मर्द को भी दर्द होता है
मर्द को भी दर्द होता है
आज मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हार गया वो भी खुद ही से ! तभी तो इस तरह से रोना आ रहा है रुलाई है कि थमने का नाम ही नहीं ले रही है। आज कोई नहीं है हालांकि यूं तो सब है फिर भी कोई नहीं ! जिसके लिए भी मैंने अपनी जान लगा दी उसी ने अपनी जान छुड़ा ली जब मेरी जरूरत नहीं रही ! क्या रिश्ते इस तरह के होते हैं जो कभी भी बदल जाते हैं ! इन बदलते रिश्तों के मायने क्या हैं ? क्या है इनकी अहमियत ? क्या है जरूरत ? मगर है तभी तो हर टूटा हुआ रिश्ता चुभता है ! टीसता है ! कभी तो नासूर बन कर रिसता है ! कई बार चिढ़ाने लगता है। मज़ाक बनाता है मखौल उड़ाता है !
कहने को तो सांसद हूं लोग मेरे आगे-पीछे घूमते हैं मेरी राहों में बिछ - से जाते हैं जैसे मैं उनका देवता होऊं ! हां देवता देवता के साथ भी तो यही करते हैं !तकलीफ में उस देवता की वंदना करते नहीं थकते और जैसे ही मुराद पूरी हुई कि तू कौन मैं कौन वाली नीति भूल जाते हैं बेचारे देवता को और अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाते हैं ! अरे लोग तो लोग यहां तो अपने बीवी- बच्चे भी अपने नहीं ! उनका रिश्ता भी महज जरूरतों का फिर सांसद के बीवी-बच्चे है सोशल स्टेटस भी तो मायने रखता है इसी का तो मुझसे रिश्ता है वरना ! आज यह कहावत बार -बार मेरे दिल पर दस्तक दे रही है - मर्द को दर्द नहीं होता ! क्या वाकई यह सच है ? अरे काहे का सच कितना झूठ कहते हैं लोग कुछ भी बना देते हैं वरना कोई मुझसे पूछे - मर्द को दर्द होता है कि नहीं ? पर यार पहले मैं भी तो यही समझता था कि मर्द को दर्द नहीं होता और वह कभी रोता भी नहीं वाह-वाह ! कितना खोखला लगता है आप जानते हैं ऐसा सोचने वाला खुद ही रो रहा है ! सारे मिथ टूट गये ! सारे समीकरण बदल गये ! मुझे लोगों के ऐसे रवैये से कोई फर्क नहीं पड़ता ना ही उनसे कोई तकलीफ़ होती है। यहां बात गैरों की नहीं अपनों की है निहायत ही अपनों की है मेरा अपना अर्धांग जी हां अर्धांग ! नहीं समझे अरे भाई अर्द्धांगिनी हां - हां पत्नी ! बीस साल के साथ में कुछ समझ ही नहीं पाया कि रिश्ते यूं भी बदलते हैं अर्धांग सच में अर्धांग रह गया आधे को लकवा जो मार गया ! लकवा भी ऐसा कि तन एकदम सही सलामत मगर मन लकवाग्रस्त हो गया ! बच्चे दोनों प्रिया और पियूष मां के ही नक्शे-कदम पर चल रहे हैं वैसे दोष उनका भी नहीं मैं भी तो उन्हें समय नहीं दे पाया जब उनको पिता की जरूरत थी शायद पत्नी के साथ भी यही हुआ हो पर नहीं उसे मैंने खुद को जी जान से सौंपा ! हां बाद के दिनों में थोड़ा ज्यादा बिज़ी रहा फिर भी उसके साथ काफी समय रहता था। हां बच्चों को वक्त नहीं दे पाता था उनका स्कूल क्लासेज़ वगैरह के कारण जब मैं होता तब वे नहीं होते !
आप सोच रहे होंगे मैं कैसी ऊटपटांग बातें कर रहा हूं भला पत्नी और बच्चे भी ऐसा कर सकते हैं ! नहीं कर सकते मुझे भी ऐसा ही लगता था अपने रिश्ते पर गर्व था लोग रश्क करते थे मेरी खुशहाल जिंदगी पर ! राजनीति में अच्छी पोजीशन खूबसूरत बीवी प्यारे बच्चे। मगर यह गाज तो मुझ पर तब गिरी जब एक एक्सीडेंट में मेरी मर्दानगी को लकवा मार गया पर मैं सही सलामत था और मेरा प्यार भी। मगर उसका प्यार धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा वैसे टूट तो बहुत पहले ही गया था बस मैं ही मोहांध था देख ही नहीं पाया। इस तरह न देखते हुए भी पता नहीं कब और कैसे टूट गया बस टूटता गया और खत्म हो गया ! क्योंकि उसके प्यार में अब वो कशिश न थी न ही थी जुम्बिश ! उसके स्पर्श में भी वो अहसास न था पर मेरा प्यार तो और भी लबालब था। लेकिन उसमें वो बात नहीं थी हालांकि दिखता तो लबालब ही था इतना लबालब कि छलक पड़ता था फिर भी कितना ऊपरी-ऊपरी और बिल्कुल बेसतही और बेअसर ! अब तो ऐसा भी होने लगा कि मेरे लिए उसके पास वक्त भी नहीं था ! मैंने कभी प्यार से अपने पास बिठाया या छूआ भी तो झटक दिया जैसे अंगारे ने छू लिया हो ! ऊपर हेमन्त से बढ़ने वाली उसकी नजदीकियां नजदीकियां भी कुछ ज्यादा ही थी इतनी ज्यादा कि मुझे तो क्या किसी भी गैरतमंद इन्सान को तो हजम नहीं होगी खैर इस तरह के हालात और उनसे प्रभावित मेरी मानसिक स्थिति इन सबका मेरे राजनैतिक जीवन पर भी असर पड़ने लगा। काम में मन ही नहीं लगता। जिन्दगी चारों तरफ से खिसकते-खिसकते इस एक रिश्ते में आकर एकदम उलझकर रह गई !
