योगेश्वर स्वामी

Tragedy Classics Inspirational

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योगेश्वर स्वामी

Tragedy Classics Inspirational

कुछ ख्वाब !

कुछ ख्वाब !

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अक्सर कहते है कि ख्वाहिशें स्वयं में ही पड़ाव होती है जिन्हें हम पूरी करने की इच्छा से अबतक लेकर बैठे है,पर उम्र का कोई पड़ाव नहीं होता है जो बिना रुके सफर करती जा रही है। उम्र का सिर्फ गंतव्य स्थल होता है जिसे "मृत्यु" से परिभाषित किया गया है।

खुशियों से लबरेज़ पर दकियानूसी सोच से लिप्त घर में मेरी पहली आवाज किलकारियों के रूप में गूंजी। इस बीच मेरी मां के चेहरे पर खुशी किसी अरुणोदय कि भांति अपनी लालिमा बिखेर रही थी लेकिन इस लालिमा पर भी कुछ धब्बे अनकहे भावो को नजरंदाज करना नहीं चाह रहे थे। कुछ चेहरे उदासी को, तो कुछ चेहरे प्रसन्नता को अपने मुख का आवरण बना चुके थे। और मेरी मां !! जो दिखने में एक साधारण स्त्री लेकिन टटोलने पर गंभीरता, विषाद जैसे कुछ अस्पस्ट शब्दों के अर्थ को बड़ी ही सहजता से अपने अंदर ही समेटे हुए थी। क्यूंकि मेरी मां को.......................

यह लाइन शायद कभी पूरी ना हो पाए, तो इसे यहीं विश्राम देने की कोशिश ............

समय रहते मेरे नन्हे कदम बचपन को गले लगा चुके थे पर सामाजिकता ने मुझे समय की उस चौखट पर बैठा दिया जिसे लांघना मेरे हिस्से में कभी था ही नहीं।

*ये नन्हें कदम अपने साथ बड़े ख्वाबों को संजोकर लाए थे इस बेरंग दुनिया में!!

ये नन्हें कदम अनजान थे उस असामाजिकता से, जिसमें इज्जत और सम्मान के खातिर कई नन्हें कदम इस दुनिया के गर्भ में आने से पूर्व ही एक भेंट चढ चुके थे,, इस भेंट को सामाजिकता ने कुछ नामों से पोषित भी किया था ....जैसे कि "भ्रुण - हत्या" ! ! !

ये नन्ही आंखें जो एक स्वप्न लिए इधर उधर बेअटक दौड़ लगा रही थी मानो जैसे की पूरे आसमान को अपने अंदर संयोजित कर लेगी। ये नन्हीं आंखें इस कैनवास रूपी बेरंग दुनिया को अपने ही रंगों से भर देना चाहती थी लेकिन समय की रेत पर कदमों के निशान बैठकर नहीं बनाए जा सकते थे,,,तो इन आंखों ने एक दौड़ लगाई जो समय की आड़ में लबरेज थी --- आत्मविश्वास, साहस, स्फूर्ति और समय को भी पछाड़ देने की अचूक काबिलियत से। 

समय अपनी धुरी पर अनवरत घूर्णन करता चला जा था।अब नन्हे कदम बड़े हो चुके थे, नन्हीं आंखें सामाजिकता और असामाजीकता को पहचानने लगी थी। नन्हें कान हर उन लक्षणों के आदी हो चुके थे जो कान के श्रव्य माध्यम को भी पराजित कर सकते थे अथार्त अब वो नन्हें कान उन सभी उलाहनों को सुनकर पोषित हो चुके थे जो निराशा और शिकायतों से सन्ने होते थे जैसे कि "ये तुमसे नहीं होगा" , "ये तेरे लायक काम नहीं है, हमारी इज्जत नीलाम करवाएगी यह लड़की"।

असल में ये पंक्तियां ही थी जिन्होंने मेरे लिए एक शिल्पकार का काम किया उस दहलीज को उकारने में,जिसे लांघना दो विचारों पर आश्रित था।

