मकान
मकान
आज श्यामलाल जी चिंतित अवस्था मे बैठे थे, बड़े बेटे का अमेरिका से फ़ोन आया था, वीडियो कॉल पर बोला था, "पापा, अब आपको चाहिए अपनी वसीयत लिख दें, इतना बड़ा घर है। भाई को तो रेलवे का घर मिल ही जायेगा, यहां अक्षय को एमबीए करना है। बोलिये तो मैं वकील से बात करूं, बेच दीजिए। अब मैं तो इंडिया में नही आऊंगा। मुझको आप बेटा मानते हो नही ?"
वह सोच में पड़े थे, जिसके एडमिशन के लिए मैंने तीस वर्ष पहले एक लाख रुपये कर्ज लेकर दिए, कि कुछ बन जायेगा तो परिवार की सहायता करेगा, वह विदेश में जाकर बस गया, विदेशी बहू ले आया। अब ये राजेश रेलवे में क्लर्क है, पर हर सुख दुख में तो यही काम आता है। उंसकी बहू भी सेवा भी करती है, सम्मान भी देती है।
अचानक उन्हें एक विचार आया और उन्होंने फ़ोन पर बड़े बेटे से कहा, "बेटा, तुमसे बोलना चाहता था, पर झिझक रहा था। तुमने तो कभी हमारी खोज खबर नही ली, तुम्हारी अम्मा मिलने की आस लेकर कोरोना काल मे स्वर्ग सिधार गयी। मैंने ये मकान राजेश के नाम कर दिया है, ये फैसला तो मैं ले ही सकता हूँ। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है, खूब उन्नति करो।"
दूसरे दिन ही श्यामलाल जी ने अपने वकील से लिखा पढ़ी शुरू करा दी।