खुशी का लिहाफ
खुशी का लिहाफ
आज तो राजाराम सच में राजा बन गया। कई दिनों से पत्नी लखिया की कोई भी मांग लाखों की लगती। उसका मुँह पूर्णरूपेण खुल भी न पाता कि मांग की अंदेशा में वह कह देता, तुम्हें बार-बार क्यों गलतफहमी हो जाती की मैं सच का राजा हूँ। अरे हम सिर्फ नाम के राजा हैं , गुदरी ओढ़ के पूस के रात में जाड़ा काटने वाले। लिहाफ की तो कभी सोचियो नहीं पाते। सच में हम तो भिखारी से भी बत्तर हैं। भिखारी कम से कम अप्पन दुखरा रो के किसी से कुछ मांगियो लेता है।
हम का करें श्यामलाल को देख किसानी छोड़ कर शहर आया पर सबको थोड़े ही घनश्याम मिल जाते हैं। अभी तक उठल्लू जैसा कभी इहाँ कभी उहाँ कोनो काम कर लेते हैं। कोनो तरह रूखा सूखा चल रहा है और तू बड़का लोग के देख के रोज नया-नया फरमाइस करती है।
सोची है कहाँ से लाएगा- "खाली बक बक मत कर, हमरा बात सुन ले। रमिया चाची कह रही थी कि उनके मालिक को डराईवर चाहिए। त हम तुमरे बारे में कहे। मलकिनी रमिया चाची के साथ कार से कहूँ जा रही थी, हम बाहरे में खड़ा थे, त बुला के दू डिब्बा मिठाई, ए गो कम्बल और ए गो लिहाफ दी।
बोली बड़का मालिक का बरसी पर सभे को बांट रहे हैं। और तोरा डराइवरी खातिर घर पे बुलाई है।
लिहाफ को सीने से लगा राजाराम बच्चा जैसा पुलकने लगा। डब्बा से दो मिठाई निकाल स्वाद ले कर खाते-खाते बोला जाते हैं कार चलाने। समझ सब दुःख दूर, अब हमहूँ कार वाला हो गए और हँसते हुए बोला - 'बड़का मालिक बहुत भला इंसान थे, जाते-जाते जाड़ा के ठिठुरन से बचा दिए। मालिक के बाल-बच्चों का भला हो। अरे ई एगो लिहाफ नहीं, ई त खुशी का लिहाफ है। अब देख का का लाते हैं घर में। खुशी के मारे जाने क्या-क्या बोलते हुए चल दिया मालिक के घर।
