जन्महीन

जन्महीन

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आज उम्र की पचासवीं पादान पर खड़ा पीछे मुड़कर देखता हूं तो कहीं कुछ नहीं, न भूत है न भविष्य और ना ही वर्तमान बस यूं ही वक्त की सलीब पर टंगा हूं ! वैसे कहने को तो भरा पूरा परिवार था- माता-पिता, दादा-दादी, दो बहनें, एक भाई मगर आज आज क्या ? आज भी तो भरा पूरा परिवार है ! इस परिवार में मुझसे छोटे हैं, बड़े हैं तो हमउम्र भी हैं, सब मिलाकर पच्चीस जनों का परिवार है। अब यही मेरा अपना परिवार है फिर भी जिस परिवार ने बिलखता हुआ मंझधार में छोड़ दिया उसका ख्याल पल-पल सालता है, भीतर ही भीतर गड़ता है ! हां, मां की याद अक्सर थपथपाती है, लोरी सुनाती है बस यही तो मीठी बयार है ! मेरी मां ने मुझे हर तरह से सहेजे रखा मगर इसमें दादी का सहयोग कम नहीं था ! दाई पीढ़ियों से आती थी यानी कि उसी के परिवार से, मेरे जन्म के वक्त दादी ने उसे अपनी चांदी की हमेल दी थी, क्यों ? यह तो मैं बहुत बाद में जान पाया ! उसने वही किया जो दादी मां ने कहा ! बस खुश थे सब, बधाइयां दी जा रही थी, दो बहनों के बाद जो जन्मा था ! दादाजी और पिताजी की खुशी का तो पारावार न था, उनके तो पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे ! इसी खुशी भरे माहौल में मेरा लालन-पालन हुआ। थोड़ा बड़ा हुआ नर्सरी में डाला, इसी तरह फिर केजी, पहली, दूसरी में भी आ गया, हमेशा पूरी कक्षा में फर्स्ट आता था। छब्बीस जनवरी की परेड में भी फर्स्ट आया तो पिताजी इतने खुश कि पूछो मत. मुझे घुमाने ले गये,गांव में मेला लगा था, वहां मुझे खूब घुमाया, झुलाया, खिलाया-पिलाया ! वो दिन मेरी जिन्दगी का अनमोल और खुशियों का खजाना था, उस रात को तो सोया भी पिताजी के साथ तो दादाजी बोले- नीरज कल मेरे साथ सोयेगा अपनी एडवांस बुकिंग है !

हां-हां, क्यों नहीं नीरू हमारा तो जैसे कुछ है ही नहीं, बाप-दादा का ही तो है ! 

इतने में दादाजी की प्यार भरी आवाज - अरी भागवान, एक दिन के लिए भी जलने लगी !

जले मेरे दुश्मन पर कल तो नीरू मेरे साथ ही सोचेगा, समझे दादाजी ? 

हां दादीजी, बिलकुल ! 

इस खुशी की रात पर मानो सुबह की गाज गिरी वो भी ऐसी कि सुबह पिताजी मुझे नहलाने के लिए ले जाने लगे- चल बेटा, आज पापा नहलायेंगे आपको ! ओहो, मैं बहुत खुश इसलये कि पहली बार पिताजी के साथ नहाने वाला था ! मां और दादी ने बहुत मना किया, दादी ने पिताजी के हाथ से छीन ही लिया पर पिताजी नहीं माने और मैं उनकी गोद से भाग गया ! दादी बेचारी चिलाती रही- अरे छगन, रहने दे, तू नहा ले, मैं इसे मालिश करके नहलाऊंगी ! 

तो वो कौनसी बड़ी बात, मैं मालिश कर देता हूं !

तुझे लेट हो जायेगा ! 

अम्मा, तुम भी ना आज छुट्टी है, और कहते हुए मुझे बाथरूम ले गये मां और दादी पर क्या बीती होगी, आज बखूबी समझ रहा हूं ! दोनों सकते में कुछ सूझ नहीं रहा था, करे तो क्या करे ! इते में जाने क्यों पिताजी ने नहलाने से पहले ही छि कहते हुए मुझे जोर का थप्पड़ मारा और गुस्से में बाहर की ओर धकेल दिया, मैं गिर पड़ा ! पत्थर से टकराने के कारण सिर फट गया, खून तेजी से बहने लगा ! सब लोग अरे-अरे कहते हुए इतना जोर से चिलाये कि पूरा घर गूंज गया ! दादाजी भी भागे-भागे आये उससे पहले दादी ने मुझे अपने अंचल में समेट लिया। बेचारी मां दूर खड़ी थर-थर कांप रही थी जैसे सब उन्हीं का कुसूर है ! दादी दौड़ी-दौड़ी अस्पताल ले गई कपड़े के नाम पर केवल कच्छा पहना दिया ताकि डाक्टर ने टांके लगाये और मरहम-पट्टी की साथ ही इंजेक्शन भी दिया।

पिताजी के इस रवैये पर मैं आश्चर्यचकित था और दुखी भी ! घर का माहौल ऐसा हो गया था मानो किसी की मौत हो गई हो ! मां ने मुझे अपने सीने से लगाकर अपनी बाहों में समेट लिया और फूट-फूट कर रोने लगी ! मैंने मां के आंसू पोंछते हुए कहा- मां, मत रो, देख मुझे ज्यादा नहीं लगी। तब मुझे क्या पता था कि कहां क्या-क्या लगा है ! घर के पुरुषों ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब मुझे यहां नहीं रखेंगे ! मां-दादी की एक न चली और मैं सारे तथ्यों से अनजान ! दूसरे दिन पिताजी मुझे घुमाने ले गये इससे मैं खुश तो था पर डर भी रहा था कल का वो सब याद जो था ! पिताजी मेरे डर को समझ रहे थे सो बहुत प्यार से फुसलाने लगे ! आज उनका प्यार देखते बनता था ! मुझे खूब घुमाया-झुलाया, खिलाया-पिलाया डर जाने कहां गया बस, खुशी उछल रही थी, मैं भी खुशी के मारे उछल-कूद, रहा था !

अब बहुत देर हो गई मैं घर चलने की जिद करने लगा और वे थे कि कहते- अभी चलते हैं वो वाला झूला देखो कितना बड़ा है उसे करते हैं, बड़ा मज़ा आयेगा ! इस तरह खेलते -कूदते जाने कब नींद आ गई ! आंख खुली तो खुदको अनजान जगह पर अजनबी लोगों के साथ पाया तो फुग्गा फाड़ कर सातों सुरों में रोने लगा ! सब लोग हंसने लगे लेकिन एक आंटी ने सबको डांटा - खबरदार जो मेरे बच्चे को परेशान किया. सबको मारूंगी समझे ! सब चुप हो गये ! आंटी ने मुझे गोद में लिया, प्यार किया, रोना तो थम गया मगर डर और सिसकियों ने बांधे रखा ! आंटी पुचकारते-पुचकारते समझा ही रही थी- देख बेटा, रो मत अब तेरा घर यही है और स्कूल भी यही समझ ले !

मुझे तो रह-रह कर रोना आ रहा था ! मां और दादी बहुत याद आ रही थी, रोता रहता, अम्मा पास जाना मम्मा पास जाना, छोड़ दो, जाने दो ना ! फिर सातों सुरों में तान लगाता- ये स्कूल गंदा है, मेरा अच्छा है ! इधर तो टीचर भी अच्छी नहीं, बच्चे भी अच्छे नहीं, मुझे घर जाना है ! अपनी स्कूल जाना है। आंटी बहुत प्यार से रखती पर प्यार किसे चाहिए था मुझे तो अपनी मां और दादी के पास जाना था ! मुझे यहां क्योँ लाये ? लाये नहीं बेटा, तुम्हारे पापा तुम्हें हमारे पास छोड़ गंये हैं । सुनकर मेरे बालमन पर क्या गुजरी होगी आप अंदाजा नहीं लगा सकते ! इस तरह दिन गुजरते रहे, मेरा रोना-धोना चलता - रहता, मां और दादी को बुलाता रहता पर बुलाने से क्या होता ