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Dr Padmavathi Pandyaram

Tragedy

3  

Dr Padmavathi Pandyaram

Tragedy

मिलावट

मिलावट

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‘नहीं...नहीं यह कैसे संभव है?’ रामनाथ शर्मा को पैरों के नीचे जमीन घूमती नजर आई। कानों पर विश्वास न आया। साँस बेतरतीब …बदन पसीने से तरबतर। 


‘कल शाम ही तो आपने बताया था कि साक्षात्कार में मुझे ही सबसे ऊँचे अंक मिले है।नौकरी मिलने की पूरी संभावना है।और आज तो आप नियुक्ति का आदेश भी जारी करने वाले थे ….तो फिर अचानक एक रात में यह परिवर्तन? नहीं ...नहीं...।ऐसा कैसे हो सकता है ? देखिए मुझे नौकरी की सख्त....’। 


‘क्षमा कीजिए...मैं कह चुका हूँ आपसे …चयन मंडली का अभिमत है कि यह नौकरी अब आपको नहीं मिल सकती और यह किसी और को दी जा चुकी है। आप इतनी सी बात समझते क्यों नहीं?” शिक्षा संस्थान के प्राचार्य महंत गोस्वामी जी ने दो टूक शब्दों में निर्णय सुना दिया।


इतना बड़ा आघात … इतना बड़ा धोखा। भयभीत और निःसहाय वह काँपने लगा।“ 

“कुछ तो दया कीजिए। कल तक तो मैं पूरी तरह से इस नौकरी के लिए योग्य माना गया था और आज यह बदलाव क्यों? आप नहीं जानते मैं किस मुसीबत में हूँ….और आश्रम शिक्षा संस्थान तो अपनी निस्वार्थ सेवाओं के लिए जाना जाता है। वहीं पर इस प्रकार की मिलावट की उम्मीद तो कदापि नहीं की जा सकती ....कदापि नहीं…चिराग़ तले अंधेरा?” वह दहाड़ उठा। बेबसी आक्रान्त हो गई…विकल और त्रस्त।

लुटा भाग्य सर पीट रहा था…हाथ आया, मुँह को न आया। 

तरल नज़रों में ठहरी हुई निराशा चमत्कार की अभीप्सा लिए हाहाकार करने लगी। 


महंत अपने अधरों को सिले शान्त स्मित बैठे थे…जड़वत उदासीन…किंचित् क्षुब्ध और भयाकुल। जो नहीं कहना था, कह चुके थे। 


वह जानता था कि अब कुछ नहीं हो सकता। पर फिर भी असमंजस में वहीं खड़ा भावशून्य उनका मुखमंडल देखने रहा था। मलिन परिमार्जित छवि! 

अस्ताचल सूर्य की रक्तिम आभा लिए उनका गेरुआ वस्त्र आज उसकी आँखों को स्याह दिखाई दे रहा था। आश्चर्य! क्या देख रहा हूँ मैं ? क्या है यह ? आँखों का धोखा या पवित्रता का कोई नया रंग ? 


शान्त चित्त वे अपनी जगह से उठे। कुरसी पर टंगा अंगोस्त्र काँधे पर सरकाया और चलकर कोने में विराजी माँ सरस्वती की प्रतिमा को मुलायम मखमल कपड़े से पोंछने लगे। रात भर में बहुत धूल आ चुकी थी प्रतिमा पर। 


“ मैं चाहता हूँ अनावश्यक बहस न कर अब आप प्रस्थान कीजिए। देख रहें है मेरी पूजा का समय हो गया है “। उन्होंने आगे बढ़कर माँ की प्रतिमा के पास रखा पूजा का दिया जला दिया। 


और रामनाथ …रामनाथ के पाँव जैसे ज़मीन से चिपक गए थे। वह तत्क्षण यहाँ से भाग जाना चाहता था पर हिल भी न सका। तूफ़ान थम गया था और सैलाब बरौनियों में सिमट चुका था। वह भी शायद अपनी मर्यादा जानता था या यहाँ बहने की निरर्थकता को पहचान गया था। मन अब शान्त हो गया था …श्मशान सादृश्य शान्त….। पर निस्पृह निगाहें अब भी निरंतर उन्हें ताक रही थी। पढ़ रही थी उनके चरित्र को जो दिए की रोशनी में उनकी आँखों में साफ़ दिखाई दे रहा था। 


दोनों चुप….। 


वातानुकूलित कमरे में कुछ क्षणों के लिए शान्ति पसर गई थी …चिंघाड़ती हुई शान्ति… चीखती हुई शान्ति। और यह शान्ति महंत को असहज किए जा रही थी।सहना मुश्किल हो रहा था। तड़पने लगे। रामनाथ की उपस्थिति जलन उत्पन्न कर रही थी। भयंकर पीड़ादायी जलन। वे छटपटाने लगे। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उनकी उँगलियों ने टेबुल पर लगे बटन को दबा दिया। 


पहरेदार अंदर आ गया था….। 



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