मॉर्फीन - 3
मॉर्फीन - 3
लेखक: मिखाइल बुल्गाकव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
टक,टक... धम् धम्...अहा...कौन? कौन है? क्या है?...आह, खटखटा रहे हैं, आह, शैतान, खटखटा रहे हैं...मैं कहाँ हूँ? मैं क्या हूँ?...बात क्या है? हाँ, मैं अपने कमरे में बिस्तर में हूँ...मुझे क्यों उठा रहे हैं? उनका अधिकार है, क्योंकि मैं ‘ऑन-ड्यूटी’ हूँ. उठिए, डॉक्टर बोमगर्द. ये मारिया दरवाज़े पर टकटक कर रही है. कितना बजा है? साढे बारह...रात है...मतलब, मैं सिर्फ एक घंटा सोया हूँ. क्या माइग्रेन है? दिख रहा है. वही है!
दरवाज़े पर हल्की दस्तक हो रही थी.
“क्या बात है?”
मैंने डाइनिंग रूम का दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला. अँधेरे से नर्स का चेहरा मेरी और ताक रहा था, और मैंने फ़ौरन भांप लिया कि वह विवर्ण है, कि आंखें विस्फारित हैं, व्याकुल हैं.
“किसे लाये हैं?”
“गरेलव्स्की गाँव के डॉक्टर को,” – भर्राई हुई आवाज़ में नर्स ने जवाब दिया, “डॉक्टर ने अपने आप को गोली मार ली.”
“प-लि-को-व को? ये नहीं हो सकता! पलिकोव को?!”
“उनका कुलनाम तो मैं नहीं जानती.”
“तो ये बात है...अभी, अभी आता हूँ. और आप प्रमुख डॉक्टर के पास भागिए, फ़ौरन उन्हें जगाइए. कहिये कि मैं फ़ौरन इमरजेंसी रूम में उन्हें बुला रहा हूँ.”
नर्स भागी – सफ़ेद दाग आंखों से ओझल हो गया.
दो मिनट बाद पोर्च में ज़ालिम बर्फीला तूफ़ान, सूखा और चुभता हुआ, मेरे गालों पर प्रहार कर रहा था, ओवरकोट के पल्लों को फुला रहा था, भयभीत जिस्म को जमा रहा था.
इमरजेंसी रूम की खिड़कियों से सफ़ेद और बेचैन रोशनी झाँक रही थी. पोर्च में, बर्फ के बादल में, मैं सीनियर डॉक्टर से टकराया, जो वहीं जा रहा था, जहाँ मैं भी भाग रहा था.
“आपका? पलिकोव?” सर्जन ने खांसते हुए पूछा.
“कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है. ज़ाहिर है, वही है,” मैंने जवाब दिया, और हम जल्दी से इमरजेंसी रूम में घुसे.
बेंच से ओवर कोट में लिपटी एक महिला हमसे मिलने के लिए उठी. परिचित आंखें, रोते हुए, भूरे रूमाल के कोने से मेरी तरफ देख रही थीं. मैंने गरेलव की दाई मारिया व्लासेव्ना को पहचान लिया, जो गरेलवस्की-अस्पताल में प्रसूति के केसेस के दौरान मेरी विश्वसनीय सहायिका हुआ करती थी.
“पलिकोव?” मैंने पूछा.
“हाँ,” मारिया व्लासेव्ना ने जवाब दिया, “कैसी भयानक बात है, डॉक्टर, रास्ते भर मैं कांप रही थी, कि बस, किसी तरह पहुँच जाऊँ...”
“कब?”
“आज सुबह, जब दिन निकल ही रहा था,” मारिया व्लासेव्ना बुदबुदा रही थी, “चौकीदार भागते हुए आया, बोला, “डॉक्टर के क्वार्टर में गोली चली है”.
खतरनाक, व्याकुल रोशनी बिखेरते हुए लैम्प के नीचे डॉक्टर पलिकोव पडा था और उसके निर्जीव, पत्थर जैसे, फेल्ट बूट जैसे तलवों को देखते ही पल भर के लिए मेरे दिल की धड़कन रुक गई.
उसकी टोपी उतारी – और गीले चिपचिपे बाल दिखाई दिए. मेरे हाथ, नर्स के हाथ, मारिया व्लासेव्ना के हाथ पलिकोव के ऊपर चमके और ओवरकोट के नीचे से लाल-पीले, गीले धब्बों वाली बैंडेज की पट्टी बाहर निकली. उसका सीना बेहद धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था. मैंने नब्ज़ देखी और कांप गया, मेरी उँगलियों के नीचे ही नब्ज़ गायब होती जा रही थी, खिंच रही थी और निरंतर तथा नाज़ुक गांठों वाले धागे की तरह टूट रही थी. सर्जन का हाथ कंधे की ओर बढ़ा, उसने विवर्ण शरीर के कंधे को चुटकी में लिया ताकि कैम्फर का इंजेक्शन लगाए. ज़ख़्मी ने अपने होंठ विलग किये, जिन पर गुलाबी खून की लकीर दिखाई दी, नीले होंठों को ज़रा सा हिलाया और सूखेपन से, कमजोरी से बोला:
“कैम्फर फेंकिये. भाड में जाए.”
