीं दिया।

‘छोड़, यह देख मैंने तेरे लिए क्या लाया है’

‘वह गुड़ की जलेबी है’ उसने मुस्कराते हुए कहा।

‘तुम्हें कैसे पता चला?’

‘खुशबू से’

अंदर आने के बाद, जयंतीलाल ने कागज को खोला और गरमागरम जलेबियों को उसके सामने रखते हुए कहा ‘गरमागरम है, खा ले’

और जैसे नानों उसकी इजाजत का इंतजार करती। उसने तो, उसके बोलने से पहले की एक जलेबी उठा ली और खाने लगी।

फिर जयंतीलाल खाना बनाने के काम में लग गया। आज उसकी तो बहुत इच्छा थी के वह अच्छा खाना बना के नानों को खिलाए। उसे दाल चावल खा के, अब तो इतना समय हो गया था के, उसका स्वाद तक याद करने में मुश्किल हो रही थी। लेकिन अच्छा खाना बने कैसे? ना ही घर में राशन था और ना ही जेब में पैसे। थोड़ा गेहूँ का आटा और सस्ते दरों में ली हुई, बासी हरी सब्जियों के अलावा कुछ नहीं था। और फिर परिस्थिति से हार कर उसने सब्जी रोटी ही बनाने का फैसला लिया।

कुछ देर बाद नानों, जलेबी खाते हुए अचानक, अलमारी खोल कर कुछ ढूंढने लगी। पहले तो, जयंतीलाल ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया लेकिन फिर नानों ही उसके पास आ गई और उसके आँखों के एक तस्वीर रख दी।

वह उन दोनों की शादी वाली तस्वीर थी, जिसमें वह नानों को जलेबी खिला रहा था।

      

वह उसकी जिंदगी का सबसे खुशनुमा दिन था। हर तरफ खुशी का माहौल था। छोटे बच्चों से लेकर मेहमानों तक उत्साहित थे। कुछ जगह भाग दौड़ चल रही थी तो कुछ जगह बेफिक्री का माहौल था। ‘जयंती भाई की शादी है। जयंती भाई की शादी है’ कहते हुए, बराती बच्चे, गली में उधम मचा रहे थे।

उस दिन नंदमाला, अपने शादी के लाल जोड़े में काफी खूबसूरत लग रही थी। और उस जोड़े में उसकी मुस्कराहट, जयंतीलाल का मन मोह लेती रही थी। उस दिन वह उस भीड़ में भी, उसे बड़े हक से देख रहा था।

जयंतीलाल का परिवार ज्यादा अमीर नहीं था। इसलिए शादी में ज्यादा तामझाम नहीं था लेकिन शादी में उत्साह की कोई कमी नहीं थी। ऐसी धूमधाम वाली शादी, आज तक उस गाँव में नहीं हुई थी।


और वह फोटो, उन सुनहरी यादों का, बचा हुआ एक हिस्सा था।

‘क्या तुम्हें वह दिन याद है’ जयंतीलाल ने, तस्वीर को देखते हुए पूछा। जिस पर नानों ने खुशी से सिर हिलाया।

जयंतीलाल ने जलेबी का एक टुकड़ा उठाया और उसे, अपने हाथ से, वैसे ही खिलाया जैसा शादी के दिन खिलाया था। उसके बाद नानों ने भी वैसा ही किया।

लेकिन अचानक, नानों का वह खुशनुमा चेहरा, उदास हो गया। उसकी आँखें, स्थिर और बेजान हो गई। उन गहरी आँखों में दुःख के अलावा और कोई भावना नहीं थी। और फिर, उन बेजान आँखों से कब आँसू बहने लगे पता ही नहीं चल।

जयंतीलाल का भी दिल भर आया और उसने नानों को गले लगा लिया। लेकिन, अब उसकी आँखों के आँसू सुख चुके था।

नानों, काफी देर तक रोती रही। जैसे, किसी बड़ी सी, दुखों की नदी का, धैर्य का बाँध टूटा गया हो।

जयंतीलाल, सिर्फ उसे गले लगाए हुए बैठा रहा। वह उसे रोकना नहीं चाहता था। वह तो चाहता था के नानों एक बार में ही इतना रो दे के, उन आँसू में उसके पुराने सारे दुःख, दर्द बह जाए। वह, नानों को घुट-घुट कर जीता देख, मरे जा रहा था।

रात का खाना खाने के बाद, जयंतीलाल ने, घर के अंदर ही, नानों को, चारपाई पर बिस्तर लगाया और अपने लिए जमीन पर।

लेकिन कुछ ही देर बाद, नानों उसके बाजू में आकार, जमीन पर लेट गई।

कई बार नानों ऐसे बर्ताव करती थी जैसे, उसे कुछ हुआ ही ना हो। उसकी दिमागी हालत सही हो और वह सब जानती और समझती हो।

जयंतीलाल भी यही उम्मीद करता था के किसी एक दिन, अचानक, इसी तरह वह ठीक हो जाए। लेकिन यह उम्मीद तो, वह पिछले पंद्रह साल से करता आ रहा था और इस इंतजार में उसकी आँखें, अब थक चुकी थी।

नानों ने उसके बाद, अपना सिर जयंतीलाल के बाजुओं पर रख दिया और एक हाथ उसके सीने पर।

शादी के बाद भी वह अक्सर ऐसे ही, जयंतीलाल के बाजू में आकर, लेटा करती थी और घंटों बातें किया करती थी।

जयंतीलाल के घर में, उसकी माँ और पिताजी हमेशा मौजूद होते थे। जिस वजह से उन्हें, आपस में अकेले में मिलने का, काफी कम मौका मिलता था। तो वह दोनों, रात को बिस्तर डालने के बहाने छत पर जाते थे। और वही बिस्तर पर लेटे-लेटे, चंद सितारों से जगमगाते खुले आसमान के नीचे, कुछ देर बातें किया करते थे।

‘आज आसमान कितना साफ है न?’ नंदमाला ने उसके बाजू में लेट कर, उसके बाजुओं पर सर रखते हुए कहा।

‘हाँ, काफी खूबसूरत है, तुम्हारी तरह’

वह थोड़ी शर्मा गई और फिर शरारत भारी उँगली, जयंतीलाल की छाती पर घुमाते हुए कहा ‘आज माँजी इशारा करते हुए पूछ रही थी के लल्ला हुआ तो क्या नाम सोचा है?’

‘तो? तुमने कोई नाम सोचा है?’

‘पहले लल्ला को तो आने दो’

‘लल्ला भी आ जाएगा भाई, लल्ला की अम्मी जो आ गई है’ उसने उसे बाहों में भरते हुए कहा।

‘धत’

‘वैसे तुमने नाम तो सोचा ही होगा’

‘नहीं, लेकिन सोच रही हूँ के, लड़की हुई तो हम उसका नाम फूलों पर रखेंगे और अगर लड़का हुआ तो हम उसका नाम किसी भगवान पर रखेंगे’

‘नहीं, हम अपने लड़के का नाम भगवान पर नहीं रखेंगे’

‘क्यों?’

‘देखो, सीधी सी बात है। अगर हमारा लड़का कोई शैतानी करें या हमारी बात ना सुने तो मैं उसे गुस्से से गाली दूंगा। अब तुम ही बताओ, भगवान के नाम से गाली देना अच्छा लगेगा क्या?’

‘आपको गाली देने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। वह मेरे बच्चे होंगे। मैं उन्हें इतने अच्छे संस्कार दूँगी के वह गाली सुनने जैसा कोई काम ही नहीं करेंगे’

‘अच्छा? देखते है। वैसे बच्चों पर ज्यादा भरोसा मत रखो। आज कल के बच्चे बड़े हरामी होते है। अपने पैरों पर खड़ा होते ही, अपने माँ बाप को भूल जाते है’

‘मेरे बच्चे वैसे नहीं होंगे। यह मेरा विश्वास है। और वैसे भी, बच्चे कैसे भी निकले, आप तो मेरा खयाल रखेंगे न?’

‘हमेशा। तुम्हारी आखिरी साँस तक’

‘मेरी आखिरी साँस तक?’ नंदमाला ने हँसते हुए पूछा ‘यह कैसा वादा हुआ? लोग अपनी आखिरी साँस तक का वादा करते है’

‘हाँ, लेकिन उनके मरने के बाद? मैं तुम्हें, अपने मरने के बाद भी खयाल रखने का वादा करता। अगर मैं तुम से पहले मर गया, तो मैं, भूत बन कर खयाल रखूँगा’

‘और मैं तुम्हारा भूत देख के डर गई तो?’

‘तो मैं तुम्हें बिना दिखे ही, तुम्हारा खयाल रखूँगा। लेकिन मैं हमेशा तुम्हारे साथ ही रहूँगा’

‘यह तो सिर्फ कहने की बात हुई’

‘देख लेना’ कहते हुए उसने नंदमाला को बाहों में भर लिया।


आज काफी दिनों बाद नानों, सुबह के वक्त घर पर थी। इसलिए जयंतीलाल ने सबसे पहले, दोनों के लिए चाय बनाई। 

नानों दरवाज़े के पास बैठ कर इस तरह चाय पीने लगी, जैसे वह किसी पराए का घर हो। जयंतीलाल, इस बात के लिए, उसे कई बार समझा चुका था। लेकिन वह अब समझ से परे थी।

जयंतीलाल का, उसकी साड़ी की ओर ध्यान गया। वह काफी ज्यादा मटमैली हो गई थी और कई जगहों से फट भी चुकी थी। उसकी साड़ी का रंग धूल मिट्टी के कारण छीप गया था। उसे तो पता भी नहीं था के, नानों ने यह साड़ी कितने दिनों से या महीनों से पहनी हुई है।

‘तेरे कपड़े कितने गंदे हो गए है?’

जयंतीलाल की इस बात पर, उसने सिर्फ, अपनी साड़ी का पल्लू देखा लेकिन कुछ नहीं कहा। और वह बोलती भी क्या? अगर उसमें इतनी समझ होती तो वह कपड़े थोड़ी गंदे करती। वह तो हमेशा, खुद की और घर की साफ सफ़ाई रखने वाली औरत थी। लेकिन अब उसे होश में कहाँ था।

बड़े दिनों बाद नानों घर पर थी। इसलिए जयंतीलाल ने, उसके खराब हो चुके कपड़ों को बदलने के बारे में सोचा। शायद वह, उस दिन से नहाई भी नहीं थी जिस दिन से उसने यह साड़ी पहनी थी।

‘तुम्हें याद भी है तुम कब नहाई थी। हर बार कहता हूँ के शाम को घर आ जाया कर। तुझे घूमना पसंद ही है तो सुबह नहा धो कर घर से निकला कर। लेकिन मेरी बात तो सुननी ही नहीं होती है’ जयंतीलाल बड़बड़ाने लगा जिसे नानों चुपचाप सुनने लगी।

‘अब मैं तुम्हारे लिए पानी गरम कर रहा हूँ, अलमारी से कपड़े निकाल लो और नहा लेना’

नानों ने सिर्फ मुंडी हिलाई, और फिर अलमारी से एक साड़ी निकाली। जो वैसी ही रंग उड़ी, और कुछ जगह से फटी हुई थी।

‘यह भी तो फटी हुई है। क्या तुम्हारे पास कोई और साड़ी नहीं है?’ उसके पूछने पर नानों ने ना में सिर हिलाया।

उसके बाद जयंतीलाल ने खुद अलमारी में झाँका। वहाँ कई सारी अच्छी साड़ियाँ भी थी, जो, ज्यों के त्यों, अलग रखी हुई थी। और कुछ गिनी चुनी, दो-तीन ही साड़ियाँ थी, जो वैसे ही रंग उड़ी हुई और कुछ जगहों से फटी हुई थी। जिसे वह बार-बार पहनती आ रही थी। आज उसके पास कई सारी अच्छी साड़ियाँ होने के बावजूद भी वह पुरानी फटी हुई साड़ियाँ ही पहनती थी। और एक वक्त था जब सिर्फ एक साड़ी के लिए उन दोनों में विवाद हो गया था।


वह अपना गाँव छोड़ कर दूसरे शहर आ गया था। जहाँ उसे अच्छे तनख्वाह वाली नौकरी लग गई थी। उसे, यहाँ आए हुए एक महीना हो चुका था, लेकिन नई नौकरी और नई जगह के कारण वह थोड़ा उलझा हुआ और तनाव में भी था। और ऐसे ही एक दिन नंदमाला ने उससे साड़ी दिलवाने के बारे में कहा। जिससे, उन दोनों के बीच, काफी कहासुनी हो गई। जयंतीलाल ने उसे बुरी तरह से डांट दिया और ग़ुस्से से तमतमाता हुआ काम पर निकल गया।

लेकिन शाम को जब यह घर आया, तो देखा के, नंदमाला एक कोने में बैठी, सिसक रही थी। उसकी आँखें लाल और आँसुओं से भरी हुई थी। और सूखें हुए आँसुओं के निशान, उसके गालों पर साफ-साफ दिखाई दे रहे थे। शायद वह सुबह से रो रही थी और शायद उसने खाना भी नहीं खाया था।

नंदमाला को ऐसा देख, जयंतीलाल को सुबह की बात याद आयी, जिसे वह काम पर जाते ही भूल गया था। उसे नहीं पता था के, उसकी सुबह की डांट का, वह इतना दिल पर लगा लेगी।

वह उसके नजदीक गया और प्यार से, अंजान बनते हुए पूछा ‘यह क्या नंदमाला? तुम रो क्यों रही हो?’

