मन की प्रसन्नता
मन की प्रसन्नता
सोमवार का दिन था। वेंकटेश्वर, जो कि एक प्राइमरी स्कूल टीचर है, एक दिवस की छुट्टी के बाद विद्यालय जाने के लिए तैयारी कर रहा था। उसकी पत्नी सुनीता से एक पिछली रात को ही पैसों को लेकर झगड़ा हुआ था, सो पत्नी कुछ रूठी हुई थी, और वेंकटेश्वर भी अपनी पत्नी से नाखुश नजर आ रहा था, लेकिन जैसे तैसे उसने दो रोटी खाई और स्कूल की तरफ साइकिल से निकल पड़ा। मन में घर की परिस्थिति को लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे थे। उसी आवेश में वह साइकिल बढ़ाए जा रहा था। कब 4 किलोमीटर चलकर स्कूल पहुंच गया पता ही नहीं चला। स्कूल पहुंचते ही बच्चे वेंकटेश्वर को घेर कर अभिवादन करने लगे, तब वेंकटेश्वर को होश आया ,कि वह स्कूल पहुंच गया है। शालिनी, जो कि एक दूध बेचने वाले गोपाल की बेटी है, उसकी उम्र करीब 10 साल है। वह कक्षा 4 की छात्रा है। उसे स्कूल का प्रार्थना प्रभारी बनाया गया है। उसने दौड़कर मास्टर जी से चाभियाँ ले ली। और पूरे स्कूल के ताले खोल दिए। वेंकटेश्वर अभी भी कुछ उधेड़बुन में नजर आ रहा था। कुछ सोच विचार में डूबा हुआ था। उसे पत्नी के लिए बनारसी साड़ी और बेटे के लिए बल्ला जो खरीदना था।
खैर प्रार्थना हुई बच्चे कक्षा में जाकर बैठ गए। मास्टरजी हाजिरी लगाने के बाद बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयारी कर ही रहे थे, कि तब तक उनकी नजर एक बालक पर पड़ गई, जिसने बहुत गंदे कपड़े पहने हुए थे, शायद आज नहाया भी नहीं था, बाल बिखरे हुए पैरों में धूल लिपटी हुई, चुपचाप कोने में बैठा था। वेंकटेश्वर ने आवेश में आकर चिल्लाते हुए उसे खड़ा किया, ऐसे स्कूल चले आते हैं, गंदे कपड़े पहनकर बिना नहाए हुए बच्चा कुछ नहीं बोलता है, चुपचाप नजरें झुकाए हुए खड़ा रहता है, वेंकटेश्वर को और गुस्सा चढ़ जाता है। वह उसे कान पकड़कर आगे ले आता है, और गुस्से में डांटना शुरू कर देता है, यही सिखाया गया तुम्हें विद्यालय में, कि बिना नहाए स्कूल चले आओ, गंदे कपड़े पहन कर, इतना कहते हुए वेंकटेश्वर ने बच्चे को दो थप्पड़ लगा दिए, घर में बाप मां बाप क्या करते रहते हैं, कैसे हैं, अपने बच्चे का ख्याल तक नहीं आता। वह गुस्से में यह सब बोल ही रहा था, कि पीछे से किसी बच्चे ने बताया कि इसकी मम्मी मर गई, वह नहीं है बिन मां का है, बेचारा। यह सुनकर वेंकटेश्वर सन्न रह गया। हृदय में एक गहरी वेदना लेकर कुर्सी पर बैठ जाता है। सोचता है, कि मैंने क्यों मार दिया इस बच्चे को। मन में जलालत के भाव लेकर उस बच्चे से नजरे मिला पाने में असमर्थ था। वेंकटेश्वर कुछ देर वैसे ही अर्ध मूर्छा में कुर्सी पर बैठा रहता है। फिर बच्चे को अपनी तरफ खींच कर अपने हृदय से लगा लेता है। आंसू आंखें छोड़कर गालों पर आ गिरते हैं। कक्षा के सभी बच्चे उदास होकर एक टक दोनो को देखते रहते है। वेंकटेश्वर अपने किए पर पछता रहा था और साथ ही उस बच्चे की परिस्थिति उसे भावुक बना रही थी। जैसे तैसे वह अपनी वेदना से बाहर आया और बच्चे से पूछा कुछ खा पी कर आए हो, बच्चे ने ना में सिर हिलाया। पापा कहां है? पूछने पर पता चला , कि वह काम के लिए पड़ोस शहर में मजदूरी करने गए है। घर में बस दादी अम्मा है। कभी खाना बना पाती हैं ,कभी को नहीं। इतना सुनकर वेंकटेश्वर दुख से भर जाता है। कुछ सोचकर, वह अपना टिफिन खोलकर उसे रोटी खाने को देता है। वेंकटेश्वर एक टक उसे ही देखता रहता है उसका हर एक निवाला जो वह तोड़कर सब्जी के साथ मुंह तक ले जाता। उसके हर एक निवाले के साथ आंखों से टपकते आंसू जिन्हें वह यदा कदा पोंछ भी लेता। वेंकटेश्वर पश्चाताप स्वरूप अपने जीवन का सबसे बड़ा पुण्य भी उस बच्चे के आंसुओं को रोकने के लिए आज दान कर सकता था । ऐसा लग रहा था मानो तड़पती मछली को दरिया मिल गया हो। वैसे ही उस भूखे बच्चे को खाना मिल गया था। करीब 2 या 3 रोटी खा चुकने के बाद बच्चे ने मास्टर जी की तरफ देखा, मानो वह कह रहा हो कि अब बस, बाकी का आपके लिए है। वेंकटेश्वर ने उस सहमे हुए बच्चे को देखकर एक मंद मुस्कान दी जिससे बच्चे ने भी प्रत्युत्तर में एक मंद किंतु संतुष्टि से भरी हुई मुस्कान दी। साथ ही कक्षा के सभी बच्चे मुस्करा दिए। वेंकटेश्वर भी अब खुद को क्षमा योग्य समझ रहा था। वेंकटेश्वर मन से प्रसन्न हुआ।
