कौन हैं वे
कौन हैं वे
आज सच में थक गई। किसी के लिए कितना भी करो कोई आपको शुक्रिया नहीं कहने वाला। लोग कहते हैं कुत्ते बहादुर जानवर होते हैं। पर आज मुझे इस बात पर शक हो गया, मैंने ना जाने उनके लिए क्या नहीं किया पर वो मुझे आज तकलीफ दे गए। फिर भी मुझे उन्हें जिंदगी देने में कोई पछतावा नहीं है। जीवन देना और उस पर पछताना उन्हें मारने जैसा ही है, और मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती, कभी नहीं। साल के शुरुआत के दिन थे, कहीं दूर के गांव से कोई बोरी में भरकर पाँच नवजात कुत्तों को मेरे खेत के सामने वाली बाग के नल के पास रख गया। उसे इतने भी डर न था कि इतनी ठंड में वे बिना अपनी माँ के मर ना जाएं। उन नन्हे बच्चों की आँखें तक नहीं खुली थीं। वे बच्चे भूख और ठंड से तड़पने लगे। तब वे अपनी धीमी आवाज में गुर्राने लगे। तभी मेरे गन्ने के खेत में काम कर रहे बिहार से मजदूर घर खाना खाने के लिए लौट रहे थे और उन्होंने उन बच्चों की आवाज सुनी और वहाँ देखने गए तो इन बच्चों को पाया। वह इनको घर ले आए।)(एक दो दिनों तक सब कुछ ठीक रहा। सबको लगा कि उनकी माँ उन्हें यहाँ छोड़ कर चली गई होगी या फिर वो मर गई होगी। बड़ी चर्चा हुई, उन्हें खाने-पीने को भी दिया गया। मजदूर दिन में खेतों में काम करने जाते तो उन्हें भी साथ ले जाते और शाम को खाना खिलाने के लिए घर ले आते। सभी मजदूर अपनी-अपनी थाली में खाना बचा लेते चाहे उनका खुद का पेट भरा हो या नहीं। वे बच्चे बस मेरे मोहरे पर ही रहा करते। वे हमारे साथ आग के पास बैठे रहते, सच में उस समय बहुत ठंड थी। बिना माँ के बच्चों को तो इस बात का एहसास किसी और से ज्यादा हुआ होगा, मैं ये बात कह सकती हूँ।
कुछ वक्त बाद वे मोहरे पर मल करने लगे। पहले तो एक बुज़ुर्ग मजदूर, जिन्हें हम प्यार से मामा बुलाया करते थे, वे साफ कर दिया करते थे लेकिन ये सब बहुत दिनों तक नहीं चल सका। बाबा ने उन्हें रात को घर लाने से मजदूरों को मना कर दिया। वे भी लाचार थे, आखिर कैसे बात ना मानते। तो उन्हें वही खेतों में गन्ने के पत्तों से ढक कर चले आते थे। वे बेचारे, सुनसान खेतों में अकेले रात में भूखे-प्यासे पड़े रहते थे। बस दोपहर में मजदूर कुछ खाना बचा कर खिलाते थे। जब मैंने ये बात सुनी तब मुझे बहुत खेद हुआ, और लाचार होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन मैंने उन्हें दोपहर में देखा। वे कितने दुबले-पतले हो चुके थे, वे पहले तो ऐसे नहीं थे, वे अच्छे लगते थे। ऐसे अनगिनत ख्याल मन में आए। कहीं ना कहीं कुछ तो इस आत्मा ने तय कर लिया था। मैं मामा से मिली और कहा, "कुछ भी हो जाए आप इन्हें हर दिन घर लेकर आएंगे, मैं उन्हें खिलाऊंगी। इन लोगों में भले ही तनिक दया न हो पर अगर ये हमें मिले हैं तो कम से कम इन्हें एक वक्त पेट भर खाना तो मिले। कोई कितना भी मना करे, आप इन्हें घर लाएंगे|(आखिर इन्हें भूखा मारने से किसी को क्या मिलेगा। फिर वे हर दिन इन्हें घर लाने लगे और मैं उन्हें हर दिन एक किलो चावल और 12 रोटियाँ खिलाने लगी। पहले तो किसी घरवाले ने कोई विरोध नहीं किया लेकिन कहीं न कहीं मन से थे। मैंने किसी की बात कभी नहीं सुनी। लोगों ने मुझे उनकी बहुत सी कमियाँ दिखाईं और बहुत मना किया, कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि किसी की बातों से ज्यादा मुझे उनके चेहरों की परवाह थी। जब भी उनका भूख से तड़पता चेहरा देखती, ऐसा लगता जैसे किसी ने जलती तलवार दिल के आर पार कर दिया हो।
मैं बस यही सोचा करती थी कि इंसान सच में स्वभाव से ही लालची और निर्दयी है। वे अपने बच्चों की हजार गलतियों को माफ कर देते हैं चाहे वे किसी को मार ही क्यों न डालें। हष्ट-पुष्ट भिखारियों को अनाज की बोरी-बोरी दे देंगे। उस पत्थर के भगवान के सामने 56 भोग सजाएंगे, लेकिन इन मासूमों को एक रोटी भी देने को तैयार नहीं हैं। आखिर कैसे हैं ये मानव, क्यों हैं ये मानव। क्या ये सच में इस धरती के महान पर्दे पर खेलने के लायक हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इनके होने से हर कोई धरती पर नाराज ही है क्योंकि ये बहुत ही दोगले हैं। प्रकृति इन्हें जरूर सजा देगी। समय बितता रहा, अब ये तकरीबन दो महीने के हो चुके थे। फरवरी का महीना चल रहा था, गन्ने की मिलें बंद होने को थीं। तो मजदूरों को रातों को भी आधी-आधी रात तक खेतों में काम करना पड़ रहा था। ऐसे में उन्हें खिलाने के लिए मुझे भी रात के एक-दो बजे तक जागना पड़ रहा था और सुबह दो घंटे का सफर कर विद्यालय भी जाना होता था। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। ठंड की रातों में, चिलचिलाते पानी को अपने पास रखती और जब नींद आती तो उसमें अपना हाथ डाल दिया करती थी। फिर भी उन्हें खिलाए बिना सोती नहीं थी। कई बार ऐसा हुआ कि खाना खत्म हो जाया करता था तो उन्हें मैं अपना खाना दे दिया करती थी। उन्हें किसी भी तरह जिंदा रखना ही बस यही ख्याल हर पल दिमाग में चलता रहता था। मैंने 5 महीनों में एक भी ऐसी रात नहीं छोड़ी जब वे भूखे हों।
