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कवि मदन मोहन 'सजल' - कोटा

Classics

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कवि मदन मोहन 'सजल' - कोटा

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कहानी : अपना-पराया

कहानी : अपना-पराया

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 "कहाँ थे दिनभर से ?"

मालती ने गुस्से के स्वाभाविक तेवर दिखाते हुए अपने पति गगन से पूछा। 

"कहीं नहीं, बस यही था।" गगन ने जवाब दिया।

"आज ऑफिस क्यों नहीं गए ? मैंने दिन में दो बार फोन कर पूछा लेकिन वहां से भी कोई संतुष्ट जवाब नहीं दिया गया। मैं पूछती हूँ आखिर कहाँ गए थे दिन भर से और यह किसका बेग है हाथ में, जवाब क्यों नहीं देते।" मालती का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। 

गगन ने कहा - "तुम बोलने दोगी तो कुछ बोलूँ। गाँव गया था माँ को लिवाने। अब वह हमारे साथ ही रहेगी।"

"क्या ? माँ यहीं रहेगी। पर क्यों, भैया-भाभी के साथ घुटन महसूस होने लगी है क्या ? माँ को यहाँ लाने का तुमने अपने आप फैसला कैसे कर लिया। मुझसे पूछा तो होता। शहर का खर्चा, इस मँहगाई में एक तनखा में हमारी जरूरतें ही पूरी नहीं हो रही और फिर ऊपर से रात-दिन की चौकीदारी।" मालती गुस्से में आपे से बाहर हो रही थी। 

"मालती तुम भैया-भाभी का स्वभाव जानती हो, दोनों गर्म मिजाज के हैं। वह दोनों माँ का ख्याल नहीं रख रहे। समय पर खाना-पीना भी नहीं मिलता। दो मीठे बोल के लिए भी तरस रही है माँ वहाँ पर। दो-दो बेटे होने के बाद भी बुढ़ापे में सुख नहीं मिले तो ऐसी औलाद के होने का क्या मतलब है। उसने जन्म दिया है, पालपोस कर बड़ा किया है, खाना-पीना, चलना-फिरना, बोलना, हँसना सिखाया है। तो क्या हमारी जिम्मेदारी नहीं होती कि बुढ़ापे में माँ-बाप की सेवा की जाए, उन्हें हर प्रकार का सुख दिया जाए, पूरी देखभाल की जाए।" गगन एक ही साँस में बोलता जा रहा था। 

"तो क्या बुढ़ापे में सेवा करने की जिम्मेदारी हमारी ही है, कल से बीमार हो जाएगी तो इलाज का भार भी हमें ही उठाना है, तरह-तरह की मांग करेगी, यह लाओ वह लाओ, हर काम में पचास नुख्स निकालेगी, सुबह जल्दी उठो, थोड़ी सी कसर होते ही सौ बातें सुनाने बैठ जाएगी और मुझसे यह सब बर्दाश्त नहीं होगा। मुझे मेरी आजादी में खलल नहीं चाहिए। ले आए हो तो आज की रात ठहर जाएगी कल सुबह होते ही वापस गाँव पहुंचा देना, कह दिया मैंने और कुछ नहीं सुनना चाहती।" मालती पूरी तरह से क्रोध के वशीभूत हो चुकी थी।

गगन ने कहा- "चलो गुस्सा थूको और खाने की व्यवस्था करो, बड़ी जोर की भूख लगी है। माँ ने भी दिनभर से कुछ नहीं खाया है।" 

मालती ने पलटकर जवाब दिया - "मुझे भूख नहीं है। किचन में जाकर बना लो। खुद भी खा लो अपनी प्यारी माँ को भी खिला दो। मैं अपने कमरे में जा रही हूँ , मुझसे नहीं बनता खाना-वाना।" 

"माँ, अंदर आ जाओ, दरवाजे के बाहर क्यों खड़ी हो।" गगन ने माँ को आवाज दी।  

ज्योंहि माँ अंदर आती है और मालती पलट कर गुस्से में देखती है। मालती की आँखें फटी की फटी रह जाती है। वह अपने सामने स्वयं की माँ को खड़ी देखती है, जिसके चेहरे पर एक भाव आ रहा था और एक जा रहा था। मालती की साँसें गले में अटक कर रह गई।

"मम्मी, तुम और यहाँ ?" मालती ने पूछा। 

फिर गगन की ओर मुखातिब होकर पूछती है - "तुम तो अपनी माँ को लेकर आए थे फिर यह ............!" शब्द गले में अटक गये।

माँ बोली - "हाँ बेटी, दामाद जी माँ को ही तो लिवा कर लाए हैं। क्या मैं तुम्हारी ही माँ हूँ, गगन की नही ? क्या मैंने बेटी देकर बेटा नहीं लिया गगन के रूप में ?"

मालती का गुस्सा काफूर हो चुका था। बोली- "यह तुम्हारा ही तो घर है मम्मी। जितने समय चाहो रह सकती हो।" 

"नहीं बेटी, मैं यहाँ रहने नहीं आई हूँ , पर जो आँखों से देखा और कानों से सुना उसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैंने तुम्हें ऐसे संस्कार कभी नहीं दिए। विदा करते समय मैंने तुमसे कहा था कि - मालती बेटा, तुम जन्म से लेकर अब तक माता पिता के घर में मेहमान थी। अब तुम्हारा असली घर तुम्हारा ससुराल है जहाँ तुम्हें अपनी पूरी जिंदगी गुजारनी है। तुम्हें

सबके साथ समन्वय स्थापित कर चलना होगा। आज से सास-ससुर ही तेरे माँ-बाप है। परिवार के हर सदस्य की मान-मनुहार करना, घर में एकता बनाए रखना, संबंधों के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह करना ही तुम्हारा सबसे बड़ा धर्म होगा। लेकिन आज जो कुछ देखा और सुना - लगता है तुम्हें जन्म देकर मैंने बहुत बड़ी भूल की है। तुमने मेरी कोख को लजाने का कार्य किया है। अपनी सास माँ के प्रति तुम्हारे दुर्भावनापूर्ण विचार सुनकर मुझे अपने आप को ग्लानि महसूस हो रही है।" 

मालती क्या बोलती - शर्म से गढ़ी जा रही थी। आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। 

माँ ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा- "यदि मेरा बेटा मेरी और तेरे पापा की देखभाल नहीं करें तो क्या तुम्हें तकलीफ नहीं होगी। अगर औलाद माँ-बाप को पराया समझने लग जाए और बहू स्वयं के स्वार्थ वशीभूत हो जाए तो फिर कौन है, जो बुढ़ापे में सहारा बनेगा। बेटे और बहू की आस इसीलिए लगाई जाती है ताकि जिंदगी का अंतिम समय आराम से गुजर जाए। कल तुम्हें भी बुढ़ापा आएगा और इसी तरह का बर्ताव तुम्हारा बेटा और बहू तुम लोगों के साथ करेंगे तो क्या तुम बर्दाश्त कर पाओगी। शिक्षा - सहनशीलता, सदाचार, विनयशीलता, आदर भावना आदि मानवीय गुण सिखाती है। इसलिए माँ-बाप बच्चों को शिक्षित बनाते हैं। तुम्हारे दिमाग में अपना पराया का ख्याल आया ही क्यों।"

मालती की यह हालत थी कि, काटो तो खून नहीं। नीची गर्दन किए पैर के नाखून से फर्श को कुरेद रही थी। आँसुओं से भीगा चेहरा उठाकर मम्मी की तरफ देखा और पैरों में गिर गई। 

मुझे क्षमा कर दो मम्मी, मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। भौतिक चकाचौंध में मैं अपनों को पराया समझने की भूल कर बैठी। अब ऐसा नहीं होगा मम्मी, कभी नहीं होगा। अब तुम्हें और गगन को मुझसे कोई शिकायत नहीं होगी मम्मी, कभी नही होगी। मुझे माफ कर दो मम्मी, माफ कर दो।"

गगन की ओर देख - "तुम भी मुझे माफ कर दो गगन, मैं बहक गई थी। अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी गगन, कभी नहीं होगी।"

मालती की आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह रही थी। माँ ने उसे खींचकर अपने गले से लगा लिया। मालती के दिल-दिमाग से अपने पराए का भूत छूमंतर जो हो गया था।


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