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Yashvi bali

Inspirational Others

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मन एक दर्पण ..

मन एक दर्पण ..

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एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा से बहुत प्रभावित हुए। विद्या पूरी होने के बाद गुरू ने उसे आशीर्वाद के रूप में एक दर्पण दिया।

वह साधारण दर्पण नहीं था। उस दिव्य दर्पण में किसी भी व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी।

शिष्य, गुरू के इस आशीर्वाद से बड़ा प्रसन्न था। उसने सोचा कि चलने से पहले क्यों न दर्पण की क्षमता की जांच कर ली जाए।

परीक्षा लेने की जल्दबाजी में उसने दर्पण का मुंह सबसे पहले गुरुजी के सामने कर दिया।


शिष्य को तो सदमा लग गया। दर्पण यह दर्शा रहा था कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण स्पष्ट नजर आ रहे है।

मेरे आदर्श, मेरे गुरूजी इतने अवगुणों से भरे है ! दुखी मन से वह दर्पण लेकर गुरुकुल से रवाना हो गया तो हो गया लेकिन रास्ते भर मन में एक ही बात चलती रही. जिन गुरुजी को आदर्श पुरुष समझता था लेकिन दर्पण ने तो कुछ और ही बता दिया।


उसके हाथ में दूसरों को परखने का यंत्र आ गया था। इसलिए उसे जो मिलता उसकी परीक्षा ले लेता।

उसने अपने कई इष्ट मित्रों परीक्षा ली। सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया।

जो भी अनुभव रहा सब दुखी करने वाला था सब दोहरी मानसिकता वाले लोग है।

इन्हीं निराशा से भरे विचारों में डूबा दुखी मन से वह किसी तरह घर तक पहुंच गया।

उसे अपने माता-पिता का ध्यान आया। उसके पिता की तो समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है। उसकी माता को तो लोग साक्षात देवतुल्य ही कहते है। इनकी परीक्षा की जाए।

उसने उस दर्पण से माता-पिता की भी परीक्षा कर ली। ये भी दुर्गुणों से पूरी तरह मुक्त नहीं है। संसार सारा मिथ्या पर चल रहा है।

अब उस शिष्यों के मन की बेचैनी सहन के बाहर हो चुकी थी।

उसने दर्पण उठाया और चल दिया गुरुकुल की ओर। शीघ्रता से पहुंचा और सीधा जाकर अपने गुरूजी के सामने खड़ा हो गया।

गुरुजी उसके मन की बेचैनी देखकर सारी बात का अंदाजा लगा चुके थे।


चेले ने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा- गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह-तरह के दोष है। कोई भी दोषरहित सज्जन मुझे अभी तक क्यों नहीं दिखा ?


क्षमा के साथ कहता हूं मेरा मन बड़ा व्याकुल है।


तब गुरुजी हंसे और उन्होंने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य दंग रह गया। उसके मन के प्रत्येक कोने में राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण भरे पड़े थे। ऐसा कोई कोना ही न था जो निर्मल हो।


गुरुजी बोले- बेटा यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था न कि दूसरों के दुर्गुण खोजने के लिए।

जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता।


जो प्राप्त है।

वही पर्याप्त है।



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