मुश्किल है बहुत मुश्किल !

मुश्किल है बहुत मुश्किल !

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ढेर सारे महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हुए सुशील चतुर्वेदी का अब रिटायरमेंट आ गया था। संयोग से अब केंद्र की सरकार भी बदल चुकी थी और अब सुशील को उन सारे सम्बन्धों को कैश कराने का उचित समय भी आ गया था जब उन्होने अपनी नौकरी में इस पार्टी के नेताओं को बिना अपना असली चेहरा एक्सपोज़ किये मदद की थी।


हालांकि उनकी यह कारगुजारी अनेक अवसरों पर पकड़ी भी जाती रही लेकिन चीफ सेक्रेटरी भी तो अपने ही इलाके से थे सो उन्होंने आगे आकर उन्हें बचा लिया था। उधर सुशील की पत्नी किरन को सबसे ज्यादा यह बात सता रही थी कि उनको मिले नौकर चाकर सभी तो हट जायेंगे। घर का ढेर सारा काम कैसे निपटेगा? उनका टेंशन भी सुशील अच्छी तरह समझते थे। फेयरवेल की रात उन्होंने बहुत बैचैनी से काटी। जबकि किरन की दिनचर्या में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया था। डिनर करके बेड पर आते ही उसके नाक से घर्र-घों, घर्र-घों की अत्यंत अप्रिय कर्ण ध्वनि गूँजने लगी।


सुशील की रात करवट बदलते ही बीती। भोर में जब मस्जिद की अजान उठने लगी तो उन्हें झपकी आ गई। सोकर उठे तो आठ बज गए थे।


"अरे ! आज तो चीफ साहब से मिलने जाना है।" बुदबुदाते हुए सुशील उठे और तेज़ी से बाथरूम की ओए भागे। बाथरूम में मैडम घुसी पड़ी थीं। अक्सर ऐसा होता है जब सुशील को अपना बाथरूम इंगेज मिलता है और वे झल्ला उठते हैं। लेकिन उनकी इस झल्लाहट का उनकी मैडम पर कोई खास असर नहीं हुआ करता था और बावजूद उनका अपना अलग बाथरूम होने के वे उनका ही बाथरूम इस्तेमाल किया करती थी। और मैडम की इसी तुनकमिजाजीपन से ना तो उनका बेडरूम अलग हो पाया और ना ही बाथरूम ! देर ना करते हुए वे दूसरे बाथरूम में घुस लिए। फ्रेश हुए और डाइनिंग टेबुल पर आ जमे।


"मैडम! ओ मैडम! नाश्ता लगा दो प्लीज... मुझे नौ बजे चीफ साहब के घर पहुँचाना है", सुशील ने हडबडाहट में कहा।


नाश्ते को करते हुए वे सोचे जा रहे थे कि कैसे वे अपना प्रेजेंन्टेशन देंगे........ कैसे चीफ साहब को इम्प्रेस कर सकेंगे कि वे रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली ज़िम्मेदारी नौकरशाही की तरह नहीं बल्कि राजनेताओं की वफादारी की तरह निपटाएँगे ! वे .. वे ..


"काफी ठंढी हुई जा रही है हुजूर”, किरण की आवाज़ ने उनकी तन्द्रा भंग कर दी और वे जल्दी - जल्दी अपना नाश्ता निपटाने लगे।


ड्राइवर पोर्टिको में गाड़ी लगा चुका था। करीने से उसे बार बार साफ़ कर रहा था। उसके लिए भी साहब का री-इन्गेज़मेंट मायने रखता है। जाने अगला साहब कौन आये, कैसा आये। इनसे तो ताल मेल मिल गया है। आँख मूंद कर ओवर टाइम पर दस्तखत कर दिया करते हैं और गाहे- बेगाहे गाड़ी भी प्राइवेट इस्तेमाल करने की इज़ाज़त दे दिया करते हैं।


साहब आ चुके थे और गाड़ी अब चीफ साहब के आलीशान बंगले में प्रवेश कर चुकी थी।


"आइये - आइये सर ! " कहते हुए बाहर ही चीफ साहब के पी.ए.मिल गए। दोनों साथ में ड्राइंग रूम में घुस कर चीफ साहब का इंतज़ार करने लगे।


" हाँ ! तो मिस्टर सुशील, कल हो गई आपकी फेयरवेल ?” चीफ साहब कमरे में प्रवेश करते ही उनसे मुखातिब थे।

