Dr Sushil Sharma

Inspirational

3  

Dr Sushil Sharma

Inspirational

मानवीय संवेदनाएँ वर्तमान सन्दर्भ में

मानवीय संवेदनाएँ वर्तमान सन्दर्भ में

7 mins
181


इंसान की संवेदनाएं बदल जाती हैं लेकिन भयावह बात यह है कि इंसान भावहीन होने लगा है। संवेदनाएँ क्या हैं? यह प्रश्न आधुनिक समय में बहुत ही कम लोगों के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करता है। कारण- संवेदना की कमी या संवेदना को महसूस न करना। संपूर्ण सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो भावनाशील है उसमें से यदि संवेदनाएं निकाल दी जाए तो फिर जो शेष बचेगा वह भले ही मनुष्य जैसा लगे पर स्तर मानवीय नहीं कहा जा सकेगा, भाव संवेदनाएं ही जीवन को मनुष्य से जोड़तीं हैं मनुष्य प्रकृति के बीच मैत्री स्थापित करती हैं व्यवस्थाएं बनाए रहती हैं।

यह मनुष्य के लिए दुर्भाग्य की बात है कि उस जैसा विचारशील प्राणी मानवीय गुणों से युक्त होकर भी सृष्टि के दूसरे प्राणियों के भाव संवेदनाएं को समझने में अक्षम होता जा रहा है मनुष्य मर्यादा शील विचारशील प्राणी होने का गर्व करता है पर टूटते हुए संबंधों, नष्ट होती पारिवारिक शांति, उत्पन्न होती जा रही दिशा विहीन पीढ़ियां और अराजकता पूर्ण सामाजिक संबंध यह बताते हैं कि हमारी संवेदनाओं को महसूस करने की शक्ति नष्ट होती जा रही है।


हमारे मन में सभी प्रकार के भाव संचित होते हैं, समय समय पर हम जैसी परिस्थितियों से गुजरते हैं वैसे ही भाव हमारे मन में उत्तेजित होते हैं। मानवीय संवेदनाएं मनोवैज्ञानिक रूप से हमें प्रभावित करती हैं। ये मानवीय संवेदनाएं मनोवैज्ञानिक रूप से एक मनुष्य के मन को दूसरे मनुष्य के मन से जोड़ती हैं यही कारण है कि कभी किसी व्यक्ति के दुख को देख कर हम अकस्मात ही दुख का अनुभव करते हैं यह हमारी ज्ञानेन्द्रियों के स्पंदन के कारण होता है। उस क्षण उसके लिए हमारे मन में संचित करुणा व दया के भाव उत्तेजित होते हैं। सरल शब्दों में इन्हीं भावों की उत्तेजना को मानवीय संवेदना कहते हैं।


संवेदना शब्द किसी एक विशेष अर्थ को व्यंजित नहीं करता। यह विविध अर्थों का बोधक है। संवेदना को हम व्याकरणिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही रूपों से समझ सकते हैं। संवेदना शब्द की व्युत्पत्ति ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक ‘विद’ (वेदना) धातु में ल्युट प्रत्यय लगाने से होती है अर्थात सम + वेदना=संवेदना। यह संवेदना का व्याकरणिक अर्थ है। इसका शाब्दिक अर्थ है– प्रत्यक्ष ज्ञान, अनुभूति, भावना जागृति, उत्तेजना आदि।


