Mahavir Uttranchali

Romance

5.0  

Mahavir Uttranchali

Romance

कद्रदान

कद्रदान

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563


शाम पूरी तरह ढलने को थी क्योंकि सब जगह लाइटें जल उठी थीं। हमेशा की तरह बाज़ार सजा हुआ था। लोग-बाग अपने-आप में मसरूफ़ थे। तभी संगीत की मधुर स्वर लहरी उसके कानों में पड़ी तो वह बेचैन हो गया। वह आवाज़ की दिशा में खिंचता चला गया। पता नहीं कौन-सी कशिश थी कि, चाहकर भी वह स्वयं को रोक न सका। गीत को गायिका ने बड़ी कुशलता के साथ गाया था। यकायक वह बड़बड़ाने लगा, “यही है! हाँ, हाँ यही है, वो गीत जो बरसों पहले सुना था।” गीत को सुनकर, वह पागलों की तरह बदहवास-सा हो गया था। चेहरे से वह लगभग 55-60 बरस का जान पड़ता था। उसने लगभग पचास बरस पूर्व यह गीत ग्रामोफोन पर सुना था। इसके पश्चात उसने हर तरह का गीत-संगीत सुना- फ़िल्मी, ग़ैर-फ़िल्मी, सुगम संगीत से लेकर शास्त्रीय संगीत भी मगर वैसी तृप्ति न मिल सकी। जैसी इस गीत में थी। उस गीत की खातिर वह अनेक शहरों के कई संगीत विक्रय केंद्रों (म्यूजिक स्टोर्स) से लेकर बड़ी-बड़ी सभाओं और महफ़िलों में गया। मगर अफ़सोस वह गीत दुबारा कहीं सुनने को न मिल सका। यहाँ तक कि इंटरनेट पर, यू-टूब में भी उसने गीत के बोलों को तलाश किया। किंतु व्यर्थ वहां भी वह गीत उपलब्ध नहीं था। आज पचास वर्षों बाद उसकी यह उम्रभर की तलाश ख़त्म हुई थी। अतः उसका दीवाना होना लाज़मी था। वह निरन्तर आवाज़ की दिशा में बदहवास-सा बढ़ता रहा। आवाज़ कोठे के प्रथम तल से आ रही थी। एक पुराने से ग्रामोफोन पर उस गीत का रिकार्ड बज रहा था। वह हैरान था! कम्प्यूटर और मोबाइल के अत्याधुनिक दौर में कोई आज से पचास-साठ साल पुराने तरीके से पुराना गाना सुन रहा था। शायद कोई उससे भी बड़ा चाहने वाला यहाँ मौज़ूद था।

“आप बड़े शौक़ीन आदमी मालूम होते हैं, बाबू साहिब।” कोठे की मालकिन शबाना ने अपनी ज़ुल्फ़ों को झटका देते हुए कहा।

“शौक़ीन ! ये गीत, ओह मैं कहाँ हूँ ?” वह व्यक्ति किसी नींद से जागा था।

“आप सही जगह आये हैं हुज़ूर। यहाँ हुस्न का बाज़ार सजा है।” शबाना ने ताली बजाई और लगभग दर्जनभर लड़कियां एक कतार से कक्ष में प्रवेश कर गई।

“माफ़ करना मैं रास्ते से गुज़र रहा था कि गीत के बोल मेरे कानों में पड़े– बांसुरी हूँ मैं तिहारी, मोहे होंठों से लगा ले साँवरे।” उसने उतावला होकर कहा।

“ये तो गुजरे ज़माने की मशहूर तवायफ़ रंजना बाई का गाया गीत है। जिसे गीत-संगीत के शौकीन नवाब साहब ने रिकार्ड करवाया था। इसकी बहुत कम प्रतियाँ ही बिक पाईं थी। फिर ये गीत हमेशा-हमेशा के लिए गुमनामी के अंधेरों में खो गया था। यूँ समझ लीजिए ये गीत तब का है जब पूरे हिंदुस्तान में के० एल० सहगल के गाये गीतों की धूम थी।” शबाना ने आगंतुक को गीत से जुड़ा लगभग पूरा इतिहास बता दिया।

“क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूँ ?” शाबाना ने सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति दी तो उसने अपना सवाल पूछा, “आप आज भी इसे ग्रामोफोन पर सुन रही हैं। वजह जान सकता हूँ क्यों ?”

“रंजना बाई मेरी नानी थीं। मेरी माँ भी अक्सर उनका यह गीत इसी प्रकार ग्रामोफोन पर सुना करती थी। उन्होंने मुझे बताया था कि, यह ग्रामोफोन मेरी नानी ने उस ज़माने में ख़रीदा था। जब यह शहर के गिने-चुने रईसों के पास ही हुआ करता था।”

“ओह! आप तो उनकी मुझसे भी बड़ी प्रशंसक हैं। मेरे पास हज़ार रूपये हैं। तुम चाहों तो ये रखलो और मुझे यह रिकार्ड दे दो।” उस कद्रदान ने जेब से हज़ार का नोट निकलते हुए कहा।

“हज़ार रूपये में तो तुम पूरी रात ऐश कर सकते हो बाबूजी। इस बेकार से पड़े रिकार्ड पर क्यों एक हज़ार रूपये खर्च करते हो।” शबाना ने फिर से डोरे डालते हुए कहा।

“यह गीत मैंने आठ-दस बरस की उम्र में सुना था….” इसके पश्चात उसने इस गीत के पीछे अपनी दीवानगी की पूरी राम-कहानी शबाना को कह सुनाई। फिर अपनी दूसरी जेब से एक और नोट निकलते हुए कहा, “ये पांच सौ रूपये और रख लो, मगर अल्लाह के वास्ते मुझे यह रिकार्ड दे दो। देखो इससे ज़ियादा पैसे इस वक्त मेरे पास नहीं हैं। ये गीत मेरी उम्रभर की तलाश है।” उसने अपनी सारी खाली जेबें शबाना को दिखाते हुए, यकीन दिलाने की चेष्टा की।

“बहुत खूब ! कला के सच्चे कद्रदान हो! ले जाओ ये रिकार्ड और ग्रामोफोन भी।” शबाना ने पैसे लौटाते हुए कहा, “हमारी तरफ से ये सौगात तुम्हारी दीवानगी के नाम।”

“मगर ये पैसे क्यों लौटा रही हो ?” वह व्यक्ति बोला।

“हम बाज़ारू औरतें ज़रूर हैं, मगर कला हमारी आत्मा में बसती है और हम कला का सौदा नहीं करती।” शबाना ने बड़े गर्व से कहा।


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