मील का पत्थर
मील का पत्थर
दो दिन पहले की ही बात है। गुरुपूर्णिमा का दिन था, और एक शिक्षक होने के नाते; सवेरे से ही पूर्व और वर्तमान समय के विद्यार्थियों के भाव और कृतज्ञता को प्रदर्शित करते विविध संदेश; आधुनिक संचार साधनों के माध्यम से; मुझ तक पहुँच रहे थे। कोई मुझे याद कर रहा था, तो कोई मेरी कक्षा में दोबारा आना चाहता था।
एक पूर्व विद्यार्थियों का समूह, जो अब विदेश में जा बसा था, उन्होंने फ़ेसबुक पर मुझे टैग कर एक बड़ी सुंदर सी पोस्ट अपलोड कर रखी थी। ये सब संदेश और विविध पोस्टों को पढ़कर बड़ा सुकून मिला और हृदय गदगद हो गया। तभी मन मे एक ख्याल आया के शिक्षक बनने के बाद में तो हर वर्ष विद्यार्थियों की शहद डूबी टिप्पणियों से ओतप्रोत हो लेता हूँ और नई ऊर्जा का संचार कर लेता हूँ। लेकिन मैं खुद अपने गुरुजनों से कट सा गया था। खासकर अपनी प्राथमिक शाला के सबसे प्रिय शिक्षक से, उनसे मेरा कोई संपर्क न था। उनके पास न कोई ई-मेल आईडी था, न कोई फेसबुक प्रोफाइल, न कोई मोबाइल या व्हाट्सएप नंबर।
सम्पर्क न होने के बावजूद भी उनकी यादें मेरे मन पर किसी शिलालेख सी खुदी थी। बस उन पर वर्षो की धूल जमी थी , जिसे साफ भर करना था। सो में कागज़ और कलम लेकर बैठ गया। लेकिन ये इतना आसान साबित न हुआ। धूल हटाने पर वो अक्षर तो नज़र आये लेकिन में उन्हें जोड़ शब्दावली नही बना पा रहा था। अन्तरमन में एक अजीब सी खींच तान चल रही थी। मेरे अंदर, किसी लंबी गहरी शीतनिद्रा से जागा विद्यार्थी, मेरे अंदर के लेखक से ज़िरह कर रहा था। यूँ तो मैं अपनी कहानियों में कइ चरित्रों और पात्रों को जीवंत कर चुका था, लेकिन आज एक ऐसे व्यक्तित्व का चित्रण करना था, जिसका प्रभाव न केवल मेरी लेखनी अपितु मेरे सम्पूर्ण जीवन और व्यक्तित्व पर था। ये ऐसा था के मुझे अपने ही कथानक में किरदार और सूत्रधार दोनों ही बनना था। मेरे पास कहने और लिखने को तो बहुत कुछ था लेकिन शुरुआत करते न बनता था। कहाँ से शुरू करे ? शीषर्क क्या दे? बस इसी उधेड़ बून में, कई घन्टे बीत गए। ना तो कुछ करते बन रहा था; न इस विषय को छोड़ते बन रहा था। मुझे इस जद्दोजहद में देख, मेरी श्रीमती जी को कुछ आभाष हुआ, और उन्होंने मेरी परेशानी का कारण पूछा, तो मैंने कहाँ, "अपने शुरुआती स्कूल के दिनों को याद करने की कोशिश कर रहा हूँ।"
वे बोली, "लेखक जी पीछे जाने के लिए पीछे मुड़ना जरूरी होता है। जीवन के इस ठेले मे सिर्फ प्ले बटन होता है रिप्ले या पौज बटन नही। ये ऐसी गाड़ी है जिसे रोक तो नही सकते लेकिन रफ्तार कम कर, रियर ब्यू मिरर से पीछे जरूर देख सकते है।" मैंने मुँह बनाते हुए कहा, "जी थोड़ी सी सरल भाषा मे समझाए। इस पर और प्रकाश डाले, फिलॉसफर साहिबा !" वे बोली "आप जो ढूंढ रहे है वो आप को जवानी में नही, आपके बचपन मे मिलेगा। जाइये किसी पुरानी अल्बम में, पीले पन्नो में अपना बचपन खोजिए।" वाह... बिल्कुल सही बात थी बचपन तो बंद पड़ा हुआ था किसी पुराने अल्बम में।
