कीड़े
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कुंतल हाथ का काम फुर्ती से निबटाती जा रही थी और सामने दीवार पर टंगी घड़ी को भी देखती जा रही थी। छः बजने ही वाले थे। उसके पति के ऑफिस से आने का समय...उसके शरीर में जैसे विद्युत तरंगें पैदा कर देता था। कभी वह साफ-सुथरे व्यवस्थित बिस्तर की अदृश्य सलवटें बैठाती, कभी क्रिस्टल के खूबसूरत पारदर्शी वाज में रक्तिम गुलाबों के गुच्छे सजाती। नित नवीन साड़ियाँ पहनकर, लंबी वेणी में परांदे गूंथे... वह अपने सुईट के बाहर कॉरीडोर में टहलती, एक मीठी प्रतीक्षा की सुगंध से नहायी सी रहती।
उसके विवाह को दो वर्ष हो चले थे। पति भारत सरकार के एक प्रतिष्ठित उपक्रम में अधिकारी थे। जिस प्रोजेक्ट में वह कार्यरत थे...वह रशियन कोलैबोरेशन में था। उन्हीं रशियन्स की आवश्यकताओं के अनुरूप यह शानदार रिहायशी बिल्डिंग बनी थी। स्वीमिंगपूल, क्लब, बैडमिंटन और टेनिस कोर्ट्स, इन्डोर गेम्स, ग्रॉसरी स्टोर यानि सर्वसुविधायुक्त वह विशाल बिल्डिंग जिसे सभी "हॉस्टल" कहते थे ...करीब सौ-डेढ़ सौ परिवारों की रिहाइश समेटे हुई थी। हर अधिकारी को उस हॉस्टल में एक सुईट आवंटित थी जिसमें एक विशाल शयनकक्ष, एक छोटा सा लिविंग एरिया और पीछे की तरफ एक खूबसूरत बालकनी थी जिसके पार कृष्णचूड़ा और राधाचूड़ा के वृक्षों की सघन कतार थी। पीले और बैंजनी फूलों से लदे वे पेड़...जब हवा में झूमते तो कुंतल की सुंदर शिफॉन की साड़ी के आंचल सा उसका युवा मन भी लहराने लगता। अक्सर शाम को वह अपने पति के साथ बालकनी में बैठी...उस नीरव एकांत का घूंट सी भरती रहती। वाकई बड़े सुंदर दिन थे।
उस युवा जोड़े की सुबह ...बाहर कॉरीडोर में उनके दरवाजे से सटाकर रखी हुई एक लकड़ी के नक्काशीदार बेंच पर गर्म चाय के घूंट भरते हुए होती थी। कुंतल का पति परिमल बहुत सरल व्यक्ति था। बेहद हंसमुख और प्रेमिल।
अक्सर चाय पीते पीते उसकी कमर के गिर्द अपनी बाहों के घेरे डाल देता और शरारती आँखों से मुस्काता रहता। वह संकोच से भरकर नाराजगी जताती तो बेफिक्री से कहता " बीवी हो...भगाकर थोड़े लाया हूँ ! "
वह इस अकृत्रिम अधिकार-प्रदर्शन पर रीझ रीझ जाती। वह ऑफिस जाता तो दरवाजे पर खड़ी उसके हाथ में टिफिन थमाते हुए...कुंतल सहसा उदास हो उठती। परिमल की गैरमौजूदगी के वे सात-आठ घंटे, उसके लिए पहाड़ हो उठते। बावजूद इसके कि वह सारा दिन घर को शीशे सा चमकाये रखती, रसोई में नित नए व्यंजन बनाती।उसकी बुकशेल्फ, सजी आलमारियों की सुव्यवस्था देखकर लोग विस्मित हो उठते।
पर इन सब में रमी रहकर भी...उसका हृदय पतंगे की तरह परिमल के प्यार की जोत के इर्दगिर्द ही मंडराता रहता। जबतक वह बाहर रहता, वह निष्प्राण सी रहती।
संध्या होते ही वह आह्लाद से भर...परिमल के स्वागत के आयोजन में लग जाती।
आज भी एक ऐसी ही संध्या थी जब वह सरसों के फूलों सी पीली शिफॉन की साड़ी पहने कॉरीडोर में ...पति का इंतजार कर रही थी। शाम का ढलता सूरज भी, मंद मंद बहते समीर के साथ मानों चहलकदमी कर रहा था। कुंतल के नितंबों तक लटकती उसकी पृथुल वेणी...उसके कदमों की लय के साथ दायें बायें झूल रही थी। उसका गेहुंआ रंग..ढलती शाम की आभा के साथ एकाकार होकर सुनहरा हो उठा था। और उसके नेत्रों में थी वह मदिरा जिस पर प्रणयी पुरूष के साहचर्य के हस्ताक्षर थे।
पास से गुजरती दो प्रौढ़ाएँ उसे मुड़ मुड़ कर देखतीं रहीं।एक शर्मीली सी मुस्कान उसके होठों पर तैर उठी।तभी पति आते दिखे। साथ में था एक अत्यंत सुदर्शन युवक।पास आए तो अपनी चिरपरिचित धवल हंसी बिखेरते कहने लगे " ये अतुल हैं...रशियन्स की कंपनी में मैकेनिकल इंजीनियर हैं। अभी अभी ज्वाईन किया है। नई शादी है। पत्नी अभी साथ नहीं आईं हैं। मैंने सोचा कि अकेले ऊब रहे होंगे सो इन्हें पकड़ लाया।"
वह युवक उसे बड़े गौर से देख रहा था। कुंतल असहज नहीं हुई। यह दृष्टि वैसी नहीं थी। इस दृष्टि में प्रशंसा तो थी पर परस्त्री के प्रति कामना के वे शोले नहीं थे जिनकी आँच में अधिकांशतः कुंतल का सहज स्नेह सूख जाया करता था। जब भी यह अघटित घटता तब पति निहोरे करते " आओ न ! बैठो तो। कितना ऑकवर्ड लग रहा है कि मैं अकेले बैठा हूँ अतिथियों के पास। "
कुंतल उत्साहविहीन सी आकर बैठती भी तो भी वह सभा बेरौनक ही रहती। मित्र या कलीग जाते जाते पति से फुसफुसाकर कहते " भाभीजी तो बड़ी शांत है !"
अब परिमल कैसे कहता कि जिसकी बातों का झरना आधी आधी रात तक बहता रहता है...वही स्त्री मात्र असभ्य लंपट दृष्टि को सह न पाने के कारण काठ सी हो जाती है !
बहरहाल अभी कुंतल ने किंचित हंस कर कहा " अच्छा किया जो इन्हें साथ लेते आए।" और तेजी से आगे बढ़कर अपने घर का दरवाजा खोलकर नवागंतुक की अभ्यर्थना में खड़ी हो गई।
घर के अंदर प्रवेश करते ही अतुल की प्रशंसात्मक दृष्टि मानों कुंतल की सुंदर गृहसज्जा को आँखों में समेट लेना चाह रही थी। और उसने साफदिली से कहा भी ! " यहाँ कितने ही ऑफिसर्स के घर गया हूँ पर भाभीजी सा एस्थेटिक सेंस कहीं नहीं देखा। "