"जी सर ! हो तो गई। लेकिन सर, मुझे जाने क्यों कुछ अजीब-अजीब सा लग रहा था। "अपनी बात की शुरुआत करते हुए सुशील आगे बोले,

"सर ! ऐकच्चूअली अभी मुझे कुछ पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी करनी हैं। गाँव का कुछ भी सेटिलमेंट नहीं हो पाया है। वाइफ भी थोड़ा अपने को अन इजी पा रही हैं। इसलिए मुझे कुछ और इंगेजमेंट की सख्त ज़रूरत है।" एक सांस में वह अपनी पूरी बात बोल गए।


हा -हा- हा- ....हँसते हुए चीफ साहब बोले, “रिटायर होते समय सभी को ऐसा ही लगता है...... तुम्हारे लिए यह कोई नई बात थोड़े ही है।"


"लेकिन सर !' अपनी बात सुशील आगे बढाते कि चीफ साहब ने उन्हें रोकते हुए कहा, "ठीक है, ठीक है... वो अपने शिंदे साहब हैं ना उनको तो तुम जानते हो ?"


"जी, जी सर ! उनको मैं अच्छी तरह से जानता हूँ।" हडबडाहट में सुशील बोल उठे।


"बस ! फिर क्या। उनको सेंसर बोर्ड का एक बढ़िया चेयरमैन चाहिए। क्या तुम इंटरेस्टेड हो ? " चीफ साहब ने सुशील से पूछा।


"जी सर ! जी मैं...मैं एकदम इन्टरेस्टेड हूँ। रेडी टू सर्व।” सुशील बिना देर किये बोल उठे।


”फिर ठीक है। मैं तुम्हारा नाम पैनेल में डाले दे रहा हूँ। अब यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि शिंदे साहब से यह काम करवा डालो।" चीफ साहब ने फाइनल कर दिया।


"आपको चाय - वाय मंगवाऊँ क्या?" चीफ साहब रस्मी तौर पर पूछते हुए बोले।


"नहीं, नहीं सर ! आपको भी तो ऑफिस जाना होगा... हम.....हम अब चलते हैं।" सुशील उठते हुए बोले और तेज़ कदमों से बाहर निकल गए।


उन्होंने अपने पिता से सफलता का यह गुरुमंत्र सीखा था कि अगर कोई काम कराना हो तो उसके लिए अंतिम दम लगा दिया करो। साम... दाम..... दंड... सभी कुछ दांव पर लगा दिया करो। आधे मन और आधे जुनून से कभी भी कोई काम सिद्ध नहीं हुआ करता है।


इसलिए सुशील ने भी इस गुरुमंत्र का हमेशा ऐसे अवसरों पर उपयोग किया है और सफल भी रहे हैं। घर लौटते ही शिंदे साहब के पी.ए. को फोन मिलाया और सन्डे के लिए घर पर मिलने का अप्वाइन्टमेंट ले लिया।


अगला ही दिन सनडे था। शिंदे साहब से मिलने का सही दिन। शिंदे साहब आई.एंड.बी. के सेक्रेटरी थे और मिनिस्टर के बेहद करीब भी। वे जिसको चाहते उसको डिपार्टमेंट में फिट कर दिया करते थे। एक से एक गधे को उन्होंने कोहिनूर घोड़ा बना दिया था। देश में इन्फार्मेशन टेक्नालाजी की आंधी आई हुई थी। रेडियो अब बीते दिन की बात हो गया था और श्वेत - श्याम ही सही टेलीविज़न अपना रंग दिखा रहा था।


मंत्रीमंडल ने इस बार उनके डिपार्टमेंट को बहुत ज्यादा बजट भी दे डाला था। आखिर उन सबको इस्तेमाल में लाने की जिम्मेदारी भी तो शिंदे साहब के ही कन्धों पर थी।


सुशील ने काजू, किशमिश, मिठाइयां और बेकरी के ढेर सारे सामानों का गिफ्ट हैंपर तैयार करवाया। किसी ने बताया था कि साहब 8 पी.एम.की शराब पसंद करते हैं सो उन्होंने ड्राइवर भेज कर उसको भी पैक करवाया। सीधे वे शिंदे साहब के साउथ देलही वाले बंगले पर पहुंचे।


हाते में घुसते हुए उन्हें थोड़ा नर्वसनेस हो रहा था। बहुत साल पहले उन्होंने शिंदे साहब के एक बन्दे का काम करवाया था। "पता नहीं उन्हें अभी तक याद होगा या नहीं। अगर याद होगा तब तो कुछ फेवर की उम्मीद है नहीं तो......" मन ही मन में बुदबुदाते हुए उन्होंने गेट के बाहर की बेल बजा दी।


गार्ड ने गेट खोल दिया और सुशील अपनी गाड़ी से अन्दर हो लिए। जाड़े का दिन था और शिंदे साहब अपने लान में ही पेपर पढ़ रहे थे।


"गुड मार्निंग सर !" कहते हुए सुशील ने शिंदे साहब को संबोधित किया।


"आओ.. आओ.. सुशील कैसे हो ?" शिंदे साहब बोल उठे। उनके मुंह के सिगार से धुँआ निकल रहा था और चश्मे का एंगिल कुछ अजीब सा बन पड रहा था। टेबुल पर अनेक हिन्दी और अंग्रेजी के अखबार बिखरे हुए थे और बड़े कप में आधी काफ़ी पड़ी हुई थी।


"सर ठीक हूँ।" सुशील ने अपनी बात की शुरुआत थोड़ा हिचकिचाते हुए की। वे आगे बोले, "असल में मैं पिछले दिनों रिटायर हो गया हूँ और अब कुछ दिनों के लिए नया असाइंमेंट चाहता हूँ।"


"हूँ..” शिंदे साहब ने हुंकारी भरते हुए अपनी नज़र एक बार फिर न्यूज पेपर में गड़ा दी।


"तो...तो सर ! मैं चाहता था कि अगर आपके मिनिस्ट्री में कोई काम मिल जाए तो मेरे लिए बेहतर होगा"। सुशील का गला फंस रहा था और यह बात बोलनी ज़रूरी भी थी।


"असल में मेरे कुछ घरेलू काम और जिम्मेदारियां शेष रह गए हैं और उन्हें अगर हम सरकारी सेवा में रहते हुए नहीं निपटा पायेंगे तो फिर उनका होना मुश्किल होगा।" सुशील ने अपनी बात पूरी कर ही ली थी।


थोड़ी देर की चुप्पी के बाद शिंदे साहब बोले, "ओ.के. ! आई विल सी।”


सुशील कुछ देर इधर उधर की बात करते हुए जाने के लिए उठ खड़े हुए। शिंदे साहब ने उन्हें बैठे - बैठे ही गुड बाय किया।


आज सुशील के मन और उत्साह में ताज़गी थी। उन्हें शिंदे साहब का दिया गया आश्वासन संजीवनी सा लगा। कम से कम दो साल तो टेन्योर रहेगा ही। और इस दो साल में वे अपनी सारी जिम्मेदारियां मैनिपुलेट कर ही लेंगे।


उधर उनकी मैडम के क्या कहने। बंगला भी बचा रहेगा, लाल बत्ती भी और नौकर चाकर भी। खुलकर वे अब अपनी दोनों टाइम की पार्टियां अटेंड करती रहेंगी। और हाँ........ रौब - दाब भी तो बना रहेगा!

घर में घुसते ही उन्होंने मैडम को बेडरूम में पाकर कस कर बांहों में ले लिया। जब उन्होंने बात सुनीं तो उनको भी सुशील पर प्यार उमड़ आया।


बात चीत को लगभग एक महीने हो चले थे और अभी तक सुशील को आई.एंड बी. से कोई बुलावा नहीं आया था। उन्होंने सबसे पहले फोन करके चीफ साहब से अपनी राम कहानी पूछी।चीफ साहब ने कहा कि उनका नाम तो पहले नंबर पर जा चुका है। उन्होंने इस बारे में अपने पी. ए .से सम्पर्क करने को कहा जिससे रिमाइंडर भेजा जा सके। सुशील ने उनके पी.ए.को रिमाइंड करा दिया। एक हफ्ते के अन्दर सुशील के पास आई.एंड बी.से अप्वाइन्टमेंट लेटर आ गया। सुशील अब दो साल के लिए सेंसर बोर्ड के चेयरमैन बना दिए गए थे।


शुभ मुहूर्त देखकर सुशील ने अपनी नई ज़िम्मेदारी संभाल ही ली। आपसी समन्वय करके उनका बंगला भी बच गया, गाड़ी और स्टाफ भी। जोड़ तोड़ में माहिर तो वह पहले से थे ही।