अपने बच्चों के प्रति भी न्याय नहीं कर पा रहा था ! पियूष तो होस्टल में था भेजना पड़ा और बेचारी प्रिया तो सातवीं में थी मगर उसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं था नौकरों के भरोसे थी ! मैं अपने ग़म में डूबा वो अपनी आशिकी में डूबी अब भला आकंठ डूबा इन्सान किसी को क्या देख पायेगा ! पियूष होस्टल में था लेकिन पढ़ाई में तो बस राम - राम ही था दसवीं में सिर्फ चालीस प्रतिशत अंक !सब पर अभी भी सांसद का भूत सवार था। प्रिया की प्रोग्रेस भी कुछ खास नहीं थी। पियूष को होस्टल से वापस बुलाया सोचा कि मैं खुद ध्यान दूंगा इसलिए शहर के एक ए वन कॉलेज में एडमिशन कराया इतनी तो अभी भी चलती ही थी। और एक समय इस तरह से भी गुजरा कि मैं और भी लाचार होता गया। समझ में नहीं आता था कि खुद को कैसे संभालूं ! क्यों नहीं संभाल पा रहा हूं! जज़्बात अहसास प्यार भले न हो पर कहने को ही सही परिवार तो है ! अगर रेवती में अब प्यार नहीं है तो इन बीस सालों में भी नहीं रहा होगा मेरी नज़र ही वहां तक नहीं पहुंची होगी इसीलिए तो ! अगर था भी तो ज़रूरत भर का और अब भी ज़रूरतों का ही मसला है सो ज़रूरतें पूरी हो रही है बिना किसी रुकावट के ! कहने को तो मेरी भी लेकिन मेरी भला कैसे हो सकती है मेरा रिप्लेसमेंट तो उसके पास है ही ! बाकी तो सब नौकर करते हैं किसी को किसी की जरूरत नहीं घर के किसी काम से तो उसका सम्बन्ध कुछ भी नहीं था। इन जरूरतों ने ही शायद उसे बांधे रखा यह सब मंजूर था मुझे बर्दाश्त भी कर रहा था मगर यह मंजूर न था किसी की बाहों में बाहें डाले खुलेआम घूमे -फिरे ! उसकी इन्हीं हरकतों से बाहर लोगों में कानाफूसी होने लगी जो मुझ तक भी पहुंचने लगी यह सब मेरी सहनशक्ति के बाहर था।
आखिरकार मैंने उससे बात करने का फैसला किया। बातचीत का जो नतीजा रहा वो तो कहने-सुनने व बर्दाश्त करने लायक नहीं था फिर भी किया और कोई चारा भी तो नहीं था। इसके अलावा जो देखा वो तो अनदेखा कर ही रहा था। उसने तो हद ही कर दी ओह कहती है - ‘ जब तुझमें कुवैत नहीं काबिलियत नहीं तो किस हक़ से टोका-टाकी करते हो ! यह तो शुक्र करो कि मैंने तुमसे तलाक़ नहीं लिया और ना ही ले रही हूं अगर लेती तो कितनी छिछालेदर होती !
वो तो तुम अब भी ले सकती हो बल्कि लेलो बिना किसी हीलहुजत के दे दूंगा अब बस दोहरी जिंदगी नहीं चाहिए और ना ही लोगों की फुसफुसाहट सुनने की ताकत है मुझमें। एक ही बार में जो होना है हो जाने दो।
तुम कह तो रहे हो मगर बच्चों परं अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा बड़े हैं सब समझते हैं।
जो चल रहा है क्या वो सब नहीं समझते ? उसका प्रभाव नहीं पड़ रहा है ?
ठीक है शायद सब सही हो लेकिन तलाक़ भूल जाओ तुम भी जीयो अपने हिसाब से और मुझे भी जीने दो। वैसे भी इस नीरसता भरी जिन्दगी में रखा ही क्या है ! अपने दोस्तों के साथ हंस-बोल लेती हूं थोड़ा वो भी तुम्हें नहीं सुहाता !
दोस्तों या दोस्त से ?
राज अब तुम कुछ ज्यादा ही बोल रहे हो ?
ज्यादा ?
चलो ठीक है जो सोचना है सोचो और सोचते रहना जिन्दगी भर। मैं यहीं तो हूं तुम्हारे साथ !
ओह रेवती इस तरह बेशर्मी की भी हद होती है सुना-अनसुना कर रेवती निकल गई और मैं यूं ही देखता रह गया जैसे कोई लकीर पीटता रह जाये ! सच में मैं पूरी तरह से हार गया औरों से नहीं बल्कि खुद से ! औरों से हार कर तो इन्सान जी ले मगर खुद से हार कर जीना बहुत मुश्किल है मेरी इस हार की कोई हद नहीं ! एक ही बात दंश मारती है गहराई तक चुभती है कि मर्द को दर्द नहीं होता ! ये मिथ भी टूट गया ! अब बस मैं और मेरा दर्द मेरे आंसू जो मेरी ही खिल्ली उड़ाते हैं। जैसे मुझसे सवाल कर रहे हो। अच्छा तो मर्द को भी दर्द होता है ?