झटपट सारी पुरानी अल्बम खोज निकाली। में उन तस्वीरों को ले बैठ गया। ऐसा प्रतीत हुआ के जैसे तस्वीरें मुझसे संवाद साधने की कोशिश कर रही है। मेरे कानों में कुछ फुसफुसा रही है। तभी मुझे वो तस्वीर भी मिली; जिसकी मुझे तलाश थी। उस तस्वीर में मुझे वो परछाई नज़र आ ही गई। और मैं उस परछाई की अंगुली थाम चल पड़ा।
कुछ पल पहले तक जहाँ शाब्दिक अकाल पड़ा हुआ था अब भावनाओ की बाढ़ दौड़ रही थी। वे सारे किस्से, कहानियाँ ,किसी भूस्खलन की भाँति पन्नो पर पसरे जा रहे थे। मेरे मानस पटल पर एक अजब सी छटा छा रही थी। वो सारी किताबें, वो सारी परीक्षाए, वो सारी शैतानियाँ, वो बेंच सब कुछ आँखों के सामने उभर आया। मोहक रंगों के इस मायाजाल में एक श्वेत और सुनहरे रंग की छटा सबसे अलग थी।
वो रंग था मेरे शिक्षक, रणजीत सर का। यूँ तो मेरी प्राथमिक पाठशाला में पाँच शिक्षक थे, लेकिन रणजीत सर की बात कुछ और थी। मेरे मन पर उनकी छाप कुछ ज्यादा ही गहरी थी। और सायद, उनसे ये लगाव उनके व्यक्तित्व और उनके द्वारा पढ़ाए जाने वाले विषयों के कारण था। वे हमारे विज्ञान और अंग्रेजी विषय के शिक्षक थे। लेकिन रणजीत सर को केवल शिक्षक कहना गलत होगा। मुझे तो वो किसी जादूगर से नज़र आते। कक्षा में उनके आने के आभास भर से एक अजीब सा बदलाव आता। यूँ लगता के भरी पूरी अदालत में किसी जज साहब का आगमन हो रहा हो। और आगमन भी कैसा उनके आने से पहले ही बाहर गलियारे में उनकी जूतियों की चर चर गूंजने लगती। ऐसा लगता के जूतियाँ , जुतियाँ न होकर उनकी दरबान थी जो हमे सावधान कर रही हो। और फिर खुलता उनका जादुई झोला।
कभी रेड जायंट बाहर झाँकता तो कभी सुपरनोवा। कभी उस सेव के पेड़ के नीचे से होते हुए न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण आता; तो कभी मीनार से पत्थर फेंकते गैलेलियो चचा के नियम । कभी अंडों पर बैठने वाले एडिसन की रौशनी तो, कभी पेड़ो से बात करने वाले जगदीशचंद्र बोस का ज्ञान। ऐसा लगता के सर के छड़ी घुमाते ही हमारी कक्षा के ब्लेक बोर्ड में छेद हो जाता, और हम उस छेद से बायस्कोप देखने लगते।
सर किसी बहरूपिये से हर किरदार में ढल जाते। हर बारीक बात जो किताब में हो या न हो उसकी चर्चा करते। वे हमें प्रश्न के बदले उत्तर न देकर नया प्रश्न देते और उन प्रश्नों से ही हमारे प्रश्नों का हल होता। और जब पाण्डे चाचा तास खत्म होने की घण्टी बजाते तो यूँ लगता के उन्होंने ने सर के मायाजाल को तोड़ दिया हो। हम सभी को किसी अन्य जगत से पृथ्वीलोक में वापस आने का एहसास होता और ऐसा केवल विज्ञान पढ़ाते वक्त न होता, अंग्रेजी पढ़ाते वक्त भी वे हमें शेक्सपियर, मिल्टन और वर्ड्सवर्थ से रूबरू करवा देते। उन्होंने जब हेमेलिन के पाइड पाइपर की कहानी सुनाई तो ऐसा लगा ये तो रणजीत सर ही तो है जो सभी को लिए जा रहे है कही दूर किसी माया नगरी में।
वे इकलौते ऐसे शिक्षक थे जो हमारे नमस्ते का जवाब देते, और वे इकलौते ऐसे सर थे जिनसे बिना घबराए कुछ भी पूछा जा सकता। यदि किसी विषयवस्तु मे गहन चर्चा के पश्चात भी कुछ उलझन होती तो हम उनके घर पहुँच जाते और वे भी किसी अतिथि की भाँती हमारा आदर सत्कार करते। उलझन तो दूर होती ही साथ साथ चाय और नाश्ता भी मिल जाता। सर विदुर थे कोई संतान न थी ,अकेले ही रहते किसी योगी की भाँति। लेकिन वो कहते है न, गुजर अच्छी हो या बुरी वो गुजरती जरूर है। हमारी अच्छी गुजर रही थी। लेकिन सारी अच्छी चीजों में एक ही दिक्कत होती है; वे हमेशा के लिए नही रहती। हम बड़े हुए कक्षाए बदली अब प्राथमिक से हाई स्कूल पहुँच गए।
अब भी विज्ञान और अंग्रेजी तो थे पर वो पहले वाली बात न थी। जब भी विज्ञान या अंग्रेजी का तास होता तब में और मेरे सारे सहपाठी रणजीत सर की कक्षा को याद कर रहे होते। अब न तो ब्लेक बोर्ड में कोई सिनेमेटिक छिद्र होता और ना ही कोई पाइड पाइपर अपना तिलिस्म बिछाता। अब बस कट रही थी कोर्स पूरा हो रहा था। प्रश्न चल रहे थे, आई.एम.पी प्रश्न और वो मोस्ट आई.एम.पी प्रश्न भी , दो बार, तीन बार, लिख कर लाओ दस बार... फिर एक दिन हम सभी विद्यर्थियों ने हिम्मत जुटाई और अपने प्रधनाचार्य को आवेदन दे गुहार लगाई के हमे रणजीत सर चाहिए। उन दिनों स्कूल प्रसाशन को, आवेदन दे कुछ माँगना सामान्य बात न थी।
प्रधनाचार्य ने हम सभी को अपने कार्यालय में बुलाया और कहाँ, "क्या लगता है तुम पहली बेच हो जो प्राथमिक विभाग से हाई स्कूल आई है? ऐसे आवेदन पहले भी आए है और आएँगे भी। फिर भी तुम लोग चाहो तो अपने रणजीत सर से बात कर लो यदि वो मान जाए तो मुझे कोई दिक्कत नही।" हमें लगा के ये तो काम बना समझो। हम उस दिन स्कूल समाप्त होने के बाद रणजीत सर से मिलने गए। वे स्टाफ रूम में थे उन्हें पांडे चाचा द्वारा संदेश भिजवाया। हम सभी को एक कमरे में बिठाया गया। कुछ देर बाद गलियारे में वहीँ जूतियों की आवाज़ गूंज रही थी। सर के कक्षा में आते ही हम सभी ने एक साथ खड़े हो नमस्ते कर उनका अभिवादन किया। उन्होंने ने भी नमस्ते किया और कहाँ, "बताइए आप लोग कौन है और में आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?" मैंने तपाक से कहाँ, "क्या सर इतनी जल्दी भूल गए आप?" वे मुस्कुराए और बोले, " जी नही, में तुम सभी को जानता हूँ इसलिए किसी को नही जानता"। हमारी कुछ समझ मे न आया सो हमने कहाँ सर हम आपके भूतपूर्व विद्यार्थी है आपने हमें कई वर्षों तक पढ़ाया है आप हमें कैसे भूल गए सर ?
वे फिर मुस्कुराए और बोले, " बच्चों मैं मील का पत्थर हूँ। मेरा काम है राह दिखाना । में तुम्हे आगे की राह दिखा चुका हूँ और तुम लोग भी आगे बढ़ चुके हो; तो अब पीछे मुड़ना कैसा?" हम सभी एक सुर में बोले, "हम कुछ नही समझना सर, हम ; बस इतना जानते है कि, हमें आपसे ही अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ना है।" वे कुछ देर तक चुप रहे और बोले ये संभव नही" हमने उनसे कारण पूछा तो वे बोले, "तुम लोग अब बड़े हो गए हो । विश्वास और श्रद्धा उम्र के साथ सदैव व्यस्त अनुपात में होते है।
इंसान जब बड़ा हो जाता है तो उसमें विश्वास कम और शंका ज्यादा हो जाती है। और जहाँ भी शंका हो वहाँ जादु या चमत्कार नही होते।" ये मेरा सिद्धांत है, और में इस पर अडग हूँ। आप लोग जाइए और मन लगाकर आगे की पढ़ाई कीजिए। उनकी कही बाते उस वक्त हमारे पल्ले न पड़ी, और में अपने एक मित्र बृजेश के साथ उनके घर जा पहुँचा। देखते ही उन्होंने कहा, "आओ मनीष , आओ बृजेश" हम भीतर गए और फर्श पर बैठ गए। वे चुपचाप हमारे सामने बैठ गए। हम दोनों भी चुपचाप बैठे रहे। लेकिन अंततः जब मुझ से रहा न गया तो में बोला, "सर आपको स्कूल में क्या हुआ था, सकूल में आप हमें पहचान ही नही रहे थे" वे मुस्कुराए और बोले , "स्कूल में तुम दोनों फरियादी बन कर आए थे, तुम वहाँ मेरे विद्यालय के हाई स्कूल विभाग के विद्यार्थी बन कर आए थे, लेकिन यहाँ तुम मेरे भूतपूर्व विद्यार्थी बन आए हो।" बृजेश बोला, "यदि ऐसा है तो आप हमें पढ़ाते क्यो नहीं ?"
वे बोले, "बेटा हम शिक्षक माली की तरह होते है। और में वो माली हूँ जो गमलो में लगे हुए छोटे छोटे सुंदर पौधों को बड़े प्यार, दुलार से सींचता है। मैंने तुम्हें सींचा तुम बड़े हुए अब गमलो से निकल उर्वर भूमि में अपनी जड़ों को उतारो। तुम्हारी आगे की शिक्षा तुम्हारी जड़ों को गहराई तक ले जाएगी।" में उन्हें बीच में टोकते हुए बोला, "यदि आप माली है तो बीच मे क्यो छोड़ रहें है। अभी हमारी जड़े कहाँ जमी है उस, उर्वर माटी में।"
वे मुस्काए और बोले, "अभी अभी गमला और छाँव छूटी है तुम लोगो की, बेटा ।अब धूप की आदत डालो। स्वअध्यन और स्वाध्याय करो। शिक्षक का काम केवल दिशा दिखाना है मार्ग तो तुम्हे तय करना है।" बृजेश ने कहा, " तो क्या वो माली गमलो के पौधों को बड़ा कर मिट्टी को सौप भूल जाए यह सही है ?" सर कुछ पल चुप रहे फिर बोले, "हाँ, यदि माली ऐसा न करे तो आने वाले पौधों के साथ अन्याय कर बैठेगा। और बड़े पौधों को ऊंचा उठाने के लिए उन्हें काटना छाँटना पड़ता है।
उन्हें एक दौड़ का, हिस्सा बना ,हौड़ लगाना सिखाना पड़ता है। में कच्ची माटी के घड़ो पर कलाकारी दिखाता हूँ उन्हें भठ्ठियों में पकाता नही।" हमारे सारे तर्क खत्म हो चुके थे। हम उनसे विदा होने के लिए खड़े हुए तो वे बोले, " मील का पत्थर अपनी जगह नही बदलता बच्चों। तुम्हारे पीछे अभी हज़ारो मुसाफिर और हैं।" हमने उनके चरण स्पर्श किये और घर की ओर चल दिये। सायद उस समय तो उनकी सारी बातें समझ मे न आईं लेकिन आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो ..उनके हर शब्द, तर्क और उपमा में सटीकता और सच्चाई की चमक दिखाई देती है। कई बार सोचता हूँ, क्या में भी कच्चे घड़ो को भठ्ठियों में पकाता आ रहा हूँ ? सायद हाँ। और क्या मेरे विद्यार्थी मुझे जादूगर समझते है? क्या उन्हें मेरे ब्लैकबोर्ड पर वो फ़िल्म दिखाई देती है ? शायद ना, क्या में भी कोशिश कर रणजीत सर बन सकता हूँ ?
