मृगमरीचिका
मृगमरीचिका
उत्तराखंड की ऊंची पहाड़ियों पर नैनीताल से 10 कोस दूर एक गाँव था ‘गम्भीरा’। चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा रमणीय झील के पास बसा दुनिया की तितर बितर से दूर अपनी सुंदरता को समेटे हुए एक प्यारी सी जगह, जिसे न तो मुम्बई जैसे बड़ी बड़ी इमारतों की लालसा थी न दिल्ली जैसी चौड़ी चौड़ी सड़कों के प्रति आकर्षण। उस गाँव में एक बच्चा ‘लोकेश’ अपनी माँ के साथ रहता था। उसके पिता उसके जन्म के 2 वर्ष के बाद ही चल बसे थे, उसकी माँ ने छोटी सी पारिवारिक दुकान से लोकेश को किसी भी प्रकार की तकलीफ़ नहीं होने दी, उसके स्वास्थ्य और शिक्षा दीक्षा में किसी भी प्रकार के आभास से ही माँ का हृदय गर्म तवे पर पड़े मोम के टुकड़े की तरह पिघल जाता और माँ दुकान को देर रात तक खुला रख कर कुछ और पैसे इकट्ठा करने की सारी जुगत लगा लेती ताकि उसके बेटे को विद्यालय में फीस के लिए कभी किसी का ताना न सुनना पड़े। वीरान पड़े उस गाँव में न तो कोई पर्यटक आता न ही कोई इतना अमीर था कि उस बुढ़िया के कुछ सामान ख़रीद कर उसे नगद पैसे दे, ज्यादतर गाँव वाले नून तेल के पैसे भी बूढ़ी काकी को मीठी मीठी बातों में फुसला कर उधार कर बैठते थे।
लोकेश का विद्यालय नैनीताल कस्बे में था, जिसे वह अपनी सवारी यानी कि साइकिल पर बैठ कर बड़े मौज में पूरी करता था। हवाओं से अठखेलियाँ करता जब वह पहाड़ी ढाल पर से उतरता तो हवा की गति को भी चकमा देते हुए विद्यालय की दूरी को चन्द ही क्षण में पूरा कर लेता था।
आज भी एक सामान्य दिन था, लोकेश विद्यालय जाने के लिए अपनी तैयारी कर रहा था, आज परीक्षा थी तो थोड़ी जल्दी में था ताकि विद्यालय पहुंच कर अपने दोस्तों से परीक्षा से पहले विषय पर थोड़ा शास्त्रार्थ कर लिया जाय। लोकेश पढ़ने में होनहार था और हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम ही आता था पर हर बार परीक्षा से ऐसे घबराने लगता था जैसे एक कुम्हार घने बादलों को देखकर होता है।
माँ से आशीर्वाद लेकर लोकेश ने अपने विद्यालय की ओर प्रस्थान किया। कुमाउनी लोकगीत गुनगुनाते हुए जल्दी जल्दी साइकिल को हांक रहा था ताकि शरीर कुछ गर्म हो सके, पूस के महीने की हाड़ कंपाने वाली सर्दी बर्फबारी के बाद और भी निर्दयी हो उठती है और लोकेश के पास एक पुराना याक के खाल की बनी हुई मिरजी था जिसके मरम्मत किये सुराखों से सुर्ख हवाएं जब बदन को सहला कर निकलती थी तो ऐसा लगता है कि हड्डीयों से बने जूते की मरम्मत कोई मोची अपने सूजे से कुरेद कुरेदकर कर रहा हो। सूरज की लालिमा गम्भीरा की सुंदरता में चार चाँद लगा रही थी, चिड़ियों की चहचाहट कानों में ऐसे स्वर प्रस्तुत कर रही थीं जैसे वो लोकेश के परीक्षा के अच्छे परिणाम के लिए मंगलगीत कर उसे शुभकामनाएं दे रही हों।
