SHWETA SINGH

Inspirational

4.6  

SHWETA SINGH

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मायका

मायका

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मायका यानी मां का। मायका शब्द सुनते ही जहां एक विवाहित बेटी के मन को एक अलग सी निःशब्द खुशी महसूस होती है, वहीं दूसरी ओर समाज कहता है कि शादी के बाद एक लड़की के लिए उसका ससुराल ही उसका "अपना" परिवार होता है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। वास्तव में एक स्त्री के जीवन में मायका और ससुराल दोनों का ही अपना अलग-अलग महत्व होता है। यहां मेरा तात्पर्य मायका और ससुराल को लेकर कोई द्वंद करना नहीं है बल्कि एक अच्छे और सकारात्मक परिवार से है। यह परिवार एक लड़की के लिए उसके मायके का भी हो सकता है और ससुराल का भी। क्योंकि किसी भी व्यक्ति के लिए परिवार का मतलब है उसकी दुनिया, उसका घर-संसार, जहां वह खुद को सुरक्षित और खुश महसूस करें, जहां सब उसे अपना मानें और वो भी हक से सबको अपना कह सके, जहां एक-दूसरे के दिलों में आपस में प्यार और सम्मान हो।

ऐसे ही एक प्यारे से परिवार में पली- बढ़ी कहानी है सुरभि की। सुरभि के जन्म के समय ही उसकी मां वन्दना की मृत्यु हो गई थी। तब उस मुश्किल घड़ी में, इतनी नन्ही सी सुरभि के सर से मां का साया उठ जाने पर, उसके नाना-नानी ने उसे पालने की जिम्मेदारी उठाई। एक तो इतनी नवजात बच्ची, ऊपर से बेटी वन्दना की मौत से उसकी मां (सुरभि की नानी) बहुत टूट गईं थीं, लेकिन नन्ही सी सुरभि को देखकर वो अपने-आप को संभाल लेती थीं और बाकी परिवारजन यानी सुरभि के नाना, मौसी और मामा इन सब के सहयोग से उन्हें बहुत हिम्मत मिलती थी। धीरे-धीरे सुरभि अपनी मासूमियत से सबके दिलों में समाने लगी। इधर कुछ साल भर बीतने पर पता चला कि सुरभि के पिता यानी वन्दना के पति ने दूसरी शादी करके अपना घर बसा लिया और एक नई जिम्मेदारी में बंध गए।

इधर सुरभि दो साल की पूरी हो गई। सुरभि की मां वन्दना अपने भाई-बहन में सबसे बड़ी थी और सुरभि के जन्म के समय महज़ २२ साल की थी। इतनी कम उम्र में बेटी वन्दना के गुज़र जाने पर, सुरभि की नानी ने उसे बिल्कुल एक मां की तरह पाला था और अपनी सारी ममता उस पर लुटा दी थी। इसी ममतत्व से नन्ही सुरभि उन्हें मां कहकर बुलाने लगी और उनके बिना एक पल भी नहीं रह पाती थी। इसी तरह वो अपने नाना को पापा, मौसी को दीदी और मामा को भैया कहकर बुलाने लगी क्योंकि इतनी छोटी सी बच्ची को यह सब बताना और समझाना मुश्किल था कि उसकी मां बचपन में ही उसे छोड़ कर चली गई थी। इसलिए सभी लोगों ने मिलकर यह फैसला लिया कि सुरभि के बड़े और समझदार होने पर ही उसे सारी बात बताएंगे। 

सब के साथ हंसते-खेलते समय बीतने लगा और सुरभि दस साल की पूरी हो गई। कुछ समय बाद उसकी मौसी यानी दीदी की शादी हो गई और पांच-छः साल बाद उसके मामा यानी भैया की भी शादी हो गई लेकिन किसी के भी दिल में सुरभि के लिए प्यार कम न हुआ। अपनी मामी को भी वह भाभी मां कहकर बुलाने लगी और उनसे भी उसने भरपूर प्यार पाया। अब सुरभि १८ साल की हो चुकी थी। पढ़ाई में बचपन से ही अव्वल रही सुरभि ने अपने परिवार के सहयोग से एम बी बी एस की डिग्री हासिल कर ली और प्रैक्टिस शुरू कर दी। अब तक उसे यह भी पता चल चुका था कि उसकी मां उसे जन्म देते ही इस दुनिया से चली गई थी क्योंकि अपनी मां की तस्वीर देखकर वह अक्सर सभी से सवाल करती और जानने की कोशिश करती थी। कुछ ही समय बाद एक अच्छे से परिवार में सुरभि की शादी पक्की हो गई। लड़का भी डॉक्टर था और सुरभि की पसंद का था। धीरे-धीरे शादी का दिन नजदीक आ गया। सुरभि का पूरा परिवार शादी की तैयारियों में लगा हुआ था। उसके नाना-नानी को तो ऐसा लग रहा था मानो जैसे उनकी तीसरी बेटी की शादी हो रही है। साथ ही साथ उनके मन में सुरभि के प्रति अपनी समस्त जिम्मेदारियों को भली प्रकार निभा पाने की सन्तुष्टि भी थी। इधर सुरभि भी अपने प्रति सब के प्यार और लगाव को देखकर, भीगी आंखों से अपनी स्वर्गीय मां वन्दना की तस्वीर को निहार रही थी और अपना पूरा मायका (यानी मां का) साथ पाकर मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दे रही थी।

वास्तव में कोई समझे या न समझे लेकिन एक बेटी के लिए जीवन के हर पग पर, चाहे सुख हो या दुःख उसके मायके का साथ होना एक सौभाग्य की बात है।


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