लेकिन नंदमाला ने कुछ जवाब नहीं दिया और अपना मुंह घूमा लिया।

‘तुम सुबह की बात को लेकर रो रही हो? अरे मैंने तो गुस्से में कह दिया था। तुम तो मुझे जानती हो, मैं तनाव में होता हूँ तो कुछ ज्यादा ही बोल जाता हूँ’

उसने फिर से कुछ नहीं कहा।

‘अच्छा बाबा मुझे माफ कर दो’ उसने दोनों हाथों से अपने कान पकड़ कर माफी मांगते हुए कहा।

‘पहले ग़ुस्से से भला बुरा कह दो, फिर माफी मांग लो’ नंदमाला वहाँ से उठ गई और रुंधी आवाज में बड़बड़ाते हुए रसोई की ओर जाने लगी।

‘अब माफ़ भी कर दो’ जयंतीलाल ने उसका हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहा ‘तुम तो मेरी हालत जानती हो। नया माहौल, नया काम। इस वजह से मैं थोड़ा परेशान था’

‘लेकिन क्या आप मेरी हालत जानते हो?’ उसने रुंधी आवज में पूछा और अलमारी की ओर गई, जिसे उसे खोल कर दिखते हुए बोली ‘यह देखिए, मेरे पास पहनने के लिए दो ही साड़ियाँ है। इन बारिश के दिनों में कपड़े सूखते नहीं है। ऐसे वक्त में क्या गीले कपड़े पहनूँ? क्या आपको मेरी चिंता है?’ उसका बोलते वक्त गला भर आया ‘‘मैं कौन सी महंगी साड़ी मांग रही हूँ। मुझे सिर्फ एक साधारण सी ही साड़ी चाहिए थी। मैं आपसे कोई चीज नहीं मांगूँगी तो किस से मांगूँगी? कौन है यहाँ मेरा, आपके अलावा?’ और फिर वह रोने लगी।

जयंतीलाल उसके पास गया और उसे कंधे से पकड़ कर बिस्तर पर बिठाया और उसके पैरों के पास बैठ कर, उसके आँसू पोंछते हुए कहा ‘मुझे माफ कर दो नंदमाला। मुझ से गलती हो गई। यहाँ आने के बाद से मैं अपने कामों में ही उलझ गया। मैं तुम्हारी ओर ध्यान ही नहीं दे पाया’

‘आप कभी नहीं देते है’ उसने सिसकियाँ लेते हुए कहा।

‘अच्छा? सच में ऐसा है?’ जयंतीलाल ने कहते हुए, अपने टिफिन की थैली खोली और उसमें से एक नई खरीदी हुई साड़ी, नंदमाला के हाथों में रखते हुए कहा ‘लेकिन मुझे तो ऐसा नहीं लगता’

नंदमाला उसे अवाक होकर देखने लगी। उसे यकीन नहीं हो रहा था के जयंतीलाल सच में उसके लिए साड़ी लेकर आया था। और वह कोई साधारण सी साड़ी नहीं थी। वह एक अच्छी, महंगी वाली साड़ी थी।

‘अगर साड़ी लेकर ही आनी थी तो सुबह डांटा क्यों?’

‘घर से निकलने के बाद मुझे मेरी गलती का एहसास हो गया था। नई अंजान जगह आने से मैं जितना परेशान हूँ, उतना तुम भी हो, यह मैं भूल गया था। और इन कामों के चक्कर में मैं यह भी भूल गया था के तुम्हारी भी कुछ जरूरतें है। मुझे माफ कर दो, नंदमाला। और मैं वादा करता हूँ के आगे से मैं तुम्हारा पूरा खयाल रखूँगा’ और फिर वह नंदमाला से लिपट गया।


वही, आज नानों के पास कई अच्छी साड़ियाँ होने के बावजूद वह, पुरानी, फटी हुई साड़ी निकाल लाई थी।

जयंतीलाल ने, उसकी निकाली साड़ी को, फिर से अंदर रख दिया और एक अच्छी वाली साड़ी निकाली।

‘इससे पहनना आज’

‘लेकिन यह खराब हो जाएगी’ उसने मासूमियत से कहा।

‘कोई बात नहीं, यह तुम्हारी साड़ी है। तुम नहीं पहनेगी तो कौन पहनेगा इसे?’

उसने हाँ में सर हिलाया, लेकिन अभी भी वह इस नई साड़ी को देख कर झिझक रही थी।

‘क्या हुआ?’

‘मैं पुरानी साड़ी ही पहनूँगी’

‘क्यों?’

‘अगर साड़ी खराब हो गई तो तुम मुझे डाँटोगे’

‘नहीं डांटूगा’ और जयंतीलाल के आश्वासन के बाद वह मान गई।

फिर उसने, नानों के लिए गरम पानी, घर के बाहर बने मिट्टी के कच्चे बाथरूम में रख दिया और नानों वहाँ नहाने चली गई।

लेकिन वह किसी बच्चे की तरह, हड़बड़ाहट में नहा रही थी। वह सिर्फ भरभराकर, अपने शरीर पर, पानी बहा रही थी। उसके उलझे हुए बाल, अभी भी सूखे, उलझे और गंदे ही थे और हाथों पैरों पर लगी मिट्टी भी नहीं निकल रही थी।

तब जयंतीलाल, खुद उसके पास गया और कहा ‘इस तरह नहाने से क्या फायदा? ला मैं तेरे सिर पर पानी डालता हूँ’

नानों बच्चे की तरह, आँखें बंद कर, स्थिर बैठ गई। और जयंतीलाल, बाल्टी से लोटा उठा कर उसके सिर पर उड़ेलने लगा। अपने हाथों से, उसके बालों को रगड़ कर धोने लगा।

तभी उसका ध्यान इस ओर गया के पीछे की, घर की छत से कुछ बच्चे, नानों को नहाते हुए, छीप-छीप कर देख रहे थे और हँस रहे थे।

वह एक पुराने तरीके का बाथरूम था। जिसकी, बिना छत वाली दीवारें थी और दरवाज़े की जगह सिर्फ एक पर्दा लगाया हुआ था। और उसी खुली छत से वह लड़के नानों को देख रहे थे और जयंतीलाल के पलटते ही छीप जाते थे।

वह लड़के जान चुके थे के जयंतीलाल को उनकी मौजूदगी का एहसास हो गया है। लेकिन उनके अंदर ना ही इस बात का डर था और ना ही शर्म।

