Krishna Kaustubh Mishra

Drama Tragedy

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Krishna Kaustubh Mishra

Drama Tragedy

इक्का बेगम बादशाह

इक्का बेगम बादशाह

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वाराणसी से कुछ दूर एक गांव था 'विभूतिपुर'। उस गांव के दक्षिणी छोर पर एक गरीब किसान रहता था, नाम था 'नृप किशोर' पर लोग उसे बंगाली कहते थे, क्योंकि अपनी ज़िंदगी के आधे से ज्यादा वसन्त उसने बंगाल में ही देखे थे। वह बंगाल में किसी चमड़े के कारखाने में काम करता था, और जब बांग्लादेश का विभाजन हुआ, उस दौरान फैले हिंसा से भयभीत होकर नृपकिशोर गांव भाग आया। गांव में न उसके पास खेती लायक कोई जमीन थी, न जवानी जैसी शक्ति जो कभी क्विंटल के क्विंटल चमड़े के बोझ को इधर से उधर किंचितमात्र समय मे ही पहुँचा दिया करता था। नृप किशोर की माली हालत तंग से होते हुए अत्यंत दयनीय हो चुकी थी। नृप किशोर के नाम मे भले ही राजाओं जैसा गुमान था पर उसकी वास्तविकता राजाओं के हार के बाद गुरुर के क्षणभंगुर होने जैसा था। बंगाली के दो बेटे थे, लेखराज और दीनदयाल।

दोनों एक नम्बर के निकम्मे और काम चोर।

इनके पास समय ही समय था क्योंकि दोनों कोई काम नही करते थे। दिन भर घर मे रह कर महाभारत करते या फिर अपने आवारा दोस्तों के साथ जुआ खेलते और शराब पीकर घर पर हुड़दंग मचाते। अपनी पत्नियों को मारते और गाली गलौज करते।

बंगाली इनके कुकर्मों से अत्यंत विचलित हुआ करता था, और घर की आर्थिक स्थिति को ठीक करने का जिम्मा भी खुद ही वहन करता था। उसकी उम्र भी अब ढल चुकी थी। हड्डियों में इतना भी दम नही बचा था कि खुद कोई काम ढूंढ के कर सके । उसने अपने बेटों को बहुत बार समझाया कि जाओ कुछ काम धंधा शुरू करो वरना सब लोग भूखे मर जायेंगे, पर उसके बेटे हमेशा उसकी बातों को दरकिनार कर देते थे।

लेखराज और दीनदयाल के कुछ अमीरजादे दोस्त थे जो उसे कर्ज देते और जुए में जीत ले जाते और शाम को शराब पीला कर कर्ज के रुपये में हेर फेर कर देते।

यह सिलसिला बहुत दिन तक चलता रहा।

एक दिन बंगाली के घर पर खाने के लिए कुछ भी न बना, जितना राशन पताई थी सब खत्म। सारी जमा पूंजी खत्म,न पैसा था न कोई बेचने लायक समान जिसके एवज में कुछ खाने का सामान आ सके और दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम हो सके।

दोपहर हो चुकी थी, सूरज आसमान में बिल्कुल चमकीला और तेज से भरा हुआ चमक रहा था। घर के आंगन में पड़े खाट पर बैठे बंगाली तम्बाकू मल रहे थे, बगल में उनका कुत्ता शेरू भी बैठा था जो एकटक बंगाली की तरफ देख रहा था।

स्थिति बहुत दयनीय हो चली थी, दोनों बेटे अपने दोस्तों के यहाँ चले गए थे और घर मे बंगाली, उनका कुत्ता और दोनों बहुएं भूख से व्याकुल।

बंगाली से जब भूख बर्दाश्त नही हुई तो उसने अपनी बड़ी बहू 'नलिनी' को बुलाया।

बंगाली: बहू, घर मे कुछ भी नही बचा क्या खाने को? कुछ हो तो ले आओ, बहुत भूख लगी है।

नलिनी: बाबू जी, भूख तो हमें भी लगी है पर राशन के नाम पर घर मे कुछ भी नही है, मैंने इनसे कल रात बात भी की थी राशन के लिए पर इन्होंने मुझे 2 थप्पड़ जड़ दिए और कहा कि ज्यादा भूख लगे तो मेरा मास खा लेना, शायद तुम्हारी भूख मिट जाए। आज दोपहर ये और देवर जी रोज की तरह फिर अपने दोस्तों के पास चले गए।