अब ऑफिस में बड़े- बड़े सेलेब्रेटीज का आना -जाना हुआ करता था। उनके साथ सात लोगों का पैनल था जिनकी ज़िम्मेदारी फीचर फिल्मों और विज्ञापनों का सेंसर करना था।


कैम्पस में ही बहुत बड़ा आडीटोरियम था और कार्यालय का स्टाफ भी। मंत्रालयों से अलग हट कर यहाँ की कार्य शैली थी जिसे समझने में सुशील को महीनों लग गए।


हाँ, घर पर बड़े बड़े फिल्म प्रोडयूसरों का आना-जाना शुरू हो गया था और गिफ्ट भी। अचानक से सुशील सुर्ख़ियों में भी आते जा रहे थे। कभी किसी फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट मिल जाने पर तो कभी ना मिलने पर।


उन्हें शुरू- शुरू में तो यह सब अजीब सा लगता था। अरे भाई, जो मापदंड सरकार ने बनाये हैं और जो गाइड लाइन है उस पर ही तो बोर्ड काम किया करता है। अब बोर्ड पर प्रेशर डलवा कर कोई अपना उल्लू सीधा तो नहीं ना कर सकता है।


एक दिक्क्कत अवश्य सुशील के सामने आ रही थी कि बोर्ड के जितने मेम्बर थे वे सभी पिछली सरकार के चुने हुए थे और उनकी अपनी अलग - अलग प्रतिबद्धताएं थीं। मिले- जुले दल की सरकार में मिनिमन कामन एजेंडा लेकर लोग बाग़ पांच साल तक पब्लिक को उल्लू बनाते हैं। होता वही है जो मिनिस्टर चाहता है। नौकर शाह भी उनके आगे विवश हुआ करते थे।


सुशील अब धीरे -धीरे समझ चुके थे कि इस डिपार्टमेंट में बहुत ही प्रेशर में रहकर काम करना पड रहा है। अब तो मिनिस्टर के फोन सीधे आने लगे थे। पी .ए. से फोन लगवा कर मंत्री जी बस इतना ही कहते थे, ".......... फलां प्रोडयूसर जा रहे हैं..... मैं इन्हें अच्छी तरह जानता हूँ, अच्छी फ़िल्में बना रहे हैं.... देख लीजिएगा।"


"जी सर !" कह कर सुशील फोन रख दिया करते थे। वे अब जानने लगे थे कि 'देख लीजिएगा’ का मतलब उन प्रोड्यूसर की फिल्म को बिना देखे सुने हर हाल में सेंसर बोर्ड की हरी झंडी मिल जानी चाहिए।


अब उसी फोन के तत्काल बाद एक सज्जन आ धमके। मंत्री जी का रेफरेंस देकर अपने एक गन्दे विज्ञापन को सेंसर की स्वीकृति ले गये। सुशील को सारे नैतिक मूल्यों की तिलांजलि देनी पड़ी जब उस विज्ञापन में "आई वर्जिन.. ब्लड फार द फर्स्ट नाइट" नामक पिल्स बेंचने की बात कही गई थी। कंपनी का दावा था कि वर्जिनिटी के आश्वासन के लिए इसे मस्तमौला लड़कियां बेधड़क इस्तेमाल कर सकेंगी।


मुंबइया फिल्मों का वह दौर भी अजीब ढंग का था। "न्यू वेव" की लहर के नाम पर सीधे-सीधे अश्लीलता परोसी जा रही थी।


रीयल सिनेमा के नाम पर बेड रूम की अश्लील काम वासना दिखाई जा रही थी । एक फिल्म में एक बाप अपनी बेटी से पूछता है कि तुम अभी वर्जिन हो या नहीं ? तो उधर एक फिल्म में बाप अपने पुत्र को खुली छत के कोने पर अपना प्राइवेट पार्ट हिलाते हुए देखकर पूछ बैठता है मजा आया ?


प्रोडयूसर का तर्क होता था कि जो जैसा है वही तो परदे पर भी दिखाएंगे! फार्मूला और बड़े बजट की फ़िल्में अब कम बन रही थीं लेकिन जो बन रही थीं उसमें हिंसा और बलात्कार के दृश्य जान बूझ कर ठूँसे जाने लगे थे। अगर गलती से सेंसर की नज़र से थोड़ी चूक होकर वे सिनेमाहाल तक पहुँच जातीं तो लोगों की चिल्ल पों शुरू हो जाया करती थी।


एक सुबह मंत्री जी का फोन आया -"मिस्टर सुशील, मैं मिस्टर शौर्या को भेज रहा हूँ। इनको हंड्रेड परसेंट ओ.के. चाहिए। आई थिंक यू नो हंड्रेड परसेंट !”