जयंतीलाल भी उन्हें, हर बार की तरह नज़रअंदाज़ करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता था। क्या कहता उन्हें? किस से शिकायत करता उनकी? उनके माँ बाप से? उनके माँ बाप ने अगर उन्हें अच्छे संस्कार दिए होते तो उनके मन में डर और शर्म दोनों ही होती और वह ऐसा हरकत, करते ही नहीं।

‘अरे बच्चे है वह। शरारत तो करते ही है। और वैसे भी नानों तो पागल है। दिन भर तो फटी साड़ी में इधर से उधर घूमती रहती है। उसे कहा इतना समझ में आता है?’ ऐसे जवाब उसे उन लोगों से मिलते थे जो समाज की दृष्टि से पागल नहीं थे।

और शायद वह सही थे। इसमें नानों की ही ग़लती थी। क्योंकि आजकल के समाज में खुद की इज़्ज़त बचाना सिखाया जाता है, किसी की इज़्ज़त करना नहीं। और वैसे भी लोगों से उम्मीद लगाना ही मूर्खता होती। आखिर किसे फ़िक्र होगी किसी पागल और भिखारी की इज़्ज़त की।

जयंतीलाल, उन लड़कों को नज़रअंदाज़ करते हुए, नानों को नहलाने लगा। उसने अच्छे से, उसके बाल धोए और फिर उसे, तौलिया लपेट कर घर के अंदर ले गया जहाँ उसने, उसे साड़ी पहनाने में मदद की।

नानों, उस वक्त भी, उसके सामने भाव विरहित खड़ी थी। अब ना ही उसमें किसी तरह की लज्जा की भावना थी, ना ही पति प्रेम की, और ना ही किसी तरह की खुशी की।

आने वाले कुछ दिनों में ठंड काफी ज्यादा बढ़ गई थी। लोग शाम को ही घर के दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद कर लेते थे। उस कड़ाके की ठंड में काम करना भी काफी मुश्किल हो गया था।

लेकिन उस ठंड में भी, नानों पूरे मुहल्ले में देर रात तक घूमा करती थी। और हाल फिलहाल वह सुधाम भाई के यहाँ, ज्यादा जाती थी क्योंकि उनके यहाँ, उनकी लड़की को बेटा हुआ था।

नानों को छोटे बच्चों काफी पसंद थे। उन्हें देखना, उनके साथ खेलना उसे अच्छा लगता था। और इसलिए वह सुबह-सुबह ही उनके घर चली जाती थी। उन बच्चों को देखती, उनके साथ खेलती।

गली में जिनके यहाँ बच्चे होते थे, नानों वही मिलती थी। और जयंतीलाल को भी यह बात मालूम थी इसलिए वह अक्सर उसे ढूँढने वही जाता था।

उस शाम को भी जयंतीलाल, उसे ढूंढने के लिए सुधाम भाई के घर की ओर जाने लगा।

मोहल्ले के, सिर्फ कुछ ही लोग ऐसे थे जो नानों को अपने घर पर आने देते थे। हालांकि उसकी दिमागी कमजोरी की वजह से, कोई भी उसे अकेला नहीं छोड़ता था। कोई न कोई, हमेशा उसके साथ बैठता ही रहता था। और खासकर तब, जब छोटे बच्चे उसके आसपास हो। क्योंकि, एक बार वह, मास्टरजी के पोते को, उसके घर से उठा कर, अपने घर ले आयी थी। हालांकि उसने आज तक किसी भी बच्चे को चोट तो नहीं पहुँचाई थी। और वह किसी बच्चे को चोट पहुँचती भी कैसे? वह तो बच्चों से सबसे ज्यादा प्यार करती थी।


जब नंदमाला को पहला बच्चा होने वाला था, तब वह दो महीने के लिए अपने माता पिता के घर चली गई थी। जयंतीलाल, उन दो महीनों में कई बार, छुट्टियाँ निकाल कर उसके पास जाता था। और उसे यह एहसास दिलाता था के, जिंदगी के इस नए दौर में भी वह उसके साथ है।

बच्चे के पैदा होने के वक्त भी, जयंतीलाल, नंदमाला के साथ ही था। और वह, उन दोनों की जिंदगी का बड़ा महत्वपूर्ण और भावुक पल था।

जयंतीलाल ने पहले बेटे के, जन्म के वक्त, नंदमाला का जितना खयाल रखा था, उतना ही उसने दूसरे बच्चे के वक्त भी रखा। अपने पति होने के फर्ज को, वह शुरुआत से ही अच्छे से निभाते आ रहा था।

हालांकि एक पुरुष को, पति और पिता की भूमिका, एक साथ निभाने से ज्यादा, एक स्त्री को, पत्नी और माँ की भूमिका, एक साथ निभाना ज्यादा मुश्किल होता है। और वह पल स्त्रियों की जिंदगी का सबसे चुनौतियों से भर हुआ होता है। और जयंतीलाल इस बात को अच्छे से समझता था। इसलिए वह, नंदमाला की हर मुश्किल में, उसके साथ दृढ़तापूर्वक खड़ा रहा। और इसीलिए नंदमाला को, अपनी माँ की भूमिका में ज्यादा मुश्किलें नहीं आयी।

नंदमाला ने बड़े बेटे का नाम संतोष और छोटे बेटे का नाम उपेन्द्र रखा। उसे अपने दोनों ही बेटे, हद से ज्यादा प्यारे थे। उसने, उन्हें बड़े लाड़ प्यार से पाला और साथ ही उन्हें अच्छे संस्कार भी दिए। वह एक अच्छी पत्नी के साथ एक अच्छी माँ भी साबित हुई। उन दोनों की संतान, एक अच्छी परवरिश में बड़े हो रहे थे।

कुछ सालों बाद नंदमाला की माँ और उसके बाद उसके पिता की बुढ़ापे से मौत हो गई। उसके बाद, अपने नज़दीकी रिश्तेदार ज्यादा नहीं होने से उसका, उसके मायके से नाता भी टूट गया। अब उसकी पूरी दुनिया, उसके पति और बेटे में ही सिमट गई। और वह हमेशा अपने बच्चों में ही व्यस्त रहने लगी।

ऐसी ही उनकी, खुशहाल शादी को, तीस साल गुजर गए। इन तीस सालों में बहुत कुछ चीजें बदल गई। जयंतीलाल के माता पिता भी इस दुनिया को छोड़ चुके थे। संतोष एक बड़ी कंपनी में अच्छे औंधे पर लग गया था और उसकी शादी कविता नाम की एक सुशील लड़की से हो चुकी थी।

कविता भी नंदमाला की तरह ही सुलझी हुई लड़की थी। और थोड़े ही समय में, वह इस परिवार में अच्छे से घुल मिल गई जैसे कभी नंदमाला हुई थी।