अत: समवेदनाओं का सीधा संबंध हमारी भावनाओं और बोध से होता है। संवेदना का भाव केवल मानव को मानव से नहीं जोड़ता बल्कि पशु-पक्षियों के लिए भी हमारे मन में ये भाव उत्तेजित होते हैं। संवेदना की कोई सीमा नहीं, ये असीम भाव हैं। जिनसे हमारा कोई रिश्ता नहीं होता उनके प्रति भी हमारे मन में संवेदना उत्पन्न हो जाती है। मानवीय संवेदनाओं और अन्य जीवों की संवेदनाओं में मूलभूत अंतर स्वार्थ एवं बुद्धि का है। अगर हम अन्य जीवों की संवेदनाओं की बात करें तो धनेश पक्षी को अधिक कष्ट पूर्ण साधना करनी पड़ती है वह अपने अंडे सेने के लिए आवश्यक ताप तथा मादा की सुरक्षा के लिए जिस कोटर में रहता है उसका मुख बंद कर देता है वह उतना ही खुला रहता है जिससे चोंच भर बाहर निकल सके बस इसी से नर अपनी मादा को खिलाता पिलाता रहता है मातृत्व भावना यदि देखनी हो तो सारस पक्षी को देखना चाहिए वह अपने अंडे इतने सुरक्षित पानी से भरे स्थानों में देती है कि उन्हें किसी प्रकार की कोई क्षति न पहुंचे ,कौवे और सर्प जैसे जीव ही अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक भावना सील होते हैं। हिंद महासागर की कुछ मछलियां तो अंडों के समुच्चय को अपने साथ-साथ लिए घूमतीं हैं एरियर्स और तिलपिया मछलियां तो अंडों को अपने मुख में सेती हैं और बंदर तथा चिंपांजी पेट और पीठ पर लादे बच्चों को बड़े होने तक घुमाते हैं।


मानव जीवन में संवेदना का विशेष महत्व है। मनोवैज्ञानिक आधार पर मानव के मन व मस्तिष्क दोनों से संवेदना का चिर संबंध है। हम सभी कभी न कभी संवेदना के भावों से सराबोर अवश्य होते हैं आवश्यकता है महसूस करने की। जब मानव मन स्वार्थ के भावों से भर जाता है तब उसे किसी के प्रति संवेदना का एहसास नहीं होता। स्वार्थ मानव मन को क्लेश, स्पर्धा व अहं भावों से परिपूर्ण कर देता है तब करुणा, दया व प्रेम के भावों के लिए स्थान ही नहीं रहता। जहां सद्भावना होगी वहां तालमेल स्वस्थ बनता और निभता चला जाता है अन्य प्राणी इस कारण मजे में रहते और दिन गुजारते हैं क्योंकि उनमें परस्पर प्रेम अपने आप रहता है सद्भाव के अभाव से पनपते स्वार्थ और दो प्रतिद्वंदी स्वार्थों के टकराव से वैमनस्य बनतें हैं जहां कटुता होगी वहाँ विग्रह होगा वहां प्रगति भी ठप हो जाएगी और सद गति का मार्ग अपना लेने मानवीय संवेदनाओं को बल मिलता है। जब मानव मन दूसरे के दुख में दुख का अनुभव करता है तब मन करुणा द्या और प्रेम के भावों से सराबोर हो जाता है। उस समय मानव हृदय पवित्र और निर्मल हो जाता है। न किसी के लिए बैर रहता है और न ही ईर्षा की भावना। तब स्वार्थ भाव त्याग कर किसी के लिए कुछ अच्छा करने की भावना जाग्रत होती है, यही सच्चे अर्थों में मानवीय संवेदना कही जाती है। यही मानवीय संवेदना मानव को एक आदर्श और संवेदनशील बनती है।

