किताबी बातें
किताबी बातें


रज़िया ने इस ऊहापोह वाली स्थिति में अपने अजीज रुखसाना को बुला भेजा,सब कुछ सुनने के बाद रुखसाना ने कहा "देखो रज़िया किताबी बातें किताबों में ही अच्छी लगती है,रही तुम्हारी बात तो इतना समझ लो कितनी भी अच्छी किताब हो उसको पलटते रहना चाहिए वरना दीमक खाने या धूल की परतें जमने का डर बना रहता है...."
रज़िया ने शौकत से निकाह अपनी मर्जी से किया था, हालांकि शौकत उनसे उम्र में बड़े थें।बचपन से घर की जिम्मेदारियों के चलते शौकत कब अपनी जवानी को पार कर गये उन्हें खुद नहीं पता चला।सबसे छोटी बहन रुखसाना के निकाह के समय शौकत और रज़िया का आमना सामना और निकाह की जरुरत के चलते कुछ बातें भी हुयी थी। रुखसाना के बार बार अपने भाई के त्याग और जिम्मेदारी के समर्पण की बातों के चलते रज़िया उन्हें पसंद करने लगी, पुरुष एक स्त्री में जहां खूबसूरती को अव्वल स्थान देता है महिलाओं के लिए त्याग, समर्पण, इल्म,दौलत,ताकत भी एक वजह होती है।शौकत का त्याग ही रज़िया के मन में प्यार की तरह बस गया।
यूं तो घर वाले अपने बेटी से दस साल बड़े शौकत को पसंद नहीं थे पर रज़िया की जिद उनके सोच और ख़िलाफत पर भारी पड़ी।शादी के बाद शौकत ने जिम्मेदारी मे कुछ पलों के ठहराव को देखते काम आगे बढ़ाने की सोची और थोक मंडी जहां से वो सामान लाते थे वहां के एक मुलाजिम विनीत को अपने यहां ज्यादा वेतन और सुविधाओं पर रख लिया।विनीत काम करते हुए सरकारी नौकरियों के लिए भी प्रयासरत था तो पढ़ने और परीक्षाओं के चलते छुट्टी देने की सहूलियत का वादा शौकत ने किया था।कुछ महीने बीतते तो शौकत परीक्षा परिणाम के बारे में पूछते रहते ।ऐसे ही समय बीत रहा था के शादी के चार बर्षो बाद अचानक डेंगू के चपेट में आ जाने और शुरुआती लापरवाही के चलते शौकत मियां अल्लाह को प्यारे हो गये।
अब दुकान की सारी जिम्मेदारी विनीत पर आ गयी,नये आए ग्राहक तो विनीत को ही मालिक समझते,वैसे भी गल्ले की और खरीद फरोख्त की जिम्मेदारी विनीत पर ही थी। रज़िया और विनीत दिन में तीन बार मिलते दो बार तो चाभियों के आदान-प्रदान में और एक बार जब दोपहर में लंच के वक्त जब रज़िया खाना देने आती।आठ महीने बीते थे के विनीत रेलवे की परीक्षा में पास हो गया। साक्षात्कार केे लिए समय था तो विनीत और रज़िया मे उस दिन काफी देर तक बातें हुईं। विनीत अपने जाने से पहले रज़िया को सब कुछ समझा देना चाहता था,इस मुसीबत से रज़िया का पाला पहली बार पड़ा चूंकि शौकत साब के ना होने पर भी कभी उसे व्यापार की चिन्ता नहीं करनी पड़ी सब कुछ विनीत ने अच्छे से संभाल लिया था।
खैर विनीत ने अगले दो माह रज़िया को साथ बैठने के लिए कहा जिससे वो धीरे धीरे व्यापार को समझने लगे।एक नया मुलाजिम भी रख लिया गया।
विनीत और रज़िया का वक्त अब एक साथ ज्यादा गुजरने लगा विनीत जब ग्राहको के साथ व्यस्त होता तो रज़िया को ताज़्जुब होता कितनी तल्लीनता से वो व्यापार में लगा है,ग्राहको के साथ हसीं मजाक रज़िया के होंठों पर भी हसीं ला देता।विनीत ने हमेशा बुत बनी रज़िया को देखा था, मुस्कराते हुए वो बहुत खूबसूरत लगती! विनीत अब मन ही मन रज़िया के प्रति स्नेह पाल बैठा था और आखिरकार जिस दिन साक्षात्कार के लिए रज़िया उसे बाहर छोड़ने आयी और कहने लगी "अब तो शायद किसी नये शहर में चले जाओगे","पता नहीं" विनीत के होंठों पर बात अकस्मात आ गयी "पता नहीं अब इस शहर और आपके बिना कुछ अच्छा भी लगेगा!"
विनीत तो चला गया पर उसकी कही बात रज़िया को पशोपेश में छोड़ गयी।इसी उलझन में उसने रुखसाना को बुला भेजा था मामला आखिर दूसरे धर्म के युवक था जिस पर रुखसाना ने कहा था देखो रज़िया मुहम्मद साब भी तो मुलाजिम थे अपनी पहली बेगम के और देखो रजिया किताबी बातें.......
साक्षात्कार से लौटने केे बाद आखिर वो दिन भी आया जब विनीत का फाइनल परिणाम आया,विनीत के लिए दुख की बात रज़िया के लिए सबसे बड़ा सुख लेकर आया था। विनीत के ये बताते ही जैसे रज़िया अपने को रोक ना सकी,उसके मुख से जैसे शब्द अपने आप निकलने लगे,अल्लाह जो भी करता है भले के लिए ही करता हैऔर उसने अपने हाथो से विनीत के हाथों को पकड़ लिया...रज़िया अब किताबी बातों से आगे निकल गयी थी।