पहला, कि घर की इज्ज़त की नीलामी हो जायेगी और दूसरा, मैं अपने ख्वाबों के पंखों के साथ इस अंतहीन आकाश में स्वतंत्र किसी नभचर की भांति विचरण कर सकती थी, सपनों की दुनिया के दरवाज़े को खटखटा सकती थी, अपने ख्वाबों को एक नया आयाम दे सकती थी, एक अरसे से बंद पड़ी मन के विचारों की खिड़कियां खोल सकती थी, ख्वाबों पर आच्छादित लोगो की गन्दी सोच की मटमैली चादर को आजादी से धोकर विकासशील रस्सी पर सुखा सकती थी और अंततः अपने समाज के साथ ख्वाबों की होली खेल सकती थी जिसमें रंग मेरे खुद के होते।

समय अपनी धुरी पर निर्बाध बीतता चला गया। उम्र की जड़ों को परिस्थितियों ने हालातों से कुछ यूं सींचा कि अब मेरे पास सिंदूरी रंग ही बचा था जो मुझे रूढ़ीवादी परंपरा के अनुसार अपनाना पड़ा। (शादी हो गई )

अक्सर कहते है कि "हस्ताक्षर के नीचे लिखित तिथि समय के अनवरत चालयमान रहने की प्रक्रिया है" अथार्त मेरी उम्र किसी हस्ताक्षर के नीचे लिखित तिथि की तरह अनवरत बीतती चली जा रही थी।

अब तो मुझसे मेरे ख्वाबों की होली खेलने का हक भी छिन चुका था। जो ख्वाब ख्वाहिशों की होली खेलने के लिए बेताब थे वो अब पर्दा, तहजीब और दहलीज जैसे मार्मिक शब्दों के पीछे कहीं विलीन होते नजर आ रहे थे। अब तो मुझे मां बनकर दूसरे घर की दहलीज की सीमाओं में बंधना था। असल में दोनों घरों की दहलीज की निर्माता में स्वयं बन चुकी थी जिसे लांघना उतना ही कठिन था जितना किसी आकाशगंगा के छोर पर खड़े होकर अंतहीन तारों की गिनती करना। दो घरों की दहलीज पर उन ख्वाबों के रंगों को तलाशना चाहा पर अब वो रंग बच्चों की अप्रतिम खुशियों में सिमट गए। जिन आंखों में कैनवास रूपी बेरंग दुनिया में सम्पूर्ण धरा के रंग रंगने की ख्वाहिश थी वो आंखें भी एक साक्षात औरत का रूप देखकर धूमिल प्रतीत होने लगी और साथ में उन आंखों के साथ "कुछ ख्वाब भी समय से पहले धूमिलता के परवान चढ गये"।

पर  इन ख्वाबों को दी जाने वाली आवाज़ एक विष्फोटक हस्तक्षेप जरूर बन उभरेगी जो पूरी असामाजिकता को जकड़ लेगी उन अवसादी बेड़ियों में जो कालांतर में प्रतीक बनेगी उन बुराइयों के खात्मे की,जो समाज को दकियानूसी सोच, ख्वाबों के गर्भ की मौत और सपनों की मृत्युगाथा जैसी ना जाने कितनी ही मार्मिक और भावपूर्ण हादसों का वर्णन दे जाती थी।

और अंत में मैं यह कहना चाहूंगा कि अति को सर्वत्र वर्जित किया गया है।आज के अविवेकी मनुष्य ने हर इन्द्रिय का दुरुपयोग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जिह्वा को ही ले,तो कटु और असत्य भाषण से लेकर अभक्ष्य भोजन तक की दुष्प्रवृत्ति अपनाकर अपना शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आर्थिक सब प्रकार से अहित ही किया गया है। यह दोष जिह्वा के स्वाद और संभाषण क्षमता का नहीं। इनके सदुपयोग किया जाए तो जिह्वा हमारे जीवन में विकासक्रम की महती भूमिका संपादित कर सकती है। अगर मनुष्य सच में विकास के रथ पर आरूढ़ होकर आगे बढ़ना चाहता है तो उसे कोई नहीं रोक सकता। सकारात्मक सोच के घोड़े ही विकास के पथ पर दौड़ लगा सकते हैं और एक नए युग की स्थापना कर सकते हैं।


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