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Principal Rasik Gupta

Abstract

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"मुफ्त का दूध" भाग - 2

"मुफ्त का दूध" भाग - 2

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और फिर वर्ष 2020 का उदय हुआ और पड़ौस के गाँव में बहुत बड़ी महामारी ने दस्तक दी। पड़ौस के गांव से आयी महामारी धीरे धीरे आस पास के सभी गांवों में फैलने लगी। जैसे ही इस महामारी ने अपने गाँव में दस्तक दी, मुखिया जी की आँखों में एक शैतानी चमक आ गयी। उन्होंने अपने सबसे विश्वासपात्र डेयरी मैनेजर को हुकम दिया की तुरंत प्रभाव से सभी प्राइवेट डेयरियां बंद करने के आदेश जारी कर दो। मैनेजर तो मुखिया जी से भी चार कदम आगे ही था। उस ने तुरंत आदेश जारी कर दिए की सभी प्राइवेट डेयरियां अनिश्चित काल के लिए बंद कर दी जाएं और कोई भी दूध वाला इस अनिष्ट काल में अपने ग्राहकों से दूध के पैसे नहीं लेगा। हाँ ये और बात है कि उन्हें दूध कि होम डिलीवरी करनी होगी। और तो और इस होम डिलीवरी के पैसे भी जब तक मुखिया जी ना कहें, वो गाँव वालों से ना मांगें। ना तो वो किसी गाँव वाले का दूध बंद कर पाएंगे, ना ही अपने किसी कर्मचारी को नौकरी से निकाल पाएंगे और ना ही उनका वेतन कम कर पाएंगे या रोक पाएंगे। और हाँ मुखिया जी ने जो टैक्स डेयरी वालों के लिए निर्धारित किये हैं उन का भुगतान और अगर किसी ने डेयरी खोलने या चलाने कि लिए कोई क़र्ज़ लिया है तो उस का भी भुगतान बिना किसी छूट के नियमित रूप से करना होगा। यानि दूध के पैसे मिलें या ना मिलें, डेयरी चले या ना चले, डेयरी वालों के खर्चों में कटौती कि सम्भावनों को एकदम क्षीण कर दिया गया। 

प्राइवेट डेयरी वालों के तो सब से बुरे दिन आ गए। जब तक यह आदेश जारी हुआ था, तब तक किसी गांव वाले का व्यापर या नौकरी इस महामारी कि वजह से प्रभावित नहीं हुए थे। मगर इस आदेश के चलते प्राइवेट डेयरी वाले तो दूध के पैसे ना मांग पाए और गांव वालों ने इसे एक सुनहरी अवसर कि तरह पूरी तरह भुनाते हुए दूध के मोल का भुगतान तुरंत प्रभाव से बंद कर दिया। यहाँ तक कि जिन लोगों का पिछले एक दो महीने का भी दूध का बकाया था, उन्होंने भी इस आदेश की आड़ में पुराना भुगतान करने से भी कन्नी काट ली। जो प्राइवेट डेयरी वाले पहले से ही मुखिया जी के अत्याचारों और षड्यंत्रों की मार झेल रहे थे, उन के लिए इस स्थिति को झेल पाना बहुत कठिन हो गया। हालाँकि उन्होंने दूध की होम डिलीवरी जारी रखी। इस के लिए उन के कई खर्चो में तो एकदम इज़ाफ़ा हो गया। जैसे कर्मचारिओं को अतिरिक्त वाहन ले कर देने पड़े ताकि वो सुचारु रूप से होम डिलीवरी कर पाएं, अतिरिक्त बर्तन, दूध को फटने से बचाने के लिए आइस बॉक्सेस और बर्फ और घर घर पहुँचाने के लिए पेट्रोल आदि का खर्चा बढ़ा सो अलग । कर्मचारी अलग से मुसीबत में आ गए। जिन को डेयरिओं की तरफ से वाहन नहीं मिले, उन्हें अपने वाहन खुद खरीदने पड़े। और तो और पेट्रोल भी अपना ही भरवाना पड़ा ताकि उन को कम से कम वेतन मिलने की उम्मीद बनी रहे। जहाँ डेयरिओं में वो 6 से 7 घंटे ही काम करते थे, अब होम डिलीवरी के चक्कर में उन्हें 10 से 12 घंटे काम करना पड़ रहा था। घर परिवार में समय ना दे पाने की वजह से जो कलह का वातावरण पैदा हो गया था वो अलग 

हालाँकि ये होम डिलीवरी सभी प्राइवेट डेयरी वालों के लिए एकदम नया अनुभव था किन्तु फिर भी सब ने इसे और इस से जुडी सभी कठिनियों को सहर्ष स्वीकार करते हुए केवल गांव के लोगों और उन के बच्चों को पौष्टिक दूध मिलता रहे, प्राइवेट डेयरियां कम से कम अपना खर्च निकाल पाएं और उन की अपनी वेतन प्राप्त करने की सम्भावना भी बनी रहे, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए जो कुछ नहीं आता था, वो भी सीखा और दूध को घर घर और सभी बच्चों तक पहुँचाना जारी रखा। इसी बीच प्राइवेट डेयरी वालों की हालत ख़राब होने लगी। खर्च लगभग जस का तस था लेकिन आमदन एकदम रुक गयी थी। सब को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी। उन्होंने काफी बार मुखिया जी से गुहार लगायी कि उन्हें कम से कम कर्मचारिओं का वेतन और ज़रूरी खर्चे निकालने लायक पैसे या तो लोगों से लेने दें या फिर सरकारी ख़ज़ाने में से खुद ही जारी कर दें। और कुछ नहीं तो कम से कम सभी प्राइवेट डेयरी कर्मचारियों का जो 6 महीने का वेतन उन्होंने अपने पास जमा कर रखा है, उसे ही जारी कर दें ताकि कर्मचारियों को वेतन दिया जा सके लेकिन मुखिया जी के कानों पर जून तक नहीं रेंगी, और रेंगेगी भी क्यों, आखिर सब कुछ उनके मन मुताबिक ही जो हो रहा था। और उन का तुगलकी फ़रमान आख़िर सब से अधिक उन के लिए ही तो फायदेमंद था। 

इस बीच मुखिया जी को अपनी डेयरिओं का भी ध्यान आया। आख़िर टैक्स कि वसूली के लिए लोग दिखावे और दूध उपलब्ध करवाने के भरम को भी तो जारी रखना था। कुछ भी कहो, मन के किसी कोने में कहीं तो जनता के जागृत हो कर अपने टैक्स के पैसों के बदले में उत्तम गुणवत्ता के दूध के अपने हक़ को मांग लेने का भय तो बना ही रहता था। और हाँ, उधर पड़ौस के गांव के "मफ़लर धारी" मुखिया ने अपनी डेयरियों और दूध की गुणवत्ता में सुधार कर के जनता की जो वाहवाही लूटी थी, उस वजह से कहीं आने वाले चुनाव में इस गाँव में भी कहीं उस की पार्टी ही ना जीत जाए, इस की चिंता अलग सताती रहती थी। वो अलग बात है कि जनता अपने इस हक़ को लगभग तिलांजलि ही दे चुकी थी। मुखिया जी ने भी तुरंत प्रभाव से अपने मैनेजर को दूध कि होम डिलीवरी करने का आदेश दिया। मैनेजर ने भी सभी कर्मचारियों (जिन में से ज़्यादातर शुरू से ही कामचोर थे) को आदेश दिया कि मुखिया जी के आदेश का पालन किया जाये। जहाँ प्राइवेट डेयरियों के कर्मचारी घर घर जा कर दूध पहुंचा रहे थे और दूध की गुणवत्ता और डिलीवरी की उपयोगिता के बारे में सुझाव ले कर उस में लगातार सुधार कर रहे थे, मुखिया जी के कर्मचारी गाँव के चौराहे पर अपने उसी दूध (असल में पानी ) के बर्तन रख आते कि जिस को लेना हो ले ले। होना तो वोही था जो पहले होता था। लोग अभी भी प्राइवेट डेयरियों का ही दूध लेना पसंद करते थे और मुखिया जी के कर्मचारी शाम को अपने दूध (पानी ) के बर्तन उठा कर वापिस ले जाते और अगले दिन फिर से रख देते। कम से कम मुखिया जी इज्ज़त पर पर्दा तो बना रह रहा था। 

फिर वो हुआ जिस की किसी ने सपने में भी उम्मीद नहीं की थी


क्रमशः (जारी है)




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