“चुप रहिये,” सर्जन ने उसे जवाब दिया और पीला तेल त्वचा के भीतर धकेल दिया.
“पेरिकार्डियम (हृदयावरण-अनु.)को, शायद, चोट लगी है,” मारिया व्लासेव्ना फुसफुसाई, उसने मज़बूती से मेज़ के किनारे को पकड़ लिया और ज़ख़्मी की अंतहीन पलकों को देखने लगी (उसकी आंखें बंद थीं). भूरी-बैंगनी छायाएं, सूर्यास्त की छायाओं जैसी, नासिका पक्ष के पास रिक्त स्थानों पर चमकने लगीं, और महीन, पारे जैसा पसीना दूब के कणों के समान छायाओं पर उभर आया.
“रिवॉल्वर?” गाल पर चुटकी लेते हुए सर्जन ने पूछा.
“ब्राउनिंग,” मारिया व्लासेव्ना बुदबुदाई.
“ऐ-एख,” अचानक, जैसे कडवाहट और गुस्से से सर्जन ने कहा और अचानक, हाथ झटककर दूर हट गया.
कुछ भी समझ न पाने के कारण मैं भयभीत होकर उसकी और मुड़ा. कंधे के पीछे किसी की आँखें टिमटिमाईं. एक और डॉक्टर आया.
पलिकोव ने अचानक अपना मुँह हिलाया, तिरछे, जैसे कोई ऊंघता हुआ आदमी चिपचिपी मक्खी को हटाते हुए करता है, और इसके बाद उसका निचला जबड़ा हिलने लगा, जैसे गले में कोई चीज़ अटकी हो, जिसे वह निगलना चाहता था. आह, जिसने रिवॉल्वर या बंदूक के घिनौने जख्म देखे हैं, वह इस हलचल को अच्छी तरह जानता है! मारिया व्लासेव्ना के चेहरे पर पीड़ा का भाव था, उसने आह भरी.
“डॉक्टर बोमगर्द को...” मुश्किल से सुनाई देने वाली आवाज़ में पलिकोव ने कहा.
“मैं यहाँ हूँ,” मैं फुसफुसाया और मेरी आवाज़ हौले से ठीक उसके होठों के पास गूँजी.
“नोटबुक आपको ...” भर्राई हुई आवाज़ में और भी ज़्यादा कमजोरी से पलिकोव ने जवाब दिया.
अब उसने आंखें खोलीं, उन्हें उदास, अँधेरे में जाती हुई कमरे की छत की और ले गया. काली पुतलियाँ जैसे आतंरिक प्रकाश से लबालब भरने लगीं, आंखों का सफ़ेद हिस्सा जैसे पारदर्शी, नीलाभ हो गया. आंखें ऊपर ठहर गईं, फिर धुंधली पड़ गईं और इस क्षणिक रंग को खोने लगीं.
डॉक्टर पलिकोव मर गया.
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रात. पौ फटने वाली है. बिजली का लैम्प बड़ी प्रखरता से जल रहा है, क्योंकि ये छोटा-सा शहर सो रहा है और इलेक्ट्रिक करंट बहुत है. सब कुछ खामोश है, और पलिकोव का जिस्म चैपल (छोटा गिरजा – अनु.) में है. रात.
मेज़ पर पढ़ने के कारण सूजी हुई आंखों के सामने खुला हुआ लिफाफा और एक पन्ना पडा है. उस पर लिखा है:
“प्रिय कोम्रेड!
मैं आपका इंतज़ार न कर सकूंगा. मैंने ठीक होने का इरादा बदल दिया है. कोई उम्मीद नहीं है. और अब मैं ज़्यादा तड़पना भी नहीं चाहता. मैंने काफी कोशिश कर ली. औरों को आगाह कर रहा हूँ. पानी के पच्चीस भागों में घुले हुए सफ़ेद क्रिस्टल्स से सावधान रहें. मैंने उन पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा कर लिया और उन्होंने मुझे मार डाला. मेरी डायरी आपको भेंट कर रहा हूँ. आप मुझे हमेशा से जिज्ञासु और मानवीय दस्तावेजों के प्रशंसक प्रतीत हुए हैं. अगर आपको दिलचस्पी हो, तो मेरी बीमारी का इतिहास पढ़ लीजिये.
अलबिदा.
आपका,
सिर्गेई पलिकोव”.
पुनश्च बड़े-बड़े अक्षरों में:
“कृपया मेरी मृत्यु के लिए किसी को दोष न दें.
चिकित्सक सिर्गेइ पलिकोव.
१३ फरवरी १९१८”.
खुदकुशी करने वाले के ख़त की बगल में एक आम नोटबुक्स की तरह की नोट बुक थी – काले रंग के मोमजामे में. उसमें से पहले आधे पन्ने फाड़ दिए गए थे. बचे हुए आधे पन्नों में संक्षिप्त टिप्पणियाँ थीं, शुरू में पेन्सिल से या स्याही से, साफ छोटे-छोटे अक्षरों में, नोटबुक के अंत में रासायनिक पेन्सिल से और मोटी लाल पेन्सिल से, बेतरतीब लिखाई में, उछलती हुई लिखाई में और कई संक्षिप्त शब्दों में.
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