मॉम
मॉम
"मैंनें तुम्हें कह दिया है, जब भी बाहर जाने लगूँ, मुझे टोका मत करो, पर तुम सुनती नहीं हो, बुढ़िया!हर बार की नोक झोंक से परेशान हो गई हूँ।बुढ्डा न मरता, यह बुढ़िया मर जाती।"
मॉम की यह जली-कटी बातें एक दिन की नहीं, न जाने पिछले कई वर्षों से रोज सुबह उठते ही दादी माँ को सुनने को मिलती थी।
दादी माँ, तब से बिल्कुल अकेली हो गई थी, जबसे डैड विदेश गये थे और दादा जी भगवान के घर।यह नहीं कि घर में कोई कमी थी, सब तो था हमारे घर में, सिवाय प्रेम व स्नेह के। वैसे मुझे तो सब बहुत प्यार देते थे लेकिन वह प्यार मेरे अंग- प्रत्यंग में ऐसे जलन करता था जैसे कोई तेजाब़ गिरा रहा हो। मॉम कहती तो दादी माँ को थी, मगर दर्द मेरे कलेजे को होता था। तब बहुत छोटा था, अपनी खीझ, झुंझलाहट ब्याँ नहीं कर सकता था।अब ग्यारहवीं में हो गया हूँ, हाँ, अब नहीं सहूँगा और न ही सहने दूँगा दादी को। मॉम की प्रतिदिन की बढ़ती कड़वाहट बूँद-बूँद गिरते तेजाब की मानिंद दादी माँ जैसे सहृदयी व सहनशील वट वृक्ष को भीतर से जोंक की तरह खाये जा रही थी, नहीं अब नहीं।
"दादी माँ, आप आगे से कुछ बोलती क्यों नहीं हो ? मॉम आप पर हुक्म चलाती हैं, बेवजह बाहरी आक्रोश को आप पर निकालती हैं, बोलो न।"कितना सहोगी आप ? कितनी बार दादी माँ को झकझोरा था मैंने !
मेरी ऐसी बातें सुनकर हमेशा दादी माँ के लबों पर हँसी एवं आँखों में विश्वास और चमक ही नजर आता था।
तब नादान दिल समझ न पाया दादी माँ के तन-मन का रहस्य !
आज समझ गया हूँ। दादी माँ, माँ है और मॉम मॉम है।