बंगाली: अगर घर मे गुड़ पड़ा हो तो वो ही ला देना, उसे खा के पानी पी लूँगा तो कुछ भूख शांत हो जाएगी।

तुम दोनों भी वह ही खा लो, मैं कुछ इंतज़ाम करता हूं।

नलिनी एक कटोरे में गुड़ और एक लोटा पानी ले आई।

बंगाली ने गुड़ के छोटे छोटे टुकड़े किये और कुछ टुकड़े अपने कुत्ते के सामने डाल दिये।

कुत्ता भी अपने मालिक की स्थिति से दुखी प्रतीत हुआ और गुड़ को सूंघ कर आंगन से बाहर चला गया।

बंगाली ने गुड़ खा कर पानी पिया और दालान के पास अपने कमरे में पड़े पुराने बक्से को टटोलने लगा।

एक पुरानी पोटली पड़ी थी, कंपकंपी भरे हाथों से उस पोटली को बंगाली ने खोला।

उसमे उसकी मृत पत्नी का एक कमरबंध पड़ा हुआ था, जो कि बंगाली ने अपनी शादी के रस्मअदायगी के दौरान उपहार स्वरूप दिया था।

वो भी क्या दिन थे, जेब मे पैसे और शरीर मे शक्ति दोनों थी। उसके कानों में शादी की शहनाई गूंज रही थी। उसकी शादी का सारा दृश्य उसके मन के पटल पर प्रदर्शित होने लगा।

बंगाली की पत्नी भार्गवी के पिता और बंगाली के पिता दोनों बहुत घनिष्ठ मित्र थे, भार्गवी और बंगाली की शादी बचपन मे ही तय हो गयी थी।

शादी के दौरान बंगाली ने भार्गवी को उपहार में वो कमरबंध भेंट की थी, उसे पाकर भार्गवी बहुत खुश थी, उसकी मुस्कान को याद कर बंगाली अपना सारा दर्द जैसे भूल सा गया था।

भार्गवी उस कमरबन्ध को बहुत पसंद करती थी और दूसरी महिलाओं को जलाने के लिए कभी कभी उसका प्रयोग भी कर लेती थी।

दोनों बेटों को जन्म देने के पश्चात एक बार बंगाल में प्लेग का कहर बरपा और भार्गवी चल बसी।

उसके यादों के अलावा यही एक कमरबंध ही था जो उसे भार्गवी से जोड़े हुए था।

बंगाली की आंखों से अश्रुधारा फुट पड़ी। चेहरों की झुरमुट से होते हुए जब आँसू उस पोटली पर गिर रहे थे तब शायद भार्गवी की आत्मा भी बंगाली के कष्ट से पीड़ित ज़रूर हुई होगी।

बंगाली ने सोचा अगर भार्गवी जिंदा होती तो शायद घर की स्थिति देखते हुए मुझे इस कमरबंध का सही उपयोग करने के लिए प्रेरित करती। दोनों बेटे भी तो उसी के खून हैं, मानता हूँ निकम्मे हैं पर हैं तो बेटे ही और उसने जुड़ी हैं बहुवें, दूसरे के घर की अमानत अगर हमारे घर हैं और अगर वो भूखी रहीं तो भार्गवी की आत्मा को कभी शांति नही मिलेगी।

बंगाली ने वो पोटली बंद कर दी और एक झोले में डाल कर लाठी के सहारे पगडंडी से होते हुए चल पड़ा।

शाम हुई पंछी अपने अपने घोसलों की ओर जा रहे थे। सूरज भी अपनी तीव्रता को क्षीर्ण कर के जुगनुओं को प्रकाशित होने का आमंत्रण दे रहा था।

लेखराज और दीनदयाल भी नशे में धुत्त होकर घर आ चुके थे, दोनों ने रोज की तरह हंगामा शुरू कर दिया।

कभी खाना न बनने को लेकर कभी कोई गड़े मुर्दे उखाड़ कर।

घर का कुत्ता भी आंगन में आकर अपने हिस्से की रोटी का इंतज़ार करने लगा। पर एक ही व्यक्ति दिखाई नही दे रहा था 'बंगाली'।

