ख़त......
ख़त......
ख़त - प्रेम वाले ख़त। जिनमें लिखे हुए लफ्ज़ वैसे भी आतिश होते हैं। ऐसे ही आतिशों का एक पुलिंदा मेरे पास भी हुआ करता था। मैंने आतिशों को आग के हवाले किया था। बहुत कोशिश की थी कि उनका ये हश्र न हो, पर क्या करता। फ़ोन पर उसी ने तो बताया था कि अब हल्दी की रस्म भी हो गयी है। मुझे पल-पल ख़बरें मिल रही थी कि इस जन्म में हम दोनों हमारे बीच के इस फाँसले को अब कभी तय नहीं कर पाएंगे। ख़त जो दिल के टुकड़ो से कम न थे। ज़रिया थे एक दूसरे के ख्यालो में खो जाने के। दर्पण था हमारे मन का। डाकिये की साइकिल की घंटी भी रोमांचित कर जाती थी। महीने के ३०-३१ दिन नहीं, ४ ख़त, हां ४ खतों में ही तो तय करते थे हम, हमारे बीच के फासले।
कितनी यांदें, कितनी बातें, कितनी तकरारें, कितने अफ़साने सब मैंने अपने हाथों से ख़ाक किये थे जब ख़त जल रहे थे। मैं झुलस रहा था अंदर तक। वो जलन ताउम्र जलाती रहेगी मुझे।
कुछ अरसा बीता। उससे बात हुई। पूछा मैंने क्या किया मेरे खतों का। बोली गंगा में बहा दिया और क्या करती, गंगा घाट कि ही तो थी न वो। उसकी बात सुनकर ज़हन में गूंजने लगा ये शेर "तेरे ख़त आज मै गंगा में बहा आया हूँ, आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ"
आग हम दोनों ने लगायी थी
खतों को
अरमानो को।