किस गृहिणी को अपनी घर-गृहस्थी के बारे में कहे गएदो मीठे बोल प्रिय नहीं होते ! और फिर कुंतल तो अत्यंत समर्पित गृहिणी थी। तत्क्षण अतुल उसका प्रियपात्र बन बैठा। वह संध्या उस दिन एक नवीन स्नेहपगे संबंध की सूत्रधार बनी। चाव से तले नमकीन काजू खाते हुए अतुल को गरम कॉफी का मग पकड़ाती कुंतल चौंक सी गई जब अतुल ने अपनी गहरी दृष्टि उसके चेहरे पर टिका कर कहा
"सच भाभी ! आपको दीदी कहने का मन करता है। आपका व्यक्तित्व ही ऐसा है।पर उलझन ये हो जाएगी कि अपने सीनियर को जीजाजी कहना अच्छा नहीं दिखेगा।"
उसके होंठों तले दबी वह परिहास की हंसी कुंतल न देख सकी। भावुक होकर बोली " शब्दों से क्या होता है ! आपने दिल से दीदी कहा तो फिर वही सत्य है। मेरे भी दो छोटे भाई हैं। यही उम्र...यही रंगरूप। कोई दिन नहीं गुजरता जब उन्हें याद नहीं करती। आपको वैसे ही स्नेह करने के लिए मुझे यत्न नहीं करना होगा।"
फिर देर तक गपशप चलती रही। अपने अपने परिवारों की बातें हुईं, व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और अभिरूचियों की चर्चा चली। काफी देर बाद अतुल उठ खड़ा हुआ और विदा माँगी। उसके जाने के बाद भी...कुंतल को देर तक भला भला सा लगता रहा।
उसे अतुल की स्वच्छ दृष्टि और बेबाकी भा गए थे। उसे लगा था कि इस इंसान का मन बहुत खुला सा है। कोई छुपाव या दुराव नहीं। उसके मुखड़े की सहज स्नेहिल भंगिमा...मन को मोह लेती।
सो अतुल सहज ही उसके हृदय के स्नेह-संसार और उसकी गृहस्थी...दोनों में ही में प्रवेश का अधिकार पा गया। फिर आई सुमन...अतुल की नवविवाहिता पत्नी।विशाल नयन उन्नत नासिका, रक्तिम मांसल अधर। कनक छड़ी सी, अल्हड़ नवयौवना। परिमल और कुंतल दोनों उसे बहुत स्नेह करने लगे थे। वह थी भी वैसी ही। कच्चे दूध सी महक लिए उसका व्यक्तित्व अपनी सादगीऔर खिलंदड़ेपन से बांध लेता था। कभी परिमल की पीठ पर "धप्पा" बोलकर खिलखिलाती सुमन को देखकर...कुंतल स्नेह भरी हंसी हंसती तो कभी किसी रेस्टोरेंट में ठंडे पानी के गिलास को गालों से सटा चिहुंकने का अभिनय करती सुमन ...अपनी मासूमियत से ताजगी का एक झोंका सा ले आती।
दोनों युवा जोड़े अक्सर साथ घूमने जाते, सिनेमा देखते। प्रायः उनकी शामें साथ गपशप करतीं गुजरतीं। परस्पर स्नेह और आदर की जोत...इस रिश्ते की देहरी पर संझाबाती के दीयों सी निरंतर जल रही थी।
तभी एक शुभ समाचार आन जुटा। सुमन माँ बनने वाली थी। परिमल और कुंतल बधाई देने गए थे। सुमन आह्लाद से भरी थी। उसने कुंतल को खुशी से भींच लिया। और अतुल..?
कुंतल की सहज नारी दृष्टि में कुछ खटक सा गया। अतुल कुछ अन्यमनस्क सा लगा। ललाट पर त्योरियां, होंठ कसे कसे से। आँखों में एक अजीब उलझन भरा भाव ! जैसे मुंह में कोई कड़वा सा स्वाद रह गया हो।घर वापस आकर कुंतल ने इसका जिक्र किया तो परिमल ने कहा " इसमें इतना क्या सोचना ! अभी बच्चा नहीं चाहता होगा अतुल। सुमन तो भोली है। वह तो खुश होगी ही। अतुल कैलकुलेटेड इंसान है। हो सकता है कि उसका जॉब वगैरह चेंज करने का इरादा हो। सो वरीड हो गया हो कि अब बंध जाएगा।"
अब सुमन कम निकल पाती थी। प्रेगनेंसी की कुछ कॉम्प्लीकेशंस की वजह से डॉक्टर ने उसे बेडरेस्ट सुझाया था। कुंतल अक्सर उससे मिलने जाती। उसे एहतियात से रहने की हिदायतें देती। परिमल अब संकोचवश कम ही जाते। कुंतल ही उन्हें अतुल और सुमन के बारे में बताती।दिन बीत रहे थे। तभी एक भयंकर आँधी उठी।
एक शाम...कुंतल और परिमल साथ बैठे टीवी देख रहे थे कि अतुल परेशान सा कमरे में दाखिल हुआ और बोला
" भाभी ! हॉटवाटर बैग चाहिए था। सुमन के पेट में दर्द हो रहा है।"
कुंतल तुरन्त परेशान हो उठी "अरे ! क्या हो गया ! डॉक्टर को बुला लेते हैं न ! "
अतुल अचानक व्यस्त हो उठा " अरे नहीं भाभी ! चिंता की कोई बात नहीं। ऐसा हल्का पेटदर्द सुमन को पहले से होता रहा है। आप सिर्फ हॉटवाटर बैग दे दीजिए।"
फिर कुंतल का दिया हॉटवाटर बैग लेकर नजरें चुराता सा बाहर निकल गया। कुंतल सशंकित हो उठी " अतुल कुछ तो छुपा रहा है! "
परिमल तो सदा के भोले ! कुंतल को परेशान देख कहा
" अरे ! हर बात की तह में क्यों जाना चाहती हो ? उन दोनों की प्राइवेसी में सरासर दखल है यह तो ! होगी कोई बात। तुम इधर आओ...मेरे पास। सभी के बारे में सोचती हो...सिर्फ मेरे बारे में सोचने की फुरसत नहीं है तुम्हें।"
कुंतल न डिगी। कहा " एकबार चलकर देख आते हैं। सब ठीक है , तब भी। न गए तो मेरा मन अशांत ही रहेगा।"
परिमल उठ खड़े हुए। नितांत संवेदनशील पत्नी की उदास भंगिमा... उस सरल स्नेही युवक को सदैव विचलित कर देती थी। सो आज भी वह सपत्नीक चल पड़ा उन दो प्राणियों के बसेरे की ओर। अतुल ने ही दरवाजा खोला। उन दोनों को देखकर उसका चेहरा पीला पड़ गया। यह देख...अबकी बार तो परिमल भी चौंक पड़े।
अतुल सकपकाया सा दरवाजे से हटा ही था कि अंदर का दृश्य देखकर कुंतल की चीख सी निकल गई। सामने विशालकाय बेड पर सुमन दर्द से तड़प रही थी। दोनों हाथों से कसकर अपना पेट दबाये हुए वह बिस्तर पर लोट रही थी। अस्फुट स्वर में "माँ " पुकारती...घुटी घुटी सी हिचकियों के बीच अचानक वह आर्तनाद कर बेहोश हो गई।
कुंतल थरथर काँप रही थी। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। अब अतुल के मुंह से बोल फूटे "बाथरूम में गई तो चक्कर आ गया था। सहारे के लिए वाशबेसिन को पकड़ने को हुई तो वाशबेसिन को लिए हुए गिर पड़ी। वाशबेसिन का कुछ हिस्सा पेट पर आ गिरा था। आवाज सुनकर मैं दौड़ा तो अंदर अचेत पड़ी थी। होश में आई तभी से यही हालत है। "
कुंतल भय से काँप उठी " पहले से ही प्रेगनेंसी की कॉम्प्लीकेशंस ! और ऐसा हादसा..."
अचानक उसके मस्तिष्क में कुछ कौंधा। वह तीव्रगति से एक सुईट की तरफ दौड़ी। कॉलबेल बजाई तो एक सौम्य महिला बाहर निकली। वह महिला प्रतिवेशिनी ...एक डॉक्टर थीं। कुंतल द्रुतगति से उन्हें साथ लेकर कमरे में वापस लौटी। वह महिला डॉक्टर भी...सुमन की पीड़ा देखकर अस्तव्यस्त हो उठीं। फौरन उसकी आँखों की पुतलियाँ देखीं, नब्ज देखी। फिर कागज पर कुछ दवाओं के नाम लिखकर अतुल को उन्हें जल्दी लाने को कहा।
अतुल चला गया तो कुंतल को लगा कि उसकी चाल में उतनी शीध्रता नहीं थी जो होनी चाहिए थी। उसकी भावभंगिमा में भी वह बेचैनी नहीं थी जो आमतौर पर इस परिस्थिति में...एक पति के हावभाव से प्रकट होती।कुंतल उलझन में डूबी सोच रही थी कि सुमन की आवाज आई " दीदी ! मुझे बाथरूम ले चलिए।"
कुंतल उसे सहारा देकर बाथरूम तक ले गई। फिर झिझकवश दरवाजे पर रूक कर सुमन को हिदायत देने लगी " संभलकर जाना। दरवाजा बंद मत करना..."
तभी वह मुड़ी और होठों पर उंगली रखकर उसे अंदर आने का इशारा किया। कुंतल अकबकायी सी अंदर घुसी तो सुमन ने दरवाजा सटा दिया। उसके होंठ काँप रहे थे और आँखें गुड़हल के फूल सी लाल हो रही थीं। उसने कुंतल की तरफ पीठ कर...अपनी कमीज उतार दी। उसकी गोरी पीठ पर जगह जगह नील पड़े थे। समूची पीठ नीले बैंगनी धब्बों से भरी दागदार दिख रही थी।
कुंतल हैरत में डूबी सोच रही थी "लेकिन वाशबेसिन तो पेट पर... !!! "
तभी सुमन गले में कमीज डालकर पलटी और उससे लिपट कर बिलख पड़ी " मैं बाथरूम में गिरी नहीं थी दीदी ! अतुल ने मुझे बहुत मारा। अक्सर मारता है। ऐसे...घूंसे से मारता है।"
कुंतल अपनी चेतना खोती जा रही थी। अस्पष्ट से शब्द सुनाई दे रहे थे...बिलख रहै थे " वो मुझसे कभी खुश नहीं होता। वो सेक्सुअली परवर्ट है दीदी ! उसके अत्याचार से मेरी जीने की इच्छा मर गई है। बच्चा आने वाला है...यह जानकर एक नई आस जगी। डॉक्टर ने कॉम्प्लीकेशन्स की वजह से प्रिकॉशन बरतने को कहा था। बस इसी बात पर उसके अंदर का जानवर जाग गया। उसने इतनी बुरी तरह मारा मुझे। मेरा बच्चा नहीं बचेगा दीदी !"
आह ! यह आर्तनाद !
कुंतल को विवाह के पहले की एक घटना याद आ रही है। सभी डाइनिंग टेबल पर बैठे थे। फलों की टोकरी से फल निकालकर खाये जा रहे थे। कुंतल ने ताजे अमरूदों की टोकरी में से एक सुंदर चमकदार अमरूद निकालकर खाना शुरू किया ही था कि सहसा थू थू कर उठी। अमरूद के भीतर सफेद कीड़े रेंग रहे थे। वह बदहवासी में रोने लगी। सभी समझाते रहे कि कीड़े उसके मुख में नहीं गए हैं, कि उसने अमरूद का थोड़ा सा ही हिस्सा खाया थाऔर उसे थूक भी दिया था। पर उसे जूड़ी सी चढ़ आई थी। बार बार कहती " इतने सुंदर अमरूद में कीड़े...!! "
आज वही जुगुप्सा... फिर उसके अंदर रेंग रही थी |