उपेन्द्र अब भी पढ़ रहा था। वह पढ़ाई में अच्छा था इसलिए जयंतीलाल ने उसकी पढ़ाई में कोई कमी नहीं होने दी। वह उसकी पढ़ाई का पूरा खर्चा उठा रहा था। नंदमाला और उसकी इच्छा थी के वह एक ऊँचे ओहदे तक की सरकारी नौकरी करें। और इसीलिए उसकी अच्छी पढ़ाई के लिए उसने कर्जा भी निकाला हुआ था।

वही संतोष ने, नंदमाला के नाम, मंदिर के बाजू में, एक छोटा प्लॉट खरीद लिया था, जहाँ उसने भी कर्जा लेकर, घर बांधने का काम शुरू कर दिया था।

नंदमाला ने, वादे के मुताबिक, अपने दोनों लड़कों को अच्छे संस्कार दिए। दोनों बेटे, वैसे ही थे जैसे हर माँ-बाप, अपने बेटों को देखना चाहते है।

अब, वह नंदमाला का एक खुशनुमा परिवार था और उसमें खुशी तब और बढ़ गई, जब संतोष को लड़का हुआ।

अब नंदमाला दादी बन गई थी। और जिस तरह उसने, अपने दोनों बेटों को अच्छी परवरिश में बड़ा किया, उसी परवरिश को छाव में यह अगली पीढ़ी पल रही थी।

जैसी नंदमाला, संतोष के बेटे को अपनी गोद में खिलाती थी.....


आज भी वह, वैसे ही, छोटे बच्चों को, आपको गोदी में उठाने की चाहत रखती थी, उसे गोदी में खिलाने की चाहत रखती थी । और इसीलिए, आज कल वह सुधाम भाई के यहाँ जाने लगी थी।

लेकिन, आपका अच्छा होना दुनिया को अच्छा नहीं बनाता। जिस औरत से किसी को परेशानी नहीं होती थी, उसी औरत को पूरी दुनिया से परेशानी होती थी।

जब जयंतीलाल, नानों को ढूँढ़ता हुआ, एक गली में पहुँचा, तो उसने देखा के, वहाँ नानों, डरी सहमी हुई खड़ी थी और कुछ छोटे लड़के, उस पर कुत्ता छोड़ कर, परेशान कर रहे थे। बार-बार, उस कुत्ते को, उसके पास ले जाते थे। जिससे कुत्ता जोरों से भोंकता और नानों डर जाती। और यह देख उन लड़कों को काफी मजा आ रहा था।

आसपास कुछ बड़े लोग भी थे, जिन्हें इस बात इस बात से कोई लेना देना नहीं था के, वह लड़के एक बेबस औरत को परेशान कर रहे थे। उन्हें कोई भी रोक या टोक नहीं रहा था।

जयंतीलाल को, उन लड़कों की हरकत देख, काफी गुस्सा आया। उसने पास में पड़ी एक लकड़ी उठाई और ग़ुस्से से उन लड़कों की और दौड़ा।

‘अरे, दूसरा पागल भी आया.... भाग....भाग....’ जोर-जोर कर हँसते हुए लड़के दूसरी गली में भाग गए।

जयंतीलाल का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया था। वह उन लड़कों को, बेरहमी से पीटना चाहता था, लेकिन उसकी कमजोरी का उसे तभी एहसास हो गया। और वह लड़खड़ाकर, सड़क पर गिर पड़ा।

वहाँ खड़े लोग अभी भी वैसे ही खड़े, तमाशा देख रहे थे। ना ही कोई उसकी मदद के लिए आगे आया और ना ही किसी ने ऐसा दिखाने की झूठी कोशिश की।

गिरने के बाद, उसका घुटना छील गया, और वहाँ से खून निकलने लगा। हाथ की कोहनी पर भी, बड़ी सी खरोंच उभर आयी।

वह, थरथराता हुआ खड़ा हुआ और अपने कपड़े झटकने लगा। तभी डरी, सहमी हुई नानों, वहाँ आयी और उसके ज़ख्म को, सहानुभूति से देखने लगी।

‘तुम ठीक तो हो’ जयंतीलाल ने अपने ज़ख्म को नज़रअंदाज़ करते हुए पूछा।

डर के मारे कंपकपाते हुई नानों ने हाँ में सिर हिलाया।

‘चल, घर चल’ और वह उसे घर ले आया।

पसीने से भरा अपना मुंह और धूल से सने हाथ पैर धोने के बाद, वह चारपाई पर बैठ कर, उन जख्मों को तसल्ली से देखने लगा। घाव ज्यादा गहरे तो नहीं थे लेकिन उसकी उम्र के हिसाब से अब वह बुरे थे। उस भाग दौड़ और चोट लगाने की वजह से उसका वह पैर अभी भी थरथरा रहा था।

तभी नानों उसके सामने आयी।

‘मैं तुम्हें हमेशा कहता हूँ के घर पर ही रहा कर, लेकिन तुम सुनती क्यों नहीं हो?’ जयंतीलाल का गुस्सा, नानों पर फुट पड़ा ‘हमेशा बाहर के लोग, तेरा मजाक उड़ाते है, तुझे चोट पहुँचाते है, फिर भी तू है के बार-बार बाहर ही जाती है। अक्कल-वक्कल है क्या नहीं तुझ में। आज अगर वह कुत्ता काट लेता तो?’

डरी हुई नानों अब दुःखी हो गई थी। उसकी आँखों में पानी जमा हो गया। और फिर वह, घर के अंदर चली गई।

जयंतीलाल, बाहर ही, ग़ुस्से से बैठा रहा और अपने जख्मों को देखता रहा। फिर उसने, बारीक मिट्टी उठाई और उसे अपने जख्मों पर डाल दिया, ताकि वह जल्द सुख जाए। वह अपने जख्मों पर पैसे खर्च नहीं करना चाहता था।

कुछ देर तो वह अकेला ही बाहर बैठा रहा। लेकिन काफी देर तक, जब नानों बाहर नहीं आयी तो वह उसे देखने के लिए अंदर गया।

नानों ज़मीन पर बैठी हुई थी और उसके आसपास कई सारी तस्वीरें पड़ी हुई थी। जिसमें उपेन्द्र, संतोष, कविता और उसके पोते की तस्वीर थी। उसने, उन तस्वीरों को जमीन पर बिखेर दिया था, जैसे आज उसका संसार बिखर गया है। और वह स्थिर होकर दुःखी मन से उन तस्वीरों को देख रही थी। उसके शरीर में कोई हालचाल नहीं थी सिवाय उसकी आँखों से बहते आंसूओं के।

जयंतीलाल उसके बाजू में बैठ गया। नानों ने गीली आँखों से उसे, इस तरह देखा जैसे नंदमाला उसे देख रही हो।

जयंतीलाल को देख कर उसके आँसू बढ़ गए और वह उसे लिपट गई और उसी तरह रोने लगी जैसे उस दिन वह रो रही थी।


घर की चौखट पर सफेद कपड़ों में लिपटा उपेन्द्र का शव पड़ा हुआ था। नंदमाला चीख-चीख कर रो रही थी और जयंतीलाल अपनी सुर्ख लाल आँखों के साथ, नंदमाला को गले लगा कर सांत्वना दे रहा था। घर के आसपास काफी सारी भीड़ जमा हो गई थी। कविता भी नंदमाला के नज़दीक बैठी रो रही थी और संतोष पुलिस से बात कर रहा था।

‘उसने कॉलेज की छत से कूद कर अपनी जान दी है’ पुलिस ने पूछताछ करते हुए कहा ‘उसने शायद यह किसी लड़की की वजह से किया होगा? क्या तुम्हें इस बारे में कुछ पता है?’