वर्तमान समाज में मानव धन अर्जन के लोभ में अपनों को ही दुख पहुचाते रहते हैं। अनुदान कितनी ही कीमती क्यों ना हो उनका महत्व समझना और उनके उपयोग में सतर्कता बरतना ही हमारी संवेदना को सुरक्षित बनाती है अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों के ही अपने-अपने लाभ हैं अनुकूलता सुविधा एवं सफलता प्राप्त होने से मनुष्य को आत्म गौरव की अनुभूति कराती है सफलता पर गर्व करने के साथ-साथ वह अपने व्यक्तित्व के वर्चस्व की अनुभूति भी कराती है। मनुष्य में आत्म बल सर्वोपरि बल है उससे बड़ा और कोई बल नहीं है किसी भी राष्ट्र के श्रवण सर्वांगीण विकास में संवेदना उनका महत्वपूर्ण स्थान है समसामयिक परिदृश्य में वैज्ञानिक साधना एवं तकनीकों के माध्यम से शिक्षा एवं संवेदना ओं का स्वरूप अधिक रचनात्मक एवं रोजा रोजगार और मुखी होता जा रहा है आज अधिक उदारीकरण के कारण शिक्षा एवं संवेदना के परिदृश्य तेजी से बदल रहे हैं आज की पीढ़ी को ना सिर्फ विविध क्षेत्रों में ज्ञान की जरूरत है बल्कि व्यक्तित्व एवं आचरण को उन्नत करने हेतु मूल्यों की भी आवश्यकता महसूस की जा रही है इसलिए वर्तमान संदर्भ में हमारी संवेदनाएं वैश्विक होनी चाहिए ना की स्वार्थ से परिपूर्ण समसामयिक परिदृश्य में पश्चिमी संस्कृति ने मानवीय एवं नैतिक मूल्यों का पतन के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है संयुक्त परिवारों की परंपराएं टूटती जा रहे हैं इंसान ही इंसान के खून का प्यासा बन बैठा है नैतिक मूल्यों में लगातार गिरावट आती जा रही है हर तरफ भ्रष्टाचार अपराध अनुशासनहीनता और अंतर्विरोध दृष्टिगोचर हैं जो नैतिक एवं मानवीय मूल्य मनुष्य के हृदय में विराजित होते थे वह आज अदृश्य हैं


समाज टूट रहे हैं राष्ट्र खंड खंड हो रहे हैं इसके पीछे संवेदना और मानवता की कमी के कारण भूत है। लोग कितना भी धन संपत्ति अर्जित कर ले किन्तु शांति और सुख कभी भी नहीं प्राप्त कर पाते। लोगों को समझना होगा की जीवन मात्र धन संपत्ति कमाने के लिए नहीं है। बल्कि सभी के साथ रह कर सुख और आनंद का अनुभव काटने के लिए हैं। जरूरतमंदों की सहायता कर के देखिये कितनी संतुष्टि मिलती है। उस आत्मा संतुष्टि का सुख लाख रूपिया कमाने से बड़ा और सुखकर है।


परमात्मा की इस सृष्टि में जहां एक और प्रगति के प्रचुर आधार हैं और सुख संसाधनों की भरमार है वहां विकृतियों और अवांछित भावनाओं की भी कमी नहीं है। उपभोक्तावादी दृष्टिकोण एवं वर्तमान परिवेश में विदेशी संस्कृति का प्रचलन द्रुतगति से बढ़ता जा रहा है जिससे युवा अपनी क्षमताओं का उपयोग आत्महित और राष्ट्रहित में नहीं कर पा रहा है अर्थात युवा वर्ग दिशा विहीन होता जा रहा है। संपूर्ण विश्व में आतंक मद्यपान मांसाहार एवं सांस्कृतिक ह्रास आदि से ग्रसित युवा रुग्ण मानसिकता एवं संवेदनाओं की कमीं से ग्रसित है। ऐसी विकट एवं विषम समसामयिक परिदृश्य में जीवन मूल्यों का पदार्पण होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। आज संपूर्ण विश्व कठिन परिस्थितियों एवं संवेदनाओं की कमी से झूझ रहा है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकृतियों का बाहुल्य है स्थितियां बहुत ही प्रतिकूल हैं धन और पद की लिप्सा ने मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना दिया है व्यक्तिवाद एवं स्वार्थपरता के दबाव में मानवीय संवेदनाएं और जीवन मूल्य चूर चूर होते जा रहे हैं। अतःहम सभी अपने मन को संतुष्ट रखें, संवेदना जाग्रत करें, आपसी सम्बन्धों की कद्र करें, धन की बजाय जीवन में शांति की चाहत रखें। आप स्वयं अनुभव करेंगे की धन संपत्ति से आराम खरीदा जा सकता है लेकिन शांति और जीवन का सच्चा आनंद नहीं। हम सद्भाव और सहनशक्ति पैदा करें यही वर्तमान बिखराव का एकमात्र समाधान है।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational