महारानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर विशेष
महारानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर विशेष
बुंदेले हर बोलों के मुंह, हममनेसुनी कहानी थी।
खूब लगी मर्दानी वह तो, झांसी वाली रानी थी।
-सुभद्रा कुमारी चौहान
बीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को उत्तर प्रदेश के काशी में हुआ था। उनके पिताजी का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी सापरे था। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका था। लोग प्यार से उन्हें मनु कहकर बुलाते थे। सन् 1850 में उनका विवाह गंगाधर राव से हुआ। 1 वर्ष पश्चात उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन चार माह के पश्चात उनके बालक की मृत्यु हो गई। राजा को इससे बड़ा धक्का लगा और वे पुत्र बियोग में बीमार पड़ गये। 21 नवम्बर 1853 को उनकी मृत्यु हो गई।
समस्त झांसी शोक में डूब गयी। महाराजा गंगा धर राव का निधन महारानी के लिए असहनीय था। किन्तु उन्होंने धैर्य से काम लिया। वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के एक बालक दामोदर राव को गोद लिया था। परंतु अंग्रेजों ने उस बालक को दत्तक पुत्र मानने से इंकार कर दिया।
27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। रानी को जब यह खबर मिली तो रानी के मुख से यह वाक्य सहसा निकल गया, 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी'। 07 मार्च 1854 को झांसी पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। झांसी की रानी के लिए जो पेंशन अंग्रेजों ने स्वीकृत की थी उसे ठुकरा दिया ।
यहीं से देश के प्रथम स्वाधीनता संंग्राम के क्रांति का बीज अंकुरित हुआ। अंग्रेजों की राज्य हडप नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजा असंतुष्ट हो गए । देश में विद्रोह की आग भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनायी।
सम्राट बहादुर शाह जफर, बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाह, वानपुर के राजा मर्दन सिंह और तात्या टोपे जैसे बीर क्रांति की इस ज्वाला में आहुति देने के लिए तत्पर हो उठे।
31 मई 1857 को क्रांति की तिथि निश्चित की गई, किन्तु इससे पहले ही क्रांति की ज्वाला जल उठी। 7 मई 1857 को मेरठ में अंग्रेजी सेना के सैनिक रहे मंगल पाण्डेय ने बिद्रोह का बिगुल बजा दिया। इस बिद्रोह की आग देश भर में फैल गयी। अंग्रेजों ने पूरी शक्ति से विद्रोह को दबाने का प्रयत्न किया।
अंग्रेजों ने शाहगढ़, मदनपुर, सागर, गढ़कोटा, वानपुर और तालबेहट पर अपना अधिकार जमा लिया और जनता पर घोर अत्याचार करते हुए झांसी की ओर कदम बढ़ाया। उन्होंने अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में लगाया।
रानी को वानपुर के राजा मर्दन सिंह से इस युद्ध की सूचना मिल चुकी थी। 23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। रानी के कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने तोपों से ऐसा निशाना लगाया कि अंग्रेजी सेना को दिन में तारे नज़र आने लगे।
बीरांगना रानी ने सात दिनों तक वीरतापूर्वक लड़ते हुए झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी सेना से अंग्रेजों का बीरता पूर्वक मुकाबला किया। अपनी पीठ पर दामोदर राव को बांधकर, घोड़े पर सवार होकर अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं।
18 जून 1858 को रानी ग्वालियर जा रहीं थीं। बिश्वासघातियों ने रानी के आगमन की सूचना अंग्रेजों को दे दी थी। कोटा की सराय में अंग्रेजी सेना ने रानी को घेर लिया। बड़ा घनघोर युद्ध हुआ। उनका प्रिय घोड़ा भी स्वर्गलोक सिधार चुका था।रानी ने अपने नये घोड़े के साथ अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया और वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गयीं। कुछ लोगों का कहना है कि वे घायल अवस्था में ग्वालियर स्थित गंगादास की बड़ी शाला में ग्रीन और संतों से कहा कि कुछ ऐसा करो कि मेरा शरीर अंग्रेज न छू पाएं। इसके बाद रानी स्वर्ग सिधार गईं ।
संतों ने बड़ी शाला में स्थित एक झोंपड़ी को चिता का रुप देकर रानी का अंतिम संस्कार कर दिया। अंग्रेज देखते ही रह गए।
