अनोखी होली
अनोखी होली
अजी सुनती हो..!
“तो क्या मैं बहरी हूँ।”
मैंने ऐसा कब कहा कि तुम बहरी हो।
“सुनती हो..ये पूछना ही काफी नहीं है कि तुम मुझे बहरी समझते हो।”
अरे भाग्यवान! मेरे कहने का ये तात्पर्य नहीं था।
“तो क्या तात्पर्य था, जरा सुनूँ तो।”
कुछ भी नहीं। जाओ अपना काम करो।
“ये लो, अच्छा खासा काम कर रही थी, आवाज़ देकर बुला लिया और अब कहते हो कोई काम नहीं। तुम मर्दों का तो यही हाल है। न काम करोगे और न करने दोगे। अभी केवल दही बड़ा और माल पुआ बना है। अभी सूखा पुआ, उड़द की खस्ता कचौड़ी बनानी बाकी है। कटहल की सब्जी भी तो आधी अधूरी ही बनी है। वो तो मैं होशियारी की, कि इमली की चटनी कल ही बना ली, अरे भाग्यवान! किसके लिए इतना बना रही हो ? तुम्हारे घर कोई नहीं आने वाला। ई बुड्ढे-बुढ़िया से रंग खेलने कौन आएगा? "मुहल्ला के सारे बच्चे मालपुआ खाने मेरे ही पास आते हैं। पाँव पर अबीर रखते हैं ढेरों आशीर्वाद के साथ जब मैं उन्हें सारे पकवान देती हूँ तो वे केवल मालपुआ की ही मांग करते हैं। और वो बूथ वाला मोनू तो दही बड़ा खाने ज़रूर आता है। कहता है काकी तुम्हारे जितना अच्छा दही बड़ा मैं कहीं नहीं खाया।"
"लो इतने खाने वाले हैं और कहते हो क्यों बना रही हूँ। शर्माजी के यहाँ तो पिछले दो साल से होली में मुर्दनी ही छायी रहती है। होली के दो दिन पहले ही न शर्मा जी चल बसे थे। बच्चे भी माँ के लिए होली नहीं मनाते।"
अरे भाई ये दुनिया है, आना जाना तो लगा रहता है फिर पर्व त्योहार में उदासी बनाए रखना मेरे ख्याल से उचित नहीं।
"हाँ सोचती हूँ इस बार शर्माइन को समझाऊँगी।"
"लो मैं फालतू बकबक करती रह गई इतनी देर में कितने पुए निकल जाते।"
मैं बड़े अच्छे मूड में था तुम ही तो बिना मतलब उलझ गई और पूरे गाँव का किस्सा सुनने लगी। तुम्हारे किस्से-कहानी में मैं क्यों बुलाया था बात ही भूल गया। “तो लो अब उमर के कारण बात भूलने लगे हो और उसमें भी गलती मेरी।”
अरी भाग्यवान! थोड़ी देर तो बैठो। पुआ नहीं खा सकता पर दो मीठे बोल से तो सुगर नहीं बढ़ेगा। बैठो, मैं तुम्हें कुछ दिखाता हूँ “मुझे बैठने की फुर्सत है।”
अरे दो मिनट तो बैठो।
“लो बैठ गई ।”
मैं एक मिनट में आया।
क्षण भर में हाथ में गुलाल लिए बूढ़े साहब आए और अपनी बुढ़िया के गाल पर गुलाल मलते हुए बोले- “ होली है मेरी बूढ़ी होली है। ई बुढ़िया को गाल पर मेरे सिवाय कौन गुलाल लगाएगा। सभी पैरों पर ही तो रखेंगे अभी तक बकझक करने वाली बूढ़ी पत्नि न्योढा बन छुई-मुई सी शर्मा कर घूंघट खींच लिया। और बोल पड़ी - “तुम भी न …
नोट- फाल्गुन का मौसम मादकता भी होरा है। जिसमें रंग गुलाल से सभी अनंदित हो जाते हैं। यह उमंग का पर्व है। इसे बच्चों या युवा से नहीं जोड़ना चाहिए। बूढ़े भी उसके उमंग में मस्त हो जाते हैं।