"जी सर !" कह कर बहुत ही निराश और थके हुए मन से सुशील ने फोन रख दिया था।


वे जान चुके थे कि मंत्री जी अभी तक उसका शील, मर्यादा और नैतिक मूल्यों को भंग कर ही चुके हैं अब उसकी कुर्सी भी ले कर ही छोड़ेंगे।


उसी दिन दोपहर में मिस्टर शौर्या आफिस में आ धमके। इंटरकाम पर पी.ए.ने उनके आगमन की सूचना दी। सुशील ने लंच टाइम में उनसे मिलने को कहा। वे नियत समय पर वे आ धमके। उनके साथ में ढेर सारा गिफ्ट और साथ में एक रंगीन लिफाफा भी था।


"सर ! आज मेरे फिल्म की स्क्रीनिंग है और आपसे मंत्री जी ने बात कर ही ली है।" मिस्टर शौर्या ने अपनी बात कह दी।


"ठीक है, मैं देखूँगा।" अक्सर इतना ही आश्वासन सुशील दिया करते थे और मिलने वाला संतुष्ट होकर चला जाया करता था। लेकिन अरे ! आज तो कुछ और ही माजरा देखने को मिला था।


"ठीक है नहीं सर ! आपको देखना ही होगा।" धमकी भरे लहजे में आगंतुक उनसे मुखातिब था और वे उसके व्यवहार से मर्माहत हो गए। अपना आपा बिना खोए उन्होंने और कुछ नहीं कहने में ही अपनी भलाई समझी। आगन्तुक जा चुका था।


उस दिन की सिटिंग में अन्य मेम्बर्स के साथ सुशील भी बैठे थे। फिल्म की स्क्रीनिंग शुरू हुई।


"शुरुआत ही डकैतों के गाँव पर आक्रमण से हुई थी और वे घर में घुस कर औरतों और बच्चियों से बलात्कार कर रहे थे, सामान लूट रहे थे। गंदे गंदे डायलाग बोल रहे थे और घोड़ों की टाप से माहौल में दरिंदगी और भय का वातावरण क्रियेट कर रहे थे। फिल्म आगे बढी तो एक क्लब में सफेदपोश डकैत अश्लील डांस में नर्तकी की अर्ध नग्न टांगों के बीच गंदे इशारे कर रहे थे... उस पर जो गीत फिल्माया गया था वह भी बेहद अश्लील था। सुशील का मन खिन्न होता जा रहा था और उनके मानस पटल पर बार - बार मिस्टर शौर्या की धमकी याद आ रही थी.."ठीक है नहीं सर.. आपको देखना ही होगा।"


अभी फिल्म की रील चलती ही जा रही थी कि एक दृश्य में हीरो अपनी बीबी से कहता मिला, "अरी ओ नाज़ नखरेवाली, मैं तुम जैसी औरतों को खूब समझता हूँ ! बीबी से सेक्स मांग लें तो हम भिखारी। बीबी को सेक्स ना दें तो हम परम अत्याचारी और.... और किसी तरह जोर जबरदस्ती उससे सेक्स कर लें तो बलात्कारी भी हम ही हैं.." और उसके बाद भयंकर रूप से अट्टहास करते हुए जंगली कुत्ते की तरह हीरो का परदे पर अपनी बीबी पर सेक्सुअल अटैक करने का दृश्य था।


सुशील बोल उठे, "एनफ ...ईट इज एनफ !”


उसके बाद जो होना था वही हुआ। सुशील ने अपने पैतीस साल की आई.इ.एस. की नौकरी में उतनी जलालत नहीं झेली थी जितनी उस एक फिल्म को सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट रोकने पर उनको झेलनी पड़ी थी। उस फिल्म को अंततः सेंसर बोर्ड ने बैन कर दिया और उधर अगले ही दिन सुशील भी सस्पेंड कर दिए गए थे।


उनको जब सस्पेंशन लेटर मिला तो उन्हें ऐसा लगा कि अब आज उनकी कर्तव्य परायणता का अंतिम संस्कार ही नहीं श्राद्ध और तर्पण भी हो चुका है। जीवन के अंतिम प्नहर में उन्हें यह महसूस हो गया था कि नौकरशाही कभी भी राजनेताओं पर हावी नहीं हो सकती है.....कभी भी नहीं !


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