किवदंती बन गए लोग
किवदंती बन गए लोग
कुछ कहानियाँ जो संज्ञान में आ जाती है वह अपने पात्रों को प्रसिद्ध कर देती हैं। बहुत सारी कहानियाँ व पात्र गुमनाम ही रह जाते हैं। आज मैं ऐसी ही महिला के बारे में बतलाने जा रही हूँ। उनका नाम क्या था यह तो नहीं मालूम शायद आशा, अनुपमा, आराधना कुछ भी पर गाँव में सब उनको अन्ना बुआ कहते थे, अन्ना मतलब स्वच्छन्द। बताते हैं कि उनकी शादी के कुछ वर्ष बाद ही उनके पति की मौत हो गई। अब इसमें भी किंवदंतियाँ है कोई कहता है उनके पति फौज में थे, कोई कुछ कहता. . .। पति की मौत पर मिले सारे पैसे ससुराल वालों ने रख लिए और उनको ससुराल में एक बिना तनख्वाह की नौकरानी की जगह मिल गई। कमसिन उम्र, गर्म खून, स्वभाव से भी उग्र, उनको यह अच्छा नहीं लगा। तो सब छोड़ -छाड़कर माँ बाप के घर वापस आ गई।
आज से पचास साल पहले ससुराल छोड़कर आने वाली लड़कियों को अच्छा नहीं मानते थे। माँ बाप ने समझाने की कोशिश भी की तो बोली, दो जून की रोटी ही तो खानी है तो तुम्हारी चाकरी करके खाऊँगी, कम से कम दो बोल प्यार के तो बोलोगे। पर भाई की शादी के बाद उनका यह सुख भी डूब गया। वह अक्सर मेरे घर आती। मेरी अम्मी से बातें करती। दादी बहुत गुस्सा होती जितनी देर वह घर पर रहती दादी गरीयाती (गाली देती) रहती और मेरी अम्मी निरीह सा मुँह बनाकर उन्हें देखती। वह हँसती और कहती तुम जी छोटा ना करो भौजी हमें तो आदत हैं। कुछ उनकी और अम्मी की बातें सुनकर, कुछ अम्मी से पूछे मेरे प्रश्नों के आधार पर जोड़-तोड़ कर उनकी कहानी लिख रही हूँ। उनके ही शब्दों में भौजी काम के लिए हमें कभी इनकार नहीं है पर तुम प्यार से पुचकार कर कराओ, थोड़ी इज्जत दो, चाकरी तो हमने अपनी सास ससुर की ना की। दो बाते तो हमने ससुराल वालों की ना सुनी। फिर जोर से उनका हँसना और अम्मी की आफत I ताई चाची लोगों का बोलना, खुद का घर तो संभाला ना गया दूसरों का घर तुड़वायेंगी। तुम (अम्मी से) बहुत इन से दोस्ती बढ़ा रही हो इरादा क्या है ?
वैसे वह हमारे गाँव की ना थी। वह तो उनकी भाभी से नहीं पटी तो वह अपनी ताई जी के घर आ गई। ताई जी हमारे पड़ोस वाले गाँव में रहती थी I वह प्रशिक्षित दाई एवं स्वास्थ्य कर्मी थी। ताऊ जी के गुजर जाने के बाद ताई जी अकेले ही रहती थी तो उनको अन्ना बुआ का सहारा हो गया। उन्होंने बुआ को भी अपने साथ लगा लिया। यह वह समय था जब इस तरह की नौकरी के लिए किसी विशेष पात्रता या परिक्षा की आवश्यकता नहीं होती थी। ताऊ जी की एक बड़ी सी साइकिल पर बुआ एक गाँव से दूसरे गाँव में आती जाती। शहर भी साइकिल से ही जाती। मुझे याद है जब मैंने पहली बार भैया लोगों को देखकर साइकिल चलाने की जिद की थी तो ताऊ जी बोले, नाम भी अ से है गुण भी सीख लो। तुम भी बड़ी हो के अन्ना बुआ ही बनिहो ( बनोगी)। मैं मासूम समझ ही नहीं पाई कि अन्ना बुआ एक गाली भी है।
खैर साइकिल चलाते समय अन्ना बुआ ने देखा कि गाँव से शहर तक का रास्ता दोनों तरफ पूरा वीरान था। सिर्फ दूर-दूर तक फैले खेत खुली जमीन और सर पर चिलचिलाती हुई धूप। अन्नाबुआ ने बारिश के मौसम में घूरे (कचरे का ढेर) पर उग आयें ढेर सारे जामुन, आम नीम के पौधे निकाले और उन्हें साइकल पर ले जाकर सड़क के दोनों तरफ लगाने की शुरुआत की। सड़क के दोनों ओर की जमीन सरकारी थी। लोगों ने रोकने की कोशिश तो शायद नहीं की पर हँसी बहुत ऊड़ाई। इनका तो नाम ही अन्ना है। काम कुछ है नहीं। चली है पेड़ लगाने। खैर इस साल उन्होंने लगभग 40 एक पेड़ लगाए। पर लोगों को किसी के परिश्रम पर पानी फेरना बहुत अच्छा लगता है। तो अक्सर लोग गाय गोरु उनके पौधों की ओर ही हाँक देते। जानवर पौधों को चर जाते या चलते समय उन्हें कुचल डालते। अब मैं समझ सकती हूँ कि अन्ना बुआ का दिल कितना दुखा होगा। उन चालीस एक पौधों में से तीन पौधे ही चल पाए। सर्दियों में तो ठीक पर जब गर्मियों में पीने के लिए भी पानी बड़ी मुश्किल से मिलता था वह तालाब के पानी को लेकर उन पौधों में डालती। अगले बरस फिर उन्होंने कुछ पौधे उगाए और फिर जाकर लगाए। मैं अम्मी से पूछती, अम्मी उन्होंने सड़क के किनारे ही बीज क्यों न बो दिए ? खैर कुछ सवाल हमेशा अनुउत्तरित रह जाते हैं।
