Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Sunita Singh

Drama

4  

Sunita Singh

Drama

बंधन तोड़ो न

बंधन तोड़ो न

18 mins
311


उस दिन बाजार में बड़ी भीड़ थी। गाड़ी की चींटी सी रफ्तार... मुझे उकताहट से भर रही थी। गाड़ी की खिड़की से मुंह बाहर निकाले वह छोकरा सा ड्राइवर... साबुन के झाग सी उफनती भीड़ को निर्देश देने की असफल सी चेष्टा कर रहा था। मुझसे आँख टकराई तो घबराया सा कहने लगा " मैम ! इतनी भीड़ है कि कोई सुन ही नहीं रहा है। असल में होली आ रही है न। अभी तो भीड़ रहेगी ही।"

मैं भी अनमनी सी हो आई थी। सो कहा "मुझे उतर जाने दो। फिर तुम जगह देखकर गाड़ी लगा देना। मेरा काम हो जाएगा तो तुम्हें कॉल कर दूँगी। "

आनन-फानन में मैं गाड़ी से उतर पड़ी। भीड़ के बीच से रास्ता बनाती...बढ़ती जा रही थी। उफ् ! कैसी मुसीबत !कभी कंधे से पर्स सरकता जा रहा था तो कभी कलफ लगा फरफराता दुपट्टा। एक साथ इन सभी से जूझती मैं आगे बढ़ ही रही थी कि अचानक मेरी नजरें...कहीं टिक गईं। 

वही थीं। निस्संदेह ! वही तन्वंगी काया...चिकनी पीठ को ढंकते हुए कमर के पास से अंगूठे और तर्जनी के मध्य फंसा साड़ी का पल्लू लेने का वही अनोखा अंदाज ! वही सतर ग्रीवा, वही मोहक भंगिमा ! हाँ...एक परिवर्तन जरूर लक्ष्य हो रहा था। घने काले बाल़ों की विशाल केशराशि को समेटे लंबी वेणी की जगह मनोहारी से जूड़े ने ले ली थी। नारंगी रंग के फूलों वाली प्रिंटेड शिफॉन साड़ी और सफेद ब्लाउज में उनका मनमोहक व्यक्तित्व... आज एक बार फिर से मुझे रिझा गया। कितनी सुंदर दिख रही थीं वह आज भी ! बीच के आठ-दस वर्ष मानों उनके करीब से अनमने परिचितों की तरह गुजर गए थे...बिना भर नजर देखे ही !

भीड़ से जूझती मैं आगे बढ़कर उन तक पहूँचने की कोशिश कर ही रही थी कि सहसा वह अदृश्य हो उठीं।

ओह ! मेरी अवस्था उस बच्चे सी थी जिसकी गुम हो चुकी मनपसंद बॉल अचानक मिल जाए और फिर से वह उसे गुमा बैठे।

बेमन से अपना बाजार का काम निपटाया और घर वापस लौटी। बार -बार एक चिहुंक सी उठती रही मानों पर्स से असावधानीवश ढेर सारे रूपये गिरा दिये हों।

माँ मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं। देखते ही बोल उठीं " बड़ी देर कर दी। ऐसी भी क्या खरीददारी !!! खाना खाने का समय है यह ! "

मैं लज्जित हो उठी। सच...बड़ी देर हो गई। जल्दी जल्दी दो थालियों में खाना परोस , माँ के साथ डाइनिंग टेबल पर आई। खाना खाते समय ...मैंने माँ से कहा " जानती हो माँ ! आज बाजार में किसे देखा ? अपरुपा मैम को।" 

पहले तो माँ हैरत में पड़ गईं। फिर सवालों की झड़ी लगा दी " मुझे तो इतने सालों में कभी नहीं मिलीं। आज अचानक तुम्हीं को कैसे !! .... कैसी दिखती हैं? शादी हुई कि नहीं ? "

वही सतत प्रश्न आज भी ! " शादी हुई कि नहीं ? "

याद आता है सब कुछ। उनसे पहली बार का मिलना... उनके सुंदर , सौम्य व्यक्तित्व के प्रति एक गहरे मुग्धभाव का पनपना... फिर उस प्रौढ़ा सुंदरी प्रोफेसर और उसकी युवा छात्रा के बीच का वह अनुराग का रिश्ता... न जाने कब गहरे सखी -भाव में बदल गया, पता ही नहीं चला। आज भी...उनके सानिध्य में बिताए वे तीन वर्ष... ग्रीष्म ऋतु में पेड़ों पर लदे, गदराए गुलमोहर के फूलों से ही तो लगते हैं।

मेरी यादें आज अनायास ही...सूखे गुलमोहर के फूलों से पटी पड़ी एक भूली-बिसरी राह चल पड़ी हैं। उस राह के किसी मोड़ पर...वक्त रुका हुआ खड़ा है। मैं थमे हुए वक्त की ओर देख रही हूँ और वक्त ...उस सूखे चेहरे वाली , घबरायी सी किशोरी ...शुचिता को।

शुचि बचपन से ही प्रतिभाशालिनी छात्रा रही है। हर कक्षा में सर्वोच्च रहनेवाली...अध्यापकों की पसंदीदा छात्रा। उम्र बढ़ने के साथ हमेशा सर्वोच्च अंक हासिल करने की यह आदत...पहले तो जिद में बदलती है, फिर धीरे-धीरे यह जिद एक जुनून का रूप धारण कर लेती है। नतीजा... बारहवीं कक्षा तक आते-आते वह भयंकर तनाव की शिकार हो जाती है। 

आज जिस मर्ज के लिए , हजारों काउंसलर और संस्थायें मौजूद हैं...नब्बे के दशक में वही मर्ज उसे नितांत अकेले ही भुगतना पड़ता है। और विडंबना यह कि उसकी आँखों के इर्दगिर्द के काले घेरे, सूखे होंठ और बेचैन भंगिमायें जो कहानी कह रही हैं...घरवाले वह सुन तो पा रहे हैं पर समझ नहीं पा रहे हैं। वह बहुत विकट दौर है... उलझनों से भरे उस किशोर मन का।

घर के लोग बहुत चिंतित हो उठे हैं। सदा के विशालहृदय पिता कहते हैं " किसी भी क्षेत्र का सर्वश्रेष्ठ...सर्वश्रेष्ठ ही होता है। जो रूचे...वही विषय चुनो पर मन को शांत और एकाग्र रखना सीखो। इतना तनाव अच्छा नहीं...तुम्हारे लिए।"

एक दिन शुचि एक अप्रत्याशित निर्णय लेती है। मनोविज्ञान विषय चुनती है... ग्रेजुएशन में। पिता आहत होते हैं। गणित उनका प्रिय विषय रहा है और अद्भुत है इस विषय पर उनकी पकड़ ! चारों संतानों में वह उनकी पसंदीदा विद्यार्थी है। उसके भविष्य को लेकर उनके जो सपने हैं , आज उसके एक भावुक निर्णय से ... वे सपने बेरंग हो गए हैं।

शुचि भी अशांत है। वह जानती है कि यह एक तरह का पलायन है पर वह क्या करे ! वह स्वयं को बेहद कमजोर पा रही है। पिता से आँखें नहीं मिला पा रही है। माँ और अन्य भाई-बहनों की आँखें भी कुछ कहती सी हैं।

ये वाकई बेहद कठिन दिन हैं।

मनोविज्ञान विषय रूचिकर लग रहा है। मानव-मन की जटिलताओं की नई खिड़कियाँ खुल रही हैं। कॉलेज में लड़कियाँ आत्मविश्वास से भरी...विभिन्न टॉपिक्स पर चर्चा करती रहती हैं , कक्षाओं में धुआंधार नोट्स लेती रहती हैं। 

शुचि हकबकाई सी देखती रहती है। वह साइंस की स्टूडेंट रही है..मैथ्स में डूबे रहना उसे भाता है। फिजिक्स के कांसेप्ट्स और केमिस्ट्री की स्टॉकियोमेट्री से जूझते उसके दिन-रात बीतते रहे हैं अब तक।

उसे लग रहा है कि किसी ने उसे गहरे तालाब में धकेल दिया है और उसके नाक-मुंह में पानी भर गया है। 

अंततः उसके बचपन का मित्र विश्व , उसकी मदद को आया था। कहा " एक मैम हैं... गवर्नमेंट कॉलेज में मनोविज्ञान की विभागाध्यक्ष। उनसे मिल लो। तुम्हारी परेशानी का हल साबित हो सकती हैं। "

शुचि मिलने गई थी। चारों ओर से घने बाग से घिरे , हल्के पीले रंग के उस विशाल दुतल्ले मकान ने...पहली नजर में ही उसे मोह लिया था। पर गेट पर लगी कॉलबेल की स्विच के बगल में ...काले मार्बल पर जड़ी नेमप्लेट पर सुनहरे अक्षरों में अंकित ' अपरूपा मुखर्जी ' जब साक्षात उसके सामने आ खड़ी हुईं तो मालूम हुआ कि सचमुच दिल हारना किसे कहते हैं !

धानी रंग की तांत की साड़ी और कुहनियों तक लंबी आस्तीनों वाला पीला ब्लाउज पहने , मध्यम काठी की वह आकर्षक स्त्री जब सामने आ खड़ी हुई तो शुचि अचरज में पड़ गई " ये प्रोफेसर हैं ! "

किंचित् मुस्कुराती ...बार -बार खुल आने वाले अपने विशालकाय जूड़े को बांधने की असफल चेष्टा सी करतीं वह बोलीं " तुम्हीं हो जिसकी बात विश्व कर रहा था? "

जवाब में वह सिर भर हिला सकी। उसकी आँखें तो अनायास जूड़े के बंधन से मुक्त हो आई उस अशेष कुंतलराशि पर टिकी थीं। उसकी आँखों में विस्मय था , प्रशंसा थी ...अपनी संभावित शिक्षिका के लिए। पर मनोविज्ञान की उस प्राध्यापिका ने इन सब के पार उन निष्कलुष आँखों की उज्जवल आभा को पहचानने में देर नहीं की। शायद इसीलिए उसे स्नेह से सटाकर घर के भीतर आने का इशारा किया।फिर देर तक उसकी पढाई , कॉलेज वगैरह के बारे में पूछती रहीं। उनका पांडित्य,जाड़े की गुनगुनी धूप सा सेंक लिए उनका मनोहारी व्यक्तित्व... मानों उसके मन पर छाया एक अदृश्य कुहरा छँट गया।

उनके उस छोटे से, सुरूचिपूर्ण ड्राइंगरूम में बैठी चाय पीती वह बहुत सहज हो आई थी। वापस आते हुए 'मैम'

उसे गेट तक छोड़ने आईं। पूर्व-परिचित सहेलियों की तरह बतियाती... सहसा वे दोनों भूल बैठीं कि उनकी इस मुलाकात का प्रयोजन क्या है ! उत्फुल्ल मन से उसने विदा ली। तय हुआ कि वह उनके विभिन्न बैचों में पढ़नेवाले स्टूडेंट्स के साथ नहीं पढ़ेगी। उसके लिए वह अपनी दिनचर्या में से कुछ समय निकालेंगी नियमित तौर पर। बस इसका कोई समय नियत नहीं होगा। मैम अपनी सुविधानुसार समय बता देंगी और वह उस समय पर उपस्थित हो जाया करेगी। अगले तीन वर्ष तक...उस नियत समय का यही छोटा सा टुकड़ा...उसके जीवन के आकाश का ध्रुवतारा बना रहा।

शुचि नियमित जाती। उसकी शंकाएं, जिज्ञासाएं...मैम धैर्य से निपटातीं। अपने संग्रह से किताबें निकाल...नोट्स लिखवातीं। कई बार...वह भी अपने विचार बताती। मैम उदार हृदय से उन्हें भी सुनती। धीरे-धीरे मैम उसे आत्मनिर्भर बनाती गईं। उसे कुछ किताबें पकड़ातीं, नोट्स की रूपरेखा समझातीं और कहतीं " इस बार तुम लिखो। "

वह असहज होती तो उसकी हथेलियां थाम...स्नेहपूर्वक कहतीं "जानती हूँ...तुम कर पाओगी, इसी से कह रही हूँ।" 

उसके बनाए नोट्स देखकर खिल उठतीं ,अपने अन्य स्टूडेंट्स को दिखातीं। उनका गर्व से भरा मुखड़ा देखकर उसकी महत्वाकांक्षा भी अपने डैने फैलाने लगी थी। यकीनन मन-मस्तिष्क के कसे-कसे से स्नायु ...अब ढीले पड़ने लगे थे।

ग्रेजुएशन के प्रथम वर्ष का परिणाम चौंकाने वाला रहा था।

प्रश्नपत्र अत्यंत कठिन थे। सो...समूची युनिवर्सिटी में बहुत कम विद्यार्थियों ने प्रथम श्रेणी पाई थी। खुद उसके कॉलेज से...मनोविज्ञान विषय (प्रतिष्ठा) में महज एक प्रथम श्रेणी मिली थी...खुद उसे। उसकी विभागाध्यक्षा एवं कॉलेज की प्राचार्या ने उसे बधाई दी थी। 

यह सब... सुनकर मैम का चेहरा दमक उठा था। शुचि ने उनके पैर छुए तो स्नेह से भरी आवाज में कह उठीं

 " तुमसे मेरी बड़ी आशायें हैं। यह परीक्षा परिणाम तो बस शुरुआत भर है।"

घर में भी मैम को लेकर अपार जिज्ञासाएं थीं। मैम का जिक्र... जिस विमुग्ध भाव से वह करती थी ,उसने कई

उत्सुकतायें जगा दी थीं। माँ अक्सर पूछतीं " उनका विवाह नहीं हुआ अभी ? "

सच ही...मैम चिर कुंवारी थीं। सभी हैरत में पड़ जाते थे यह सुनकर कि सैंतीस वर्ष की आयु में भी मैम अब तक अविवाहित थीं। 

अक्सर सरदियों की उदास सांझों या गरमियों की एकांत सूनी दोपहरों को...जब मैम तन्मयता से उसे पढ़ा रही होतीं थीं तो अचानक जैसे कहीं खो जाया करतीं। उन उदास सुंदर आँखों में छाया सूनापन कुछ कहता सा प्रतीत होता। वह उसे सुनने की कोशिश करती पर नाकाम रहती। दिन यूँ ही बीत रहे थे।

मैम के पिता रिटायर्ड बैंक ऑफिसर थे।वह प्रायः उसे घर के विशाल बगीचे में घूमते हुए मिलते। बगीचे के बीच सफेद गोल चिकने पत्थरों की एक श्रृंखला सी बिछी थी जिनके किनारे कुछ कुरसियां पड़ी रहतीं थीं। मैम की माँ अक्सर उन्हीं में से किसी एक कुरसी पर बैठी...अपने घुटनों तक लंबे , दुग्ध से धवल केशों को उंगलियों से सुलझाती रहतीं। नजरें मिलतीं तो दोनों मुस्कुरा देते। मैम की छोटी बहन मीनाक्षी नृत्यकला में माहिर थी। पढ़ाई पूरी कर...अपना नृत्य स्कूल खोलने का सपना संजो रही मीनाक्षी अक्सर विनोद से शुचि की लंबी चोटी पकड़कर खींचती। कहती " बंगाली हम हैं और केश तुम्हारे बंगालियों जैसे हैं। ऐई ! राज बताओ ना ! "

यूँ ही अपनत्व की बयार बहती रही और वह उस अजाने से परिवार के करीब आती गई।

मैम का एक भाई भी था...फेलू। उनसे दो-तीनं वर्ष छोटा रहा होगा। अजीब कुंठित सा दिखता। एक अनमनेपन और बेचैनी से भरा हुआ।

एक दोपहर मैम ने उसे पढ़ाते हुए अचानक चौंक पड़ीं। घड़ी देखी और उठ खड़ी हुईं। बोलीं " मैं थोड़ी देर में आती हूँ। तुम यह टॉपिक फिनिश करो तब तक। एक काम याद आ गया।"

शुचि मनोयोग से लिखती रही। सहसा एक आहट हुई। फेलू दा सामने के सोफे पर आकर बैठ गए थे। वह चौंकी। एक वही थे जिन्होंने इतने दिनों में उससे कभी बात नहीं की थी। वह शायद कुछ कहना चाह रहे थे। बात फेलू दा ने ही शुरु की " रूपा दी अच्छा पढ़ाती है न ! " उसने उत्साह से सिर हिलाया। "गुड...तुम खुद भी एक होशियार लड़की हो। अच्छे से मन लगा कर पढ़ो।" कहते हुए वह बेचैन से कमरे में व्यर्थ टहलने लगे।

शुचि सुन रही थी...सूं सूं की आवाज ! वाष्प से भरे डिब्बे का ढक्कन खुल चुका था। वह मौन प्रतीक्षा कर रही थी...वाष्प के निकलने का।अंततः निकला...कुछ खौलते हुए शब्द निकले थे "ये रुपा दी बड़ी तानाशाह है। कमाती है न ! इसी का अभिमान है। अपने रूपयों को मुट्ठी में बंद करके रखती है। सब चालाकी इसकी समझता हूँ।"

उसने प्रतिवाद सा किया " पर मैम तो बड़ी ही भली हैं।" 

फेलू दा ने मुंह बनाया " हाँ... बड़ी अच्छी है ! तुम क्या समझोगी इसे ! बस...अपने पैसे दबा कर रखने में बहुत होशियार है।"

फेलू दा सहसा कोमल हो आए " उसकी गलती भी नहीं है। उसकी उम्र देखो। उसे चिंता नहीं होती होगी अपनी ! अब बुढ़ापे में ब्याह होगा उसका !"

शुचि के लिए स्वर्णिम अवसर आन जुटा। घर में सारे भाई बहनों ने ताने मार-मार कर जीना दुश्वार किया हुआ था।

कहते " बड़ी नजदीकियां हैं मैम से। तो पूछती क्यों नहीं कि शादी क्यों नहीं की अब तक ? "

सो उसने फौरन मौका झपट लिया " लेकिन मैम की अभी तक शादी हुई क्यों नहीं दादा ?"

फेलू दा मुख से झाग उगलने लगे " अगर उसकी शादी हो जाती तो बाबा का यह आलीशान घर कैसे बन पाता ! यह घर कैसे चलता ? समझ रही हो न !"

उसने अकबका कर सिर भर हिला दिया।

" रूपा दी का दुख मैं समझता हूँ। पर वह इन दिनों बहुत मनमानी करती है। घर में मेरी कोई वैल्यू नहीं है। उसी के कारण सभी के विवाह रुके हुए हैं। हुंह ! बेटी की कमाई खायेंगे और चक्षुलज्जा भी करेंगे। पाखंडी ! " फेलू दा अदृश्य शत्रु को ललकारते... धुआँ छोड़ते से, कमरे में चक्कर काट रहे थे।

शुचि म्लान हो आई थी। मैम की उदास आँखों की बंद किताब के पन्ने खुलने लगे थे।

एक दिन पढ़कर लौटते समय...मैम की माँ पुकार उठी " आ न ! तनिक मेरे पास आकर बैठ। कभी बैठती नहीं तुम इधर आकर।"

वह उस स्नेहिल अनुरोध की अवहेलना न कर सकी। समीप जाकर बैठी तो अनौपचारिक बातों का सिलसिला... उन दोनों के उम्र के अंतर को दरकिनार कर चल निकला।

सहसा उन वृद्धा की आवाज़ भर्रा आई और साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछती , वह फफक पड़ीं " मेरी रुपा की शादी हो जाए... बस। मेरे जी में बड़ा कष्ट है उसका ब्याह न होने से।"

उसने एक बार फिर वही प्रश्न पूछा जो प्रायः सभी के लिए एक पहेली बना हुआ था " मैम का ब्याह क्यों नहीं हुआ ?"

वह वृद्धा छद्म कातर स्वर में बोल उठीं " वह विवाह करना ही नहीं चाहती। कई अच्छे वर मिले पर कभी लड़के इसे पसंद नहीं आए तो कभी उनकी नौकरी ! सच कहती हूँ...बड़ी नकचढ़ी है। उसका क्या ! वो तो मजे में है। हमारी बदनामी करा रही है कि हम उसका ब्याह नहीं करा रहे।"

घृणा और विरक्ति की एक तीव्र लहर उठी और उसके समस्त शरीर को मानों सुलगा गई। वह झटके से उठ खड़ी हुई और विदा माँगी। झूठ और प्रवंचना का वह नाटक...उसके लिए असहनीय हो उठा था।

उस दिन के बाद से... शुचि ने मैम को एक नई नजर से देखना शुरू किया। देखती कि कॉलेज जाते समय वह कितने सुरूचिपूर्ण ढंग से तैयार होती हैं ...आँखों में हल्का सा काजल , माथे पर लंबी तिलकनुमा बिंदी, साड़ी से मेल खाते कंगन और कर्णफूल और होंठों पर हल्की लिपस्टिक। उस पर से...आँखों में तैरती हया और सजीले मुखड़े का अद्भुत लावण्य ! वह रीझ रीझ जाती।

पर वही मैम ...घर में मुसी साड़ी पहने, बिखरे बालों में किचन में घुसी रहतीं। घर में माँ व छोटी बहन के रहते हुए भी...किचन का जिम्मा वही संभालतीं। 

शायद...वह बिना शिकायत , कुछ और जिम्मेदारियाँ भी निभाये जा रही थीं। 

एक सुबह जब शुचि कुछ आवश्यक नोट्स लेने पहूँची तो मैम घुटनों तक गीली साड़ी में...पोतड़े धो धो कर तार पर फैला रही थीं। बीसियों पोतड़े पहले से ही तार पर सूख रहे थे। वह हैरत में पड़ गई कि आखिर ये पोतड़े किसके थे !

इस सवाल का जवाब ...एक अत्यंत वीभत्स वास्तविकता से साक्षात्कार के बाद मिला था उसे। उस शाम...वह और मैम घर में अकेले थे। बाकी लोग किसी समारोह में गए हुए थे। मैम अपनी गुलाबी शॉल में लिपटी ...सोफे पर पाँव ऊपर किये बैठी थीं। वह कुछ प्रश्नों के उत्तर लिख रही थी। 

तभी मैम ने कहा " आज सिर्फ बातें करते है। आज मन बड़ा अच्छा लग रहा है। किताबें बंद कर दो न प्लीज ! "

उसने किताबें समेट कर रख दीं और मैम के करीब खिसक आई। इस दुर्लभ एकांत का महत्व... मैम के जीवन में क्या है ! वह यह बात भलीभांति समझती थी। दोनों देर तक बातें करती रहीं। मैम अपने बचपन की...कॉलेज के दिनों की बातें कर रही थीं , मुस्कुरा रही थीं। अचानक एक कर्णभेदी चीख सी गूंजी उस शांत वातावरण में। अजीब सी...कटु ,विलाप करती सी चीख !

शुचि ने घबरा कर मैम को देखा। वह निर्विकार सी उठीं और घर के भीतरी हिस्से की ओर चली गईं। वह भी आशंका से भरी...उनके पीछे चली।

अंदर का दृश्य देखकर वह सन्नाटे में आ गई। सामने व्हील चेयर में माँस का एक विकृत पिंड पड़ा था। आँखों की जगह दो अंगारे से भभक रहे थे , होंठों के नाम पर एक सुराख भर था जिनसे झांकती आसुरी दंतपंक्ति और विशालकाय कोंहड़़े सा सिर ! सहम कर उसने मैम की ओर देखा। मगर वह तो उस राक्षसी मांस के लोथड़े को दुलार से सहलाती...गुनगुनाती सी बोल रही थीं " गुस्सा क्यों हुई ! मैं तो यही हूँ मेरी सोना। कुछ खाओगी ? ना ना गुस्सा नहीं होते।"

मैम उस विकृत पिंड को कलेजे से सटाए...दुलरा रही थीं , शांत कर रही थीं। पर वो खौफनाक चीत्कारें... थम नहीं रही थीं। उसकी टांगें कांप रही थीं और धड़ धड़ करते दिल की धड़कनें खुद उसके कानों को सुनाई दे रही थीं।

मैम उस व्हीलचेयर को खींचती...एक कमरे में घुस गईं। बाहर खड़ी वह ...कमरे से आती दुर्गन्ध के भभके को झेलती रही। असहनीय दुर्गंध !

उस दिन मैम ने बताया " मेरी छोटी बहन है, चौबीस साल की। जन्म से ही ऐसी अवस्था है। कई वर्ष हुए... माँ डिप्रेस्ड रहने लगी थीं। इसकी देखभाल करते करते थकने लगी थीं। घर में झगड़े होने लगे। तब से इसकी देखभाल की जिम्मेदारी मैंने ले ली।"

तो इसी कारण...समारोह में मैम नहीं जा पाईं ! वह मैम का चेहरा पढ़ने की कोशिश करती रही। उस सुंदर चेहरे पर एक बीहड़ सन्नाटा पसरा हुआ था। उसे पहली बार लगा कि मैम एक दुरभिसंधि का शिकार हो रही हैं। उनका वर्तमान, भविष्य... सभी इस दुरभिसंधि की शिला तले दबे जा रहे हैं। 

उस शाम...हृदय पर एक गहरा बोझ लिए वह लौटी। 

दिन बीतते रहे। मैम की वह मुग्धा छात्रा... दिनोंदिन उनकी प्रिय बनती गई। उसके परीक्षा-परिणाम उन्हें गर्व से भर देते तो उसके मधुर स्वभाव की चर्चा उनके घर में होती।

फाइनल इयर की परीक्षा और उसका विवाह करीब करीब साथ ही संपन्न हुए थे। विवाह वरपक्ष की इच्छानुसार दूसरे शहर में संपन्न हुआ था। मैम इस विवाह में नहीं आ पाई  थीं। मैम का खयाल ...विवाह की रस्मों के बीच भी , उसे आता रहा। पर ठीक उसी समय...किन्हीं दो नयनों में छाया एक बर्फीला सन्नाटा , उसे चुभने लगता। वह जानती थी कि उन्होंने आना चाहा होगा।

ग्रेज्युएशन में उसकी डिस्टिंक्शन आई थी और मनोविज्ञान विषय में थी वह सर्वप्रथम ! एक जिद आज भी बरकरार थी।उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने संपूर्ण अंतःकरण से उन्हें याद किया जो मीलों दूर बैठी थीं। तब वह अपने पति के साथ...किसी अन्य शहर में थी। 

कुछ महीने पश्चात वह अपने मायके , अपने शहर लौटी।

उसी शाम...माँ के साथ मैम के घर गई। सभी उसे देखकर हर्षित हो उठे। मैम ने उसे गले से चिपटा लिया। मैम के माँ-बाबा ने आशीषें बरसाईं। मीनाक्षी भागती सी आई और उसकी पीली बनारसी साड़ी का भारी पल्लू पकड़ कहने लगी " ओ माँ ! इतनी सुंदर साड़ी... ऐसे भारी झुमके ! ऐ ! तू कितनी प्यारी लग रही है ! है न माँ ?"

जिनसे पूछा गया था...उन आँखों में जैसे भक् से एक अग्नि जल उठी थी। उसने चौंक कर देखा। उन आँखों में एक निषेध था ,एक वर्जना थी कि " बड़े जतन से मैंने ये दरवाजे बंद किए हैं। इन दरवाजों के पार की आवाजें, रौनकें, आवाजाही ...कुछ ऐसा न सुलगा दें जिसमें हमारा बुढ़ापा, इस घर का भविष्य...सब...राख हो जाए।"

मैम भी कुछ खोयी-खोयी सी लगीं। थोड़ी दुबली और क्लांत सी।

उनके सूने एकाकी जीवन की एक खिड़की सी थी उनकी वह शिष्या। अब वह खिड़की बंद हो जाएगी। बरसों से इस घर की हवा में एक तीव्र दमघोंटू दुर्गंध पसरी है। इस सुंदर दुमंजिले मकान के बाग में कटहल,आम अनार, कनेर ,

चंपा...अनेक पेड़ हैं। सुंदर लतायें फैली हैं।यह सब उन्हें प्राणों से प्रिय है। पर दुर्गंध और गंदगी से बजबजाते पोतड़ों से लदी इस अलगनी से बंधे अपने भविष्य का क्या करें वो ? सांसें घुट रही हैं या नितांत अपनों के सुरक्षित भविष्य की खुशबू... इनमें प्राणवायु भर रही है ? कितना विकट है यह निर्णय करना !

यह बच्ची भी अब चली जाएगी। साथ चला जाएगा... एक निर्मल, सहज, स्नेहिल संबंध। उनका मन बेहद खाली सा हो आया है।

इस खालीपन को सभी महसूस कर रहे हैं। मैम की माँ ... आक्रामक हो उठी हैं " आप लोगों को देर हो रही है। असल में... इधर का रास्ता रात में सुरक्षित नहीं।"

फेलू दा की आँखें अंगारे बरसा रही हैं। बाबा निगाहें झुकाए बैठे हैं...थके से। मीनाक्षी की आँखें सपनों से सजी हैं।

घर लौटते समय माँ उत्तेजित हो उठीं "यह तो अन्याय है। अपरुपा की आँखें तो जैसे गाय की आँखें लगती हैं। इतनी होनहार , खूबसूरत , आत्मनिर्भर औरत की विवशता समझ से बाहर है।"

कुछ साल बीत गए। बीच-बीच में शुचि मायके आती तो एकाध बार गई मैम से मिलने। पर उनकी माँ बड़ी रूखाई से पेश आईं। कभी कहतीं कि " घर पर नहीं है। कब लौटेगी... पता नहीं।" कभी कहतीं कि " कोई जरूरी काम था क्या ?"

ऊबकर उसने जाना ही छोड़ दिया। फिर...वह भी तो अपनी सपनों भरी दुनिया में डूब रही थी। धीरे-धीरे उसका मायके आना भी कम होता गया।

चार-पाँच वर्ष पूर्व... बाजार से लौटते हुए उसका चचेरा भाई शॉर्टकट के फेरे में उसे आंकीबांकी गलियाँ घुमाता... अंततः उस गली में ले आया जहाँ से वह पीले रंग का दुतल्ला मकान साफ दिख रहा था। वह मचल उठी " एक बार चल न ! यहाँ आकर मैम से बिना मिले कैसे वापस चली जाऊँ ! दिल नहीं मान रहा। "

सो अपने दिल को मनाने सालों बाद...एक बार फिर वह उस घर के गेट पर खड़ी थी जिस पर आज भी काले

 मार्बल पर जड़ी नेमप्लेट पर " अपरुपा मुखर्जी " अंकित था।

घर गहन अंधकार में डूबा था। अंदर दो-तीन कमरों में बत्तियां जल रही थीं। उसका मन आशंका से भर गया। 

कॉलबेल दबाई तो काफी देर बाद...मैम के बाबा , एक लालटेन लिए निकले। उस लालटेन की रोशनी में...उसके चेहरे में कुछ तलाशते रहे।फिर हँस कर बोल पड़े ' तुम बहुत दिनों बाद आई !!"

शुचि भी हँस पड़ी "आपलोग कैसे हैं ? मैम हैं घर में ?"

उनका चेहरा बुझ गया। कहा " रुपा अब यहाँ नहीं रहती। उसने अपना अलग घर लिया है।" 

उसने हार नहीं मानी। कहा " उनके नये घर का पता देंगे !"

"नहीं मालूम ।" उन्होंने रुखा सा उत्तर दिया और मुड़कर चले गए। उनकी दुर्बल, कृशकाय आकृति ...धीरे धीरे उस रहस्यमय अंधेरे में खो गई।

साथ खड़ा चचेरा भाई खी खी कर उठा " भागिए यहां से। ये ' जी हॉरर शो' वाला घर और उसका चौकीदार लग रहा है।"

उलझे मन से वह लौट ही रही थी कि पड़ोस के घर के बरामदे में खड़ी एक स्त्री ने आवाज़ दी "'आपलोग उन  महिला प्रोफेसर के बारे में पूछ रहे थे न !"

" हाँ हाँ...बताइए।" वह आवेग से बोली।

" वह तो बिना विवाह किए...किसी के साथ रहने लगीं। बहुत हंगामा हुआ पर वह अड़ी रहीं। इन लोगों ने उनसे सारे संपर्क तोड़ लिए हैं। "

वह भौंचक सी देखती रह गई । कल्पना में... उनकी वही सलज्ज दृष्टि, निर्दोष चितवन तैर उठी।

घर आकर सबकुछ बताया तो माँ ने खिन्नता से कहा " यह तो होना ही था।"

फिर कई वर्षों का अंतराल ! और आज यह वाकया !

पहले भी कई बार सोचा है। बार-बार सोचा है। और हर बार लगा है कि स्नेह से तो मन बंध भी जाए पर जोर-जबरदस्ती से ? मन पर वैसे भी कब जोर चला है !

मैम का प्रेमपूर्ण हृदय...संभवतः अपनों की वंचना से तिक्त हो उठा होगा। वह तो सहज भाव से अपने कर्तव्यों को निभाती जा रही थीं पर सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को लेकर उनके परिजनों की असुरक्षा की भावना ने...अंततः मोह के बंधन काटने में मैम की सहायता की। 

जीवन में प्रेम का रंग तलाशतीं, वह कहाँ तक पहूँचीं...नहीं जानती। पर प्रकृति ने उन्हें एक संपूर्ण स्त्री के रुप में तराशा था। ढलती वय में ही सही...उन्होंने अपने स्त्रीत्व की सार्थकता ढूँढ़नी चाही। सपनों की भी आयु होती है !


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