‘नहीं सर। मुझे कुछ नहीं पता। और उसने भी कभी कुछ कहा नहीं। वह जब भी घर पर रहता था तो हमेशा खुश ही दिखाई देता था। मुझे नहीं लगता के वह किसी लड़की की वजह से तनाव में था’

‘पैसों का कोई लेन देन?’

‘नहीं सर। उसे किस तरह का कोई व्यसन या लत नहीं थी। और उसने आज से पहले भी कभी पैसों के बारे में बात नहीं की। वह तो हमेशा ही अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहता था’

‘ठीक है। वैसे हमारी जांच चालू है, लेकिन फिर भी तुम्हें कुछ भी पता चले, तो हमें जरूर बताना और बुलाने पर, तुम्हें पुलिस स्टेशन में भी आना होगा’

वहाँ मौजूद लोगों में से किसी को भी इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था के, एक पढ़ने लिखने वाले होशियार लड़के ने, इतनी कम उम्र में खुदकुशी कर ली थी।

जयंतीलाल को तो यह सब एक बुरे सपने की तरह लग रहा था जो टूटता टूट नहीं रहा था। वह ना ही कुछ बोलने की हालत में था और ना ही कुछ समझने की। फिर भी वह नंदमाला को संभालने की कोशिश कर रहा था और सांत्वना देने की कोशिश कर रहा था।

नंदमाला, जोर-जोर से सिर पटकते हुए रो रही थी। उसका गला उसके कलेजे की तरह फटा जा रहा था। उसे भी अपने बेटे की मौत पर यकीन नहीं हो रहा था। और भला, कोई माँ, अपने बेटे की मौत पर यकीन भी कैसे करें?

उपेन्द्र की मौत, नंदमाला के लिए पहला सदमा था, जिससे उभरने में उसे कुछ महीने लग गए। हालांकि कुछ जख्म, गुजरते समय के साथ भी नहीं भरते है, लेकिन आदमी, उस वक्त तक, उसके साथ जीना सिख जाता है। नंदमाला के साथ भी वैसा ही हुआ। उपेन्द्र की मौत का दुःख, संतोष के बेटे की वजह से कम होने लगा था। वह जितनी देर तक उस बच्चे के साथ रहती, उतनी ही वह उपेन्द्र की यादों से भी दूर रहती। लेकिन माँ तो माँ ही होती है। रह-रह कर उसे उपेन्द्र की याद आती थी और फिर से दुःखी और उदास हो जाती थी।

जयंतीलाल से भी, नंदमाला की यह हालत देखी नहीं जाती थी और इसीलिए वह अक्सर इस बात का प्रयास करता के उपेन्द्र की याद उसे न आए।

आगे के पाँच साल, धीरे-धीरे गुजरने लगे। नंदमाला काफी हद तक उभर चुकी थी। हालांकि उस दौर में संतोष की पुरानी नौकरी चली गई थी और नए काम में काफी कम पैसे मिल रहे थे। पैसों की तंगी के कारण नए घर का काम आधा ही हुआ था और उसके लिए लिया हुआ कर्जा भी, ब्याज की वजह से बढ़ रहा था। उन दिनों आर्थिक तंगी के चलते वह काफी तनाव में रहने लगा था। जिस वजह से, उसे दारू की लत लग गई।

वह अक्सर, रात को दारू पी कर, घर आने लगा था। दिन में भी वह ज्यादा होश में नहीं रहता था और उसी के चक्कर में उसकी, नई वाली नौकरी भी चली गई।

घर पर आए दिन उसमें और उसकी बीवी में झगड़ा होने लगा।

उसकी नौकरी जाने की वजह से घर के पूरे खर्चे की जिम्मेदारी जयंतीलाल पर ही आ गई थी। और उसकी तनख्वाह इतनी नहीं थी के वह दो परिवार पाल पता। तब उन्होंने अपना पुराना घर बेच कर सारा कर्जा उतार दिया और इस नए, आधे-अधूरे बने हुए घर में रहने आ गए।

लेकिन इससे भी संतोष की दारू नहीं छूटी। हालांकि कई, लोग संतोष की इस बात पर समझाने लगे। और वह इन बातों को समझता था। लेकिन न जाने क्यों, शाम होते ही वह दारू के अधीन हो जाता था और सारे लोगों की बातें भूल जाता था। अब तो झगड़े हर दिन होने लगे थे।

और ऐसे ही एक दिन, उन दोनों, पति पत्नी में काफी ज्यादा झगड़ा हो रहा था। नंदमाला की गोदी में संतोष का छोटा लड़का था जो उस झगड़े को देख रो रहा था। और नंदमाला उसे संभालते हुए संतोष और कविता के झगड़े को मिटा रही थी। लेकिन यह झगड़ा बढ़ते-बढ़ते और ज्यादा बढ़ गया था। संतोष के गुस्से से चिल्लाने की आवाज़ नंदमाला की आवाज़ को भी दबा रही थी।

जयंतीलाल काम से थका हारा घर की ओर लौट रहा था। और उसके घर के झगड़े की आवाज़ उसे चौराहे तक आ रही थी।

तभी उसे एक जोर से चीख सुनाई दी। वह चीख नंदमाला की थी। वह इतनी जोरों से चीख रही थी के चौराहे तक के घरों के लोग, उसकी चीख सुनकर, बाहर आ गए थे।

जयंतीलाल का दिल जोरों से धडक उठा और वह घर की ओर दौड़ पड़ा।

और, जैसे ही उसने घर के अंदर देखा, उसकी रूह कांप उठी।

कविता जमीन पर गिरी हुई थी और उसके कान से खून निकल रहा था। जमीन पर, लोहे की एक, सरिया पड़ी हुई थी, जिसके बाजू में संतोष, काँपते हुए, होश उड़े खड़ा था। और वही डर के मारे काँपती नंदमाला, एक हाथ से पोते की आँखें बंद कर, दूसरे हाथ से कविता को उठाने की कोशिश कर रही थी।

जयंतीलाल झट से कविता के पास गया। वहाँ की पूरी जमीन खून से भर गई थी। उसकी कान और नाक से काफी ज्यादा खून बह रहा था।

जयंतीलाल ने मदद के लिए ऊपर देखा। संतोष वहाँ से भाग गया था और दरवाज़े के पास, अब तक कई सारे लोग जमा हो गए थे।

नंदमाला चिल्ला-चिल्ला कर रोते हुए, मदद मांग रही थी। लेकिन, खून से लथपथ कविता को देख, कोई आगे नहीं आ रहा था।

जयंतीलाल, खुद कविता को खड़ा करने की, नाकाम कोशिश करने लगा। लेकिन कविता के शरीर में, अब कोई हलचल नहीं हो रही थी।

तभी भीड़ में से कोई गली के, एक डॉक्टर को ले आया। और डॉक्टर ने जांच कर बताया के वह मर चुकी है।

थोड़ी ही देर में पुलिस भी आ गई। संतोष वहाँ से भाग कर, सीधा पुलिस स्टेशन चला गया था और उसने अपना गुनाह भी कबूल कर लिया था। फिर भी पुलिस ने जयंतीलाल को और नंदमाला को गिरफ्तार कर लिया।

नंदमाला अपने पोते को गले लगा कर पुलिस स्टेशन में एक कमरे में, लगातार रो रही थी। और तब, वह ज्यादा रोने लगी थी जब, उसके पोते को पुलिस ने, उससे छिन कर कविता के माता पिता को सौंप दिया था।

वह पूरी रात रोती रही, क्योंकि एक ही झटके में उसका पूरा परिवार उजड़ गया था। आँखों में देखे सपने, एक झटके में चूर-चूर हो गए थे।

वह रोते हुए उम्मीद कर रही थी के, यह सब उसका एक बुरा सपना हो और वह एक झटके के साथ, अपने बुरे सपने से बाहर निकल आए। और वह पगली इसी उम्मीद में रोती रही।

अगली शाम को, पुलिस ने जयंतीलाल और नंदमाला को छोड़ दिया।

जब वह दोनों घर लौटे, तब घर में, कविता का सूखा हुआ खून, पुलिस द्वारा खींची गई रेखाएं वैसे के वैसे ही थी। और यह देख नंदमाला फिर से रोने लगी।

जयंतीलाल उसे बाजू के मंदिर में ले गया और वही बैठा कर उसे अपनी बाँहों में भर कर सांत्वना देने लगा।

वह, बार-बार अपने बिखरे हुए परिवार के बारे में ही बातें कर रही थी। उस दिन की घटना को याद कर रो रही थी। जयंतीलाल सिर्फ उसे अपनी बाँहों में भरे हुए था और वह उसे चुप कराने की नाकाम कोशिश कर रहा था। वह ज्यादा कुछ बोल भी नहीं पा रहा था। रोना तो उसे भी आ रहा था। परिवार तो उसका भी बिखरा था। लेकिन अगर उसके आँसू बहते तो शायद वह अपने आप को रोक न पाता और तब नंदमाला को कौन संभालता?

उन दोनों ने पूरी रात वैसे ही मंदिर में, एक दूसरे को लिपट कर रोते हुए निकाली।

अगले दिन सुबह तक नंदमाला की आँखें सूज गई थी, उसका गला सुख गया था, उसका शरीर बुखार की वजह से गर्म हो गया था और वह किसी बेजान सी बैठी थी।

जयंतीलाल ने पहले उसे पानी पिलाया और बाहर ही, पेड़ की एक छाँव में चारपाई डाल दी और उसे सुला दिया।

उसके बाद, उसने सबसे पहले डॉक्टर को बुलाया और बाद में घर की साफ सफाई की और नंदमाला के लिए खाना बनाया।

लेकिन शाम तक नंदमाला का बुखार कम नहीं हुआ और ना ही अगले कुछ दिनों तक उसका बुखार कम हुआ।

वह कई बार रात को उठ कर अपने बच्चों के बारे में पूछती। उपेन्द्र के बारे में पूछती, संतोष के बारे में पूछती, कल्पना के बारे में पूछती और अपने पोते के बारे में पूछती।

वह बीच-बीच में भूल जाती थी के, उपेन्द्र मर गया है और संतोष जेल में है। वह बार-बार अपनी उस याद में चली जाती थी जब उपेन्द्र जिंदा था। और जब, कुछ समय बाद, उसे सब याद आता था तब वह फुट-फुट कर रोती, हर रोज, हर वक्त और हर समय।

और हर एक गुजरते समय के साथ उसकी हालत और ज्यादा खराब होती गई। और इन दस-बारह साल में वह नंदमाला से नानों बन गई।


 और आज तक उसकी हालत वैसे ही रही। उसमें कोई सुधार नहीं हुआ। ना ही उसकी दिमागी हालत में और ना ही उसकी भावनाओं की हालत में।

सालों से एक दिन भी ऐसा नहीं बीता था जिस दिन नानों पुरानी घटी घटनाओं को याद कर रोई न हो। वह घटनाएं उसके दिल में किसी पुराने ज़ख्म की तरह उभर चुके थे, जो जयंतीलाल अब उसे इस हालत में नहीं देख सकता था। वह उसे घुट-घुट कर, लोगों की अवहेलना को झेलते हुए नहीं देख सकता था। लेकिन वह उसे, अकेले भी तो नहीं छोड़ सकता था। उसने, उसकी आखिरी साँस तक साथ निभाने का वादा जो किया था।

लेकिन नानों की प्रताड़ना अब उससे देखी नहीं जाती थी। लोग उसका मजाक उड़ाते थे, उस पर हँसते थे जिसे जयंतीलाल दिल पर पत्थर रख सह लेता था। लेकिन बात यही पर नहीं रुकती थी। कई बार कुछ लोग उसे चोट पहुँचाते। उस पर बुरी नजर रखते थे।

आज नानों को ऐसे लोगों से बचाने के लिए वह है, लेकिन कल?

