लंकाधिपति
लंकाधिपति
मैं दशानन रावण हूँ। मुझे घमंड था, अपनी भक्ति पर। त्रिलोकाधपति होने पर। अपनी सोने की लंका पर। अपने शारीरिक बल पर, अपने साम्राज्य पर, अपने भाइयों पर जिन्होंने हर परिस्थिति में मेरा मेरा साथ दिया। हां कुछ ने मेरा साथ छोड़ दिया था। नभ से पाताल तक मेरा राज था। किन्तु राम नाम के एक इंसान के तीर ने मेरे पेट से अमृत निकाल मेरा वध किया व मेरे पापों से मेरा उद्धार किया। तब मुझे पता चला कि वह इंसान नहीं भगवान् है। वह मेरे जीवन का सबसे सुनहरा पल था।
किन्तु आज के रावणों को देखकर मेरा सर गर्व से ऊंचा हुआ है। वे मात्र दिखावे के लिए भक्त है ताकि लोग उनके आधीन रहे। शारीरिक नहीं वे पैसों के दमपर अपनी ताकत आंकते है। वे अपने सीमित क्षेत्र से संतुष्ट नहीं हुए मेरी तरह वे भी त्रिलोकाधिपति बनने का स्वप्न देखते है।
किन्तु वे भूल चुके है कि कलयुग में भी भगवान् आएंगे, पर उद्धार करने नहीं, वध करने।