समय बीतता चला गया पर बंगाली अभी भी लापता था।

रात ढल चुकी थी, लेखराज और दीनदयाल उत्पात मचा कर किसी कोने में गिर कर सो चुके थे, दोनों बहुएं भूख से व्याकुल चूल्हे के पास बैठ कर संताप कर रही थीं। कुत्ता भी कभी आशंकित होकर बाहर जाता और फिर आंगन में आकर बैठ जाता।

दोनों बहुएं इस बात से चिंतित थी कि बंगाली का कुछ अता पता ही नही था।

आंगन में एक पुरानी ढिबरी जल रही थी। उसकी लौ हवा के साथ क्रीड़ा कर रही थी। रात की खामोशी को सियार बीच बीच मे विचलित कर देते थे।

पीछे से कुछ घुंघरू और घण्टियों की आवाजें आनी शुरू हो जाती हैं। दोनों बहुवें अपने दर्द को भूलकर उस आवाज़ से मन्त्रमुग्ध हो जाती हैं।

आवाजें जैसे जैसे तीव्र हो रही थी तैसे तैसे उनके मन मे रोमांचक तरंगे उद्वेगीत हो रही थीं।

नलिनी दौड़ कर दालान के पास गई, देखा तो बंगाली दो बैलों के साथ चला आ रहा था।

पूर्णमासी का चाँद इतनी रोशनी कर रहा था कि उजले बैल मानों नंदी की तरह प्रतीत हो रहे थे, और बंगाली स्वयं महादेव, जो इस कष्ट की घड़ी में उन्हें उबारने स्वयं चले आ रहे थे।

बंगाली ने बैलों को पेड़ों से कसकर बांध दिया और दालान में आकर कंधे से झोले को उतारकर नलिनी को देते हुए बोला, जाओ कुछ बना दो बहुत भूख लगी होगी न सबको। नलिनी ने देखा तो झोले में आटा था और कुछ आलू।

वो खुश हो गयी, वो दौड़ी दौड़ी चूल्हे के पास गई और लकड़ियों को तोड़कर चूल्हे को प्रज्वलित करने का प्रयास करने लगी।

कभी धुंकनी से आग को हवा करती, कभी देवरानी को जल्दी आटा गूंथने को कहती।

बंगाली भी आंगन में पड़े खाट पर आके बैठ गया, बगल के खाट पर लेखराज सो रहा था। चहल पहल के चलते उसकी भी नींद खुल गयी।

जब सन्स देखा कि चूल्हा जल रहा है और खाना बनाने की प्रक्रिया शुरू है तो वह आगबबूला हो उठा।

जब मैंने खाना मांगा तो मुझे यह कहकर मना कर दिया गया कि घर मे कुछ नही है अब पकवान बन रहे हैं पिताजी के लिए वाह। लेखराज बड़बड़ाते हुए।

बंगाली बोला- अभी राशन लेकर आया हूं तो अभी ही खाना बनेगा न, तुम दोनों को तो घर की कोई फ़िक्र ही नही है कि घर की स्थिति क्या चल रही है, तुम्हें तो अपने आवारा दोस्तों से फुर्सत ही कहाँ?

यह सुनकर लेखराज बहुत क्रोधित हुए।

जब मेरे लिए खाना नही बना तो किसी के लिए नही बनेगा।

इतने शोरशराबे के बीच दीनदयाल भी आ धमका और लेखराज के क्रोध को और भी उत्तेजित करने लगा।

पास में पड़ी बाल्टी को उठा कर लेखराज चूल्हे को बुझाने के लिए चल पड़ा, बंगाली ने उसे रोकने की कोशिश की पर उसने वो पानी चूल्हे में झोंक दी।

चूल्हा बुझ गया, दोनों बहुये पानी से भींग गयी और उनकी भूख बुझ चुके चूल्हे की तरह बुझ गयी।

वो दोनों फुट फुट कर रोने लगीं।

लेखराज और दीनदयाल को उनका रोना तनिक भी नही जँचा और उन दोनों ने अपनी बीवियों के ऊपर अत्याचार शुरू कर दिया। जो हाथ मे आया उसी से उनको पीटना शुरू कर दिया। कभी रहट्टे से तो कभी हाथ से।

बंगाली से नही देखा गया तो उसने बीच बचाव करने की कोशिश की और उन्हें रोकने के लिए खुद ढाल बनकर उनके सामने खड़ा हो गया।

