मैं हूँ न!
मैं हूँ न!
लक्ष्मीकांत जी रिटायर्ड व्याख्याता है। रिटायरमेंट के बाद अपना अधिकांश समय लेखन में लगा दिया। गीत, कविताएं, लेख, आलेख लिखकर संचित ज्ञान का उपयोग करना बाकी बची जिंदगी का ध्येय बना लिया। आज भी लिखते समय वक्त का ध्यान नहीं रहा। पत्नी रमा ने टोका - "सुनिए, रात के 1 बज रहे हैं और इतनी देर तक जागना इस उम्र में ठीक नहीं है। कुछ तो स्वास्थ्य का ध्यान रखा करो।" शब्दों में चेतावनी के साथ आत्मीय प्रेम टपक रहा था।
"हाँ भाग्यवान, बस 10 मिनट का काम और बाकी है, फिर सोता हूँ।" लक्ष्मीकांत जी ने जवाब दिया।
सुबह चार बजे अचानक नींद खुली। लघुशंका से निवृत्त होकर थोड़ा और सोने की कोशिश की लेकिन नींद तो भाग चुकी थी। सोचा एक कप चाय पी ली जाए। यह सोचकर उठे और कदम किचन की ओर बढ़ा दिए।
रसोई घर में खटपट की आवाज सुनकर पास के कमरे में सो रही बहू दौड़ कर आई और बोली - "पापाजी यह आप क्या कर रहे हैं?"
"कुछ नहीं बहू, चाय पीने की इच्छा हुई तो किचन में चला आया।" लक्ष्मीकांत जी ने कहा।
"पापाजी, कमाल करते हैं आप भी, यह उम्र चाय बनाने की है क्या? मुझे क्यों नहीं जगाया? आपका ख्याल रखने की जिम्मेदारी हमारी है, गिर जाते या कुछ हो जाता तो!!" बहू मालती की आवाज में चिंता का भाव था।
"ऐसा कुछ नहीं है बहू, रमा और तुम सो रही थी, मैंने तुम दोनों की नींद में ख़लल डालना उचित नहीं समझा। तुम दोनों भी तो दिन भर कामों में जुटी रहती हो।" लक्ष्मीकांत जी के शब्दों में शहद सी मिठास थी, जो स्वाभाविक थी।
"पापाजी, आप भी न! हमारा काम ही घर गृहस्थी को सँभालना है। आज से आपको किसी भी चीज की आवश्यकता हो तो मुझसे बोलिए। आपका ख्याल रखने वाली आपकी बेटी "मैं हूं न"।
कहकर मालती चाय बनाने लगी।