स्कूल से 2 कोस दूर एक तीव्र मोड़ आया लोकेश इस तीव्र मोड़ से परिचित था और अपने चिरपरिचित तरीके से साइकिल को थोड़ा तिरछा कर के घुमाव लेने लगा। सामने एक काला नाग फण फैलाकर बीच सड़क पर बैठा था। सँकरी रोड को देखते हुए उसने नाग के बगल से पूरे जोर से साइकिल निकालने की कोशिश की, पर उसकी इस तीव्र गति से नाग घबरा गया और उसने लोकेश के ऊपर पूरे जोर के साथ हमला किया। लोकेश ने उसके इस हमले को भांप लिया था और उसने अपनी साइकिल को सड़क से नीचे रेल दी पर उसका सन्तुलन बिगड़ गया और वह ढलान से नीचे गहरी खाईं में कई पलटियां खाता लुढ़कने लगा। उसका हृदय पूरे गति से द्वंद करने लगा, पूरे शरीर मे इतनी पीड़ा उसने आज तक महसूस नहीं की। कुछ गज नीचे जाते वक़्त देवदार के पेड़ से टकरा कर वह रुक गया, उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया।
ढोल नगाड़ों की आवाज़ और बेढंगे गीतों से उसको होश आने लगा। उसने आँख खोलने की कोशिश की पर असहनीय दर्द की वजह से कुछ भी देखने में असमर्थ, कष्ट से कराहता हुआ। मैं कहाँ हूँ, मैं यहाँ कैसे आ गया आज तो मेरी परीक्षा थी, मैं तो परीक्षा देने जा रहा था, ये लोग गाने बजाने वाले कौन हैं जिनके न बोली समझ आ रही न इनकी भाषा न इनका संगीत लोकेश बुदबुदाया। उसने उठने की कोशिश की पर पूरे शरीर में इतनी पीड़ा थी कि उठ नहीं पाया। लेटा हुआ बस वह अपनी बात रखने की कोशिश करने लगा, कोई है?? कोई मेरी आवाज़ सुन रहा है?? मैं कहाँ हूं?? पर उसकी आवाज़ उसके गले से मुँह तक आने से पहले ही दम तोड़ दे रही थीं वहाँ तो शोर का पूरा जमावड़ा था।
थोड़ी देर बाद, एक दरवाज़ा खुला। बाहर से उतनी रौशनी आ रही थी किसी ने सूरज को उस कमरे के द्वार के बाहर बांध दिया हो, उसकी आँखें चौंधियाने लगीं तब उसे अहसास हुआ कि वह किसी अंधेरे कमरे में बंद था तभी कुछ दृश्य नहीं था।
दो लोग आए, उनकी बनावट कुछ ऐसी थी जिसके बारे में न तो उसने कुछ सुना था न पढ़ा था।
गहरे काले रंग के लोग, बेढंगे पत्तों और छालों से बने वस्त्र पहने लोग आदिमानव जैसे प्रतीत हो रहे थे।
उन्होंने लोकेश को बाजुओं से पकड़ कर घसीटा, दर्द के मारे लोकेश की चीख निकली। उन दोनों में से एक ने घूर कर लोकेश की तरफ देखा, उसकी लाल लाल आँखें किसी भट्टी में कोयले की तरह दिख रहे थे उन्हें देखते ही लोकेश अपना सारा दर्द भूल गया। वो लोग उसे एक जालीनुमा कमरे तक ले गए, वहाँ और लोग भी थे बच्चे, औरतें और पुरुष पर कोई भी बुजुर्ग नहीं दिखा।
लोग उसे देखने को बहुत उत्साहित थे। किसी उत्सव जैसा मालूम पड़ता था पर उत्सव किस बात की यह न तो किसी विवाह का समय था न तो किसी त्योहार का लोकेश मन ही मन बहुत चिंतित होता जा रहा था पर ज़मीन पर लेटे रहने के अलावा उसके पास कोई चारा भी नहीं था, यह वह क्षण था जब उसे अपनी परीक्षा से ज्यादा अपनी माँ की फ़िक्र होने लगी।
एक मैं ही तो हूँ माँ के पास, मुझे भी इन लोगों ने नहीं छोड़ा तो मेरी माँ का क्या होगा? उसके जीने का सहारा तो मैं ही हूँ मेरे बिना मेरी माँ क्या करेगी, किसको प्यार करेगी मेरा तो कोई भाई भी नहीं है। इतना सोचते हुए फिर से पूरे हिम्मत के साथ जोर लगा कर कण्ठ से कुछ शब्द निकाले- तुम सब कौन हो, मैं कहाँ हूं??
फटाक्कककककक...
एक जोर की लात उसकी पीठ पर
लगा किसी ने गर्म तवे से दाग दिया हो, उसकी आँखों से आँसू सैलाब की तरह बाहर आने लगे। उसकी आँखों के सामने फिर अंधेरा छा गया।
आँख खुली तो वह पिंजडेंनुमा घर में था जिसमे फुस की छत के अलावा सब कुछ बांस का था और उससे आर पार देखा जा सकता था।
उसके बगल में एक मिट्टी का पात्र था जिसमे भुना हुआ माँस रखा हुआ था और दूसरे पात्र में पानी।
इतना एहसान क्यों ??
उसने उनके इस सम्मान की तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं दिया क्योंकि उसको घर जाना था, किसी भी कीमत पर।
पास ही एक व्यक्ति पहरा दे रहा था। बाकी लोग किधर गए? उसने सोचा तभी एक फिर कहीं दूर से वही पुरानी जानी पहचानी ढोल मंजीरों की आवाज़ आनी शुरू हो गईं। कुछ ही देर में एक झुंड नाचते गाते वहां आ पहुंचा। एक लकड़ी की बग्घी पर एक वृद्ध बैठा था जिसने फूलों की हार पहन रखी थी उसे बग्घी से नीचे उतारा गया। बिलकुल राजसी अंदाज पर राजसी ठाठ नदारद। वह वृद्ध राजा मालूम पड़ता था क्योंकि सब उसको ही खुश करने में खुश थे। वह भी बग्घी से उतर कर सामने की तरफ रखे बड़े पत्थर की बढ़ा। संगीत बन्द। सब कुछ ऐसा शांत हो गया जैसे वहां कोई हो ही नहीं।
सब एक दम स्थिर, शांत, बिना की किसी हलचल के बूत बने खड़े थे। लोकेश सब कुछ बहुत ही उत्साह से देखता चला जा रहा था।
बुजुर्ग व्यक्ति ने पत्थर के पास जाकर कुछ समय तक अनजान भाषा मे बड़बड़ाया और वही लेट गया।
पीछे से एक पहलवान सरीखे का व्यक्ति आया जिसके हाथ में नंगी तलवार थी।
खचाक्कककककककक...
अगले ही पल उसका सर उसके धड़ से अलग हो गया।
लोकेश सुन्न हो गया, काटो तो खून नहीं, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, वही धुन फिर शुरू हो गयी, वही नृत्य जैसे वहां कुछ हुआ ही न हो पर लोगों की भीड़ उसकी लाश के पास पहुंची और फिर जो हुआ उससे लोकेश फिर बेहोश हो गया।
सारे बच्चे महिलाएं और पुरुष उसकी लाश को कच्चा अपने दाँतों से चबा कर खाने लगे थे, सबके मुँह खून से सन चुके थे।
नींद खुली तो सुबह हो चुकी थी, पर शरीर का दर्द कुछ कम था, देखा तो एक विचित्र लेप उसके पूरे शरीर पे था पर कैसा लेप था यह, क्या इससे मैं भी मर जाऊंगा? लोकेश के मन मे यह प्रश्न बार बार कौंधने लगा।
उसने बाहर खड़े रखवाली कर रहे व्यक्ति को आवाज़ दी - मुझे छोड़ दो मैने तुम लोगों का क्या बिगाड़ा है मुझे क्यों मारना चाहते हो?
पर सामने से कोई उत्तर नहीं मिला जैसे वह बहरा हो और उसने कुछ सुना ही न हो।
पूरा दिन भय और अनजाने ख्यालों में ही गुजर गया और कुछ दिन ऐसे ही गुजर गए।
कुछ दिनों के अंतराल पर ऐसे ही वृद्धों की बलि दी जाती थी और बाद में भूखी प्रजा अपने तृप्त करने के लिए उस वृद्ध निर्जीव शरीर पर कूद पड़ते।
भूख से बेहाल लोकेश बिल्कुल कमजोर हो चुका था, हड्डियों का ढांचे जैसा उसका शरीर अभी भी मृत्यु को लात मार रहा था। वह आदमखोर नहीं था शायद इसीलिए उसने पानी के अलावा कुछ ग्रहण नहीं किया था।
आज हल्की हल्की बारिश हो रही थी, दो लोग उसके पास आये उनके हाथ में एक फूलों की माला थी जिसे उन्होंने उसे पहना दिया।
लोकेश समझ गया की आज अंत निश्चित है।
उसने उनसे लाख विनती की पर किसी ने उनकी एक नहीं सुनी।
हार पहनाने के बाद लोकेश को पिंजरे में फिर से बंद कर दोनों लोग कहीं चले गए।
लोकेश आँख बंद कर अपनी माँ को याद करने लगा। आँखों से आँसू रुक ही नहीं रहे थे।
पीछे से वही नगाडों ढोल मंजीरों की आवाज़ आनी शुरू हो चुकी थी, बहुत कम वक्त था उसके पास शेष बचा था जिसे वह भगवान और अपनी माँ के ख्यालों में ही गुजरना चाहता था।
एकाएक उसकी नजर एक स्त्री पर पड़ी। एक बच्चे के साथ आई उस स्त्री के ललाट पर चंद्रमा की तरह शीतलता छाई हुई थी, उसके वस्त्र में भी थोड़ी विभिन्नता थी, जानवरों के हड्डियों से बने आभूषणों से सुसज्जित वह स्त्री बहुत शांत थी। पीछे से लोगों का हुजूम बढ़ ही रहा था जिसका अंदाज़ ध्वनियों के तेज होने से लगाया जा सकता था।
वो स्त्री उसके पिंजरे के पास आई और बिना कुछ बोले लोकेश को घूरने लगी। लोकेश डर कर उससे जाने देनी की विनती करने लगा पर उसने कोई हरकत नहीं की।
लोकेश फुट फुट कर रोने लगा।
वह स्त्री एक कदम पीछे जाकर रखवाली कर रहे इंसान को अपनी भाषा मे कुछ कहा, जैसे कोई आदेश दे रही हो और उसने झुककर उसको अभिवादन की मुद्रा में कुछ कहा और दरवाज़ा खोल दिया।
यह क्या? जिस मुक्ति की कामना कर रहा था वह सामने थी पर मन भय से मदमस्त कहीं मुझे मारने के लिए तो यह सब नहीं ?
उस स्त्री ने इशारे से बाहर आने को कहा और पहाड़ी की दूसरी ओर हाथ घुमाकर मुझे जाने के लिए इशारा किया।
उस स्त्री का बच्चा उससे चिपक गया शायद मुझे देख के डर गया हो या अपनी माँ के फैसले का परिणाम पता हो। उनको देखकर माँ की याद आ गयी और पूरे हिम्मत के साथ उसने दौड़ लगा दी। इतना तेज वह अपनी जिंदगी में कभी नहीं भागा।
शरीर जवाब दे रहा था पर जबतक उसके कानों में उस बीभत्स संगीत की धुन आती रही तब तक उसने अपनी गति धीमी नहीं पड़ने दी।
फेफड़े मुँह से बाहर आने को तैयार था पर काट के खाये जाने का डर उसके भागते हुए मरने पर हावी था।
संगीत की ध्वनि अब समाप्त हो चुकी थी, एक छोटी पहाड़ी को चढ़कर वह अपने विद्यालय वाले चिरपरिचित सड़क पर आ चुका था, अब बस एक ही चिंता का विषय था वह थी उसकी माँ।
भागते भागते वह अपने घर पहुंचा, घर का दरवाज़ा खुला हुआ था।
माँ....
घर में घुस कर देखा तो माँ कपड़े सिल रही थी।
अरे अरे कहाँ से तूफान की तरह आ रहा है??
लोकेश अपनी माँ से लिपटकर रोने लगा।
क्या हुआ मेरे लाल को? किसी ने कुछ बोला क्या विद्यालय में?? परीक्षा की वजह से दुखी हो क्या??
लोकेश हैरान हुआ कि इतने दिन बाद लौट के आया हूँ फिर भी माँ को तनिक भी चिंता नहीं हुई।
माँ तुम्हारे बिना इतने दिन कैसे था मैं, क्या क्या देखा, कितने दिन कष्ट में बिताए, तुम्हें मालूम है??
कितने दिन??
अभी आज सुबह ही तो परीक्षा देने गए थे तुम मेरे कलेजे।