बंगाली को सामने से हटाने के लिए लेखराज ने बंगाली को जोर से धक्का दिया और लेखराज लड़खड़ा कर पास पड़े चक्की पर जा गिरा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

जब तक दोनों होश में आते बहुत देर हो चुकी थी।

दोनों भाइयों को अपनी गलती का एहसास हुआ, पास जाकर देखा तो बंगाली औंधे मुंह पड़ा हुआ था, नाड़ी देखी तो खुप्प सन्नाटा।

सुबह हुई, अंतिम संस्कार के लिए भी उनके पास पैसे नही थे।

लेखराज अपने मित्र पुंडीर के पास गया ताकि कुछ पैसे मिल सके तो अंतिम क्रिया कर्म किया जा सके।

लेखराज: यार मित्र पुंडीर, तुम्हें तो पता ही होगा कल रात पिताजी गुजर गए, मुझे कुछ रुपयों की आवश्यकता है, मेरी मदद करो तो उनका अंतिम संस्कार किया जा सके।

पुंडीर(आँखें लाल करते हुए): तुम्हें पता है कि मैंने तुम्हें न जाने कितना कर्ज दे रखा है, अब और एक ढेला भी नही मिलेगा।

पहले पुराना कर्ज सूद समेत अदा करो फिर नए कर्ज के लिए सोचना।

लेखराज: अरे मित्र, इस कठिन समय मे ऐसी बातें मत करो, एक एक पैसा चुका दूँगा तुम्हारा पर इस समय मेरी मदद करो, मेरे पिता का अंतिम संस्कार करना है।

पुंडीर: सुना है कल तुम्हारे पिताजी, चौधरी से दो बैल खरीद कर ले गए। जब पैसा नही है तुम्हारे पास तो इतनी बड़ी खरीदारी कैसे की?

लेखराज: हाँ दो बैल मेरे द्वार पर पेड़ से बंधे जरूर थे पर वो आये कहाँ से यह नही पता मुझे।

पुंडीर: ठीक है तो वो दोनों बैल मुझे दे दो और तुम्हारा पुराना कर्ज माफ़। और कुछ रुपये भी ले जाना ताकि क्रिया कर्म कर सको तुम।

लेखराज दीनदयाल को इशारा करता है और दीनदयाल दौड़ कर घर की तरफ बैल ले जाने को भागता है।

कुछ देर में ही वो दोनों बैल घर से खोल लाता है।

पुंडीर: चलो इन बैलों को हमारे खूंटे से बांध दो।

यह लो 100 रुपये और अपने पिता का अंतिम संस्कार कर देना।

जैसे ही लेखराज पैसे लेने के लिए हाथ बढ़ाता है, पुंडीर पैसे वापस अपनी ओर खींच लेता है।

आओ एक चाल खेलते हैं हो सकता है यह 100 1000 बन जाये, इस मुश्किल समय मे तुम्हारा मन भी थोड़ा हल्का हो जाएगा।

लेखराज और दीनदयाल लालच में आ गए, उनके पिता का पार्थिव शरीर घर पर पड़ा उनकी राह देख रहा है और वो दोनों जुएँ में मशगूल हो गए।

कभी इक्का कभी बेगम और कभी बादशाह तो कभी गुलाम, चाल पर चाल, जीत पर हार।

इक्के वो खुद थे जो इक्के के बैलों को दूसरे के खूंटे बांध आये थे, बेगम घर पर भूखी, बंगाली की लाश को निहार रही थी और बादशाह जो घर की स्थिति ठीक करने के लिए निकला था और गुलाम पत्ते पीस रहे थे।

कभी शराब की घूंट मारते कभी हाथ से चाल निकल जाने से मलाल करते । शाम ढलने तक यही सिलसिला चलता रहा, 100 रुपये को 1000 बनाने के चक्कर मे कर्ज के 1000 चढ़ चुके थे उधर बंगाली अभी भी अपने बेटों की राह जोहते हुए जमीन पर पड़े हुए थे।

कुत्ता अभी भी बंगाली के पास बैठ कर उसके मुँह को चाट रहा था, शायद उसे भी अहसाह हो चुका था कि वह अब आखिरी बार ही अपने मालिक अपना प्यार दे पा रहा।



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