पिछले पंद्रह सालों से नानों एक बेमतलब की, परेशानियों से घिरी हुई जिंदगी जी रही थी। उसकी जिंदगी घुटन भरी थी। ना ही उसमें कोई सुख था और ना ही चैन। था तो सिर्फ, दुःख और दर्द, जिसकी असल में वह पत्र भी नहीं थी।

जयंतीलाल भी अब उसकी इस दशा को देख टूट चुका था। अब उसे नानों के लिए एक कठिन फैसला लेना था।

अगली सुबह वह अपने मालिक के पास गया। उसने उससे कुछ पैसे उधार लिए और आज के दिन की छुट्टी ली। और घर आते वक्त राशन भी खरीद लिया।

नानों अभी भी घर पर ही थी। कल की घटना की वजह से, उसकी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी।

‘तुमने कई दिनों से अच्छा खाना नहीं खाया है न? आज मैं तुम्हारे लिए बनाऊँगा। लेकिन आज तुम कहीं जाना मत’ जयंतीलाल के कहने पर उसने हाँ में सिर हिलाया।

जयंतीलाल ने उसके लिए, अलमारी में से नई साड़ी निकाली। और उसे पहनाने के बाद, उसके चेहरे और बालों को सजाया। कई सालों बाद, आज उसके माथे पर बिंदी चमक रही थी, उसके चेहरे पर तेज था और उसकी आँखों में खूबसूरती। आज, सालों बाद उसने नंदमाला को देखा था जिसे देख जयंतीलाल की सुखी आँखों में आँसू भर आए थे। उसका दिल, हर एक पल के साथ पिघल रहा था और उसका मन, बैठा जा रहा था।

उसके बाद उसने खाना बनाया, जिसमें दाल चावल, खीर, पूरी और सब्जी बनाई।

दोपहर के बारह बज रहे थे। बाहर चमकदार धूप खीली थी जिससे हवा में थोड़ी गरमाहट थी। दोपहर की वजह से रास्ते भी सुनसान और खाली थे और खड़खड़ाकर बजते पावर लूम के अलावा कोई शोर नहीं था।

खाना बनने के बाद जयंतीलाल ने नंदमाला को अपने हाथों से खिलाया और उसके बाद वह घर में ही, चारपाई डाल कर लेट गए।

नंदमाला फिर से वैसे ही उसकी बाजू पर अपना सिर रख कर लेटी हुई छत को देख रही थी। जयंतीलाल ने भी अपने दूसरे हाथ से, उसे गले लगाए हुए था।

कुछ देर वह दोनों वैसे ही खामोशी से, एक दूसरे से लिपट कर लेटे हुए थे। जैसे कभी नंदमाला उससे लिपट कर सोती थी।

लेकिन अचानक नंदमाला की आँखों में दर्द दिखाई देना शुरू हुआ। उसका दम घुट रहा था। उसकी सांसों की आवाज़, कमरे में गूंजने लगी थी। उसके हाथ पैर कंपकपाने लगे थे। और वह उठ कर बैठना चाहती थी लेकिन जयंतीलाल उसे जकड़े हुए था।

तड़पती नंदमाला को देख कर, जयंतीलाल भी तड़प रहा था। नंदमाला की आखिरी साँसे उसके दिल को किसी आरी की तरह चीर रहे थे। उसकी आँखें, दुःख से जल रही थी, उसका गला भर आया था। उसकी सुखी आँखें, दर्द के सागर जैसी हो गई थी। और उसका शरीर कंपकंपा रहा था।

यह दर्द, उसके लिए असहनीय था। उसके लिए, यह दर्द सहने से अच्छा, जहर खा कर मर जाना आसान होता। नंदमाला को मरता देख, वह भी धीरे-धीरे मर रहा था। लेकिन वह मजबूर था। और इसी मजबूरी की वजह से उसने नंदमाला को कस कर गले लगा लिया और अपने कलेजे से निकलती दर्द की चीख को दबाते हुए रोने लगा।

नंदमाला दर्द से कराहते हुए, सवालिया निगाहों से, जयंतीलाल की आँखों में देख रही थी। और मानो, जयंतीलाल की आँखों में उसके सारे जवाब थे। वह उसकी मजबूरी बयां कर रही थी। उसके लिए, अपनी नंदमाला को मरता देख आसान नहीं था। यह वह दर्द था जिससे, उसकी सूखी आँखें भी भर आयी थी। दर्द इतना था के वह चीखना चाहता था, चिल्लाना चाहता था, वह किसी लावा की तरह फुट पड़ना चाहता था। लेकिन एक सख़्त जमीन की तरह वह उसे दबाए हुए था। अपने दिल को किसी पत्थर की तरह बनाए हुआ था।

वह अपने लिए निर्णय से बदलना नहीं चाहता था। वह फिर से नंदमाला को नानों की जिंदगी नहीं देना चाहता था। वह फिर से उसे दुःख भरी जिंदगी नहीं देना चाहता था।

वह तो चाहता था के उसकी नंदमाला अब आज़ाद हो जाए। अपने दुखों से, अपने दर्द से, लोगों की अहवेलनों से, लोगों के तिरस्कार से।

लेकिन अचानक उसका पत्थर सा दिखने वाला दिल, किसी बर्फ की तरह तेजी से पिघलने लगा। नंदमाला की वह सवालिया आँखें उसे चुभने लगी। उसके आँसू उसे रोकने लगे, उसका दर्द, उसे अपना निर्णय बदलने को मजबूर करने लगा।

हर एक सांस के साथ उसकी नंदमाला, उससे दूर होती जा रही थी। जैसे उसकी जिंदगी, उससे छूटी जा रही थी।

अब वह नंदमाला को नहीं खोना चाहता था और ना ही नानों को। वह उसे मरते हुए कैसे देख सकता था जिसके लिए वह खुद जी रहा हो।

अपने पत्थर जैसे दिल की बदौलत, उसका निर्णय बदल गया। नंदमाला के प्रति उसके प्यार ने उसे मजबूर किया। वह रोता, चीखता हुआ, उठ खड़ा हुआ। उसने जल्दबाजी में दरवाज़ा खोला और नंदमाला को, अपने दोनों हाथों से उठा कर, अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा।

दोपहर की उस सुनसान सड़क पर, वह बूढ़ा जयंतीलाल, अपने जख्मी, नंगे पैर, अपनी नंदमाला को बाहों में उठा कर, उसकी जिंदगी के लिए दौड़ रहा था।

उसे किसी बात की फिक्र नहीं थी, किसी बात की चिंता नहीं थी या किसी बात का विचार नहीं था सिवाय नंदमाला को बचाने का।

नंदमाला के हित में लिए उसके कठोर फ़ैसले की, अब उसे परवाह नहीं थी। वह तो अब सिर्फ उसे बचाना चाहता था। अपने प्यार में शायद वह स्वार्थी हो गया था क्योंकि वह उसके बिना अधूरा था, उसके बिना वह प्यासा था, उसके बिना वह भूखा था, उसके बिना वह कुछ नहीं था।

नंदमाला को बचाने के लिए, अपनी जान हथेली पर लेकर, उस पथरीली रह पर वह नंगे पैर दौड़ पड़ा। और नंदमाला, उसके इस निर्णय पर भी सावलिया निगाहों से देख रही थी। उसकी गीली आँखों में अब दर्द नहीं था, और ना ही डर था। था तो सिर्फ उतना ही प्यार जितना जयंतीलाल की गीली आँखों में था।



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