Dr Padmavathi Pandyaram

Inspirational

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Dr Padmavathi Pandyaram

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जाको राखे साईंया...

जाको राखे साईंया...

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वह पलायन कर देना चाहता था । प्रयाण के सब उपाय सोच रखे थे । आस्तिक था वह , घोर आस्तिक ...पर आज वह मोह भी टूट चुका था । समाप्त कर देना चाहता था जीवन को जिसने निराशा के अतिरिक्त उसे कुछ न दिया था । बहुत दूर निकल आया था शहर से इस उधेड़बुन में कि या तो पटरियों पर लेट जाएगा या नदी में छलांग लगा देगा या पर्वत से कूद जाएगा ।


रात्रि अंतिम चरण के अवसान पर ।सुबह होने से पहले निर्णय को अंजाम देना था ।

मार्ग अस्पष्ट । आगे शायद घना जंगल था । डरावनी निस्तब्धता । सड़क पर किसी के देखने का डर । उसने जंगल का मार्ग चुना ।अचानक अंधेरे में पेड़ से टकराया और वह गिर पड़ा । माथा फटा ।सिसकारी निकल गई । कुछ क्षण तने से सिर टिकाए वह निश्चेष्ट सा बैठा रह गया । ।

हारा मन थका बदन... आँख मुँदी जा रही थी । 

अंधेरे में हल्की रोशनी दिखी । कोई था पेड़ के पीछे ध्यान मग्न ।

पास जाकर देखते ही वह कांप गया । चेहरा था या प्रकाश पुंज ? अलौकिक तेज़ ...अग्नि कुंड सदृश ज्वाजल्यमान । 

वह स्तब्ध विचार शून्य सा ताकता रहा । उस ऊष्मा से उसके सब ताप घुलकर आँसुओं में बह रहे थे ।अनायास उसकी दृष्टि ऊपर पेड़ पर गई । धुंधली रोशनी में दिखा...एक गिलहरी पके हुए बेर को हाथों के पंजों में दबोच कर मज़े से कुतर रही थी और निचली डाल पर काली बिल्ली घात लगाए बैठी हुई थी

अविलंब उसने एक कंकड़ी उठायी और बिल्ली की ओर दे फेंकी । अप्रत्याशित वार । बिल्ली धड़ाम से नीचे गिरी और गिलहरी चंपत ।

प्रकाश पुंज ने स्निग्ध दृष्टि से उधर देखा । उठे और चल दिए ।

“रुकिए …कौन है आप…?” उसका अंतर्मन चीख उठा । वह हड़बड़ा कर लपका उनकी ओर । 

उनके क़दम ठिठक गए । बिना मुड़े उन्होनें कहा,

“योगी हूँ ” । 

“मुझे अपना शिष्य बना लो । आपके साथ रहूँगा ,साधना सीखूँगा ।” 

“गुरु दक्षिणा में क्या दोगे?” उनकी वाणी सम्मोहित कर रही थी और वह बंधा जा रहा था । उसके होंठ चिपक गए थे । 

“जो माँगे वही । यह जीवन आपको समर्पित ।” आश्चर्यचकित था वह कि कौन बोल रहा है ? इतनी ऊर्जा उसमें आई कहाँ से ।

“पीछे तो न हटोगे ?” वे अब भी न मुड़े ।

“परीक्षा ले लो ” ।

“तो गुरु आदेश है कि वापस चले जाओ” । उनके शब्द तीर की तरह उसकी अन्तरात्मा को भेदते चले गए । “इस जगत को तुम्हारी आवश्यकता है । साधना समर्पण माँगती है पलायन नहीं । वह वरण करती है कर्मरत व्यक्ति का । और हाँ…प्रतीक्षा करना...मैं आऊँगा…किसी न किसी रूप में । ध्यान रहे ,तुमने अपना जीवन मुझे समर्पित किया है । अब इस पर मेरा अधिकार है” ।

वे ओझल हो गए ।

उसकी तंद्रा हटी । भोर हो आई थी ।

सूरज क्षितिज पर अपनी रक्तिम आभा बिखेर रहा था । । चारों और गुलाबी रश्मियाँ फैल गई थी । उसने सब ओर नजर दौड़ाई ।

  वहाँ कोई न था । लेकिन ..उसका अन्तर्मन अब रसमय हो चुका था ।

  मार्ग स्पष्ट दिखाई दे रहा था।



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