पर इस बार वह मेरे बाबा के पास आई और बोली, "भैया तुम मदद कर दो। गाँव वाले जानबूझकर गाय गोरू हमारे पौधों पर छोड़ देते हैं। तुम बोल दोगे तो . . . "। बाबा बोले मैं गाँव वालों को तो नहीं मना कर सकता हूँ क्योंकि बोलने से कुछ नहीं होगा। पर यह देखो सामने ईट पड़ी है और यह सूखी लकड़ियाँ पड़ी है। तुम चाहो तो ले जाकर उन पौधों की बाड़ बना दो। उन पर अक्सर गुस्सा करने वाले बाबा भी क्या उनका मजाक बना रहे थे ? खैर अन्ना बुआ खुशी खुशी दूसरे दिन से समय मिलने पर ईटें साइकिल पर लेकर पौधों की बाड़ बनाने लगी। सामने वाला अगर आप की क्रिया पर प्रतिक्रिया नहीं करता है तो आपको भी उसको परेशान करने का उत्साह कम हो जाता है। इसी तरह अब गाँव वालों ने अपने जानवरों को उनके पौधों की ओर छोड़ना बंद कर दिया था I शायद बाबा की मदद की वजह से या बाड़ की वजह से, या जो भी हो इस साल बुआ के लगाए लगभग सारे पौधे चल पड़े थे। अब गर्मियों में पानी डालने की समस्या। गाँव के छोटे बच्चों को दस पैसे की दस मिलने वाली टाफ़ियों का लालच दिया। बच्चे भी खुशी खुशी उनके साथ पौधों को पानी डालने के लिए तैयार हो गए। लिखने पढ़ने कहने सुनने में यह जितना आसान लग रहा है यह काम इतना आसान ना था। वर्षो के अथक परिश्रम से बुआ ने अकेले अपने दम पर लगभग साढ़े नौ किलोमीटर लंबी सड़क को दोनों तरफ से हरे भरे पौधों से ढक दिया था। अम्मी बताती है कि बाद में उनका जुनून देखकर गाँव वालों ने भी मदद की। एक बार लोगों को समझ में आ गया कि वह क्या करना चाहती हैं तो हाथ जुड़ते चले गए। सच्ची है जरूरत हमेशा पहला कदम उठाने की होती है और उसे दृढ़ता से रखने की भी।
तीन-चार साल की निराशाजनक परिस्थितियाँ भी बुआ के निश्चय को डिगा नहीं पायीं। पर बाद में उनके इस प्रयास का पूरा श्रेय बड़े लोग उठा ले गए। वो कहते हैं ना राजकुमारी ने राजकुमार के पूरे शरीर की सुई निकाली पर नाम किसका हुआ जिसने आँखों की सुई निकाली। कहानी में तो राजकुमार को बाद में पता चल गया था कि उसके शरीर की सुई निकालने वाली उसकी देखभाल करने वाली कोई दूसरी है। पर सरकार को, लोगों को कभी पता नहीं चल पाया कि साढे नौ किलोमीटर सड़क के दोनों तरफ हरे भरे पेड़ लगाने वाली जीवट की धनी अकेली महिला अन्ना बुआ है। क्या अन्ना बुआ आपके लिए एक नायिका है ? पता नही पर उनसे मैंने सीखा जीवन अपनी शर्तों पर जीना चाहिए। समाज की, परिवार के लोगों की, लोगों के कहने की परवाह किए बगैर। और हाँ उनकी देखा देखी मैं भी कोशिश करती हूँ कि मैं पेड़ लगाने में कुछ योगदान दे सकूँ। मैं अपने कक्षा के बच्चों को प्रोत्साहित करती हूँ कि वह अपने जीवन में कम से कम एक पेड़ अवश्य लगाएँ। पर सच में क्या इतना काफी है ? अक्सर जब मैं चिलचिलाती धूप में शहर की सड़कों पर घूमती हूँ। सड़क के बगल की खाली जगह देखकर मन करता है काश मैं भी अन्ना बुआ की तरह इस सड़क को दोनों तरफ से हरा भरा कर दूँ। पर नहीं, हर एक के बस में नहीं है अन्ना बुआ होना।
आज अन्ना बुआ सशरीर उपस्थित नहीं है Iपर मैं उनके लिए कहीं से भी था शब्द का प्रयोग नहीं कर पायी। मानो या ना मानो वह जीवित है अपने लगायें गये पेड़ों में।
