मैं माधुरी दीक्षित

मैं माधुरी दीक्षित

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अनीता की शादी के दिन करीब आ रहे थे। तीन महीने पहले शादी पक्की हुई थी और पंद्रह दिन में शादी थी।


अनीता ने बस कॉलेज ख़त्म ही किया था कि रिश्तेदारी की जान - पहचान से एक बहुत अच्छा रिश्ता उसके लिए आया। अनीता का परिवार मध्यमवर्गीय मान - सम्मान वाला परिवार था। अनीता गुणवान लड़की थी, पढ़ाई में अव्वल और बहुमुखी प्रतिभावान। कॉलेज से वाद विवाद टीम में अग्रणी थी और कई पुरस्कार पा चुकी थी। पढ़ाई के बाद पीएचडी करने की इच्छुक थी।


घर में उसके विवाह को लेकर कोई बहुत जल्दी नहीं थी मगर जब विनय के यहाँ से रिश्ता आया तो सभी चौंक गए। विनय का परिवार शहर के नामी व्यवसायी परिवारों में से था। किसी समारोह में उन्होंने अनीता को देखा और पूछताछ कर विवाह का प्रस्ताव भेजा। अनीता के माता - पिता इतने अच्छे परिवार के प्रस्ताव को ना नहीं कहना चाहते थे।


विनय की इच्छा थी कि लड़की सुयोग्य हो और आगे चलकर परिवार के व्यवसाय को समझ उसमें हाथ बंटा सके। विनय के पिता ने पहल कर प्रस्ताव भिजवाया, परिवार के सभी सदस्य इस रिश्ते से प्रसन्न थे मगर विनय की माँ देविकाजी कुछ विशेष ख़ुशी का प्रदर्शन नहीं कर रही थीं।


“आजकल के लड़के भी बस हवाई बातें करते हैं। योग्य पत्नी, क्या योग्य बहू बनकर घर भी संभालेगी? और क्या वो सास की बात सुनेगी?" मन ही मन बेटे की पसंद और उसकी ख़ुशी में खुश थी, लेकिन इस निर्णय में उनकी बस हामी ली जा रही थी, इस बात से कुछ आहत थी। पति और बेटे ने पहले ही स्वीकृति दे दी थी। अनीता के बारे में सुनकर लगा ठीक है, अच्छे परिवार की लड़की है, मगर वाद-विवाद चैंपियन? उन्होंने मन ही मन सोच लिया कि पहली मुलाक़ात से ही रवैया थोड़ा सख्त रखना होगा वरना कहीं घर में वाद-विवाद प्रतियोगिता न शुरू कर दे।


जैसे ही रिश्ता पक्का हुआ देविका जी ने ऊँचे घर का बखान करना शुरू कर दिया। सगाई की रस्म में अनीता के गले में अपना सोने का हार पहनाते हुए बोली, “अब ये हल्के गहने, कपड़े पहनना छोड़ दो, बड़े घर की बहू होने जा रही हो। बनारस से ख़ास डिज़ाइनर बनारसी साड़ियां मंगवा रहे हैं तुम्हारे लिए, लगे कि हमारे घर ब्याहने जा रही हो।"

उनकी बातें चुभती मगर सब चुप रह जाते। "वो प्यार से ही कह रही हैं बेटा, इकलौते बेटे की शादी है न। हर माँ के सपने होते हैं बेटे की शादी को लेकर, छोटी छोटी बातों का बुरा नहीं मानते। बड़े लोग हैं, नखरा तो उठाना ही पड़ता है।'' माँ अनीता को समझाती।


शादी के कुछ दिन रह गए थे और तैयारियां जोरों पर थी। अब तो बस रोज़ ही फ़ोन पर उसे नसीहतें मिलती। "शहर के सब नामी लोग आएंगे, सबसे बात करना, चुपचाप न खड़े रहना। लहंगा इतना गाढ़ा लाल? नहीं कुछ नए ट्रेंड के चुनो। पुराने फैशन की ज्वेलरी बिलकुल नहीं। पार्लर ज़रा ढंग का चुनना, मेकअप बहुत भड़कीला न हो। कॉन्टिनेंटल डिशेज़ सीख लो, हमारे घर में अक्सर खायी जाती हैं। हील पहनकर चल पाती हो न? पर्स, घड़ी ब्रांडेड ही पहनना, सस्ती न लगे।"


अनीता हर बार ये बातें सुनकर झुंझला जाती मगर सब्र से बस हाँजी हाँजी कर सुन लेती। बस इसी तरह बातें नसीहतें सुनते, तरह तरह के नखरे उठाते शादी का दिन आ ही गया। मंडप में फेरों की तैयारी चल रही थी। पंडित जी ने रस्म के लिए सबको बैठाया। अभी रस्म शुरू होने ही वाली थी कि सासूमाँ अपनी सहेलियों को सुनाने के लिए बोली, "हमारे यहाँ परंपरा है कि शादी के बाद लड़की को नया नाम दिया जाए। नया घर, नया जीवन और नया नाम। क्यों? फेरों के साथ नया नामकरण भी हो जाए?"


अनीता से अब रहा न गया। शालीनता के साथ मुस्कुराकर बोली, "हाँ मम्मीजी, आप ठीक कह रही हैं। माँ-पापा ने बड़ा पुराना सा नाम दे दिया। अब तो मैं अपना मनपसंद नाम रखना चाहूंगी 'माधुरी दीक्षित' और इनके लिए 'रणबीर कपूर' अच्छा रहेगा, ठीक है न?" वहां खड़े सभी मेहमान अनीता की भोलेपन से कही बात पर हंस पड़े।

सासूमाॅं झेंपते हुए बोली, "अजी नाम में क्या रखा है! पंडित जी, जल्दी रस्म शुरू कीजिये शुभ मुहूर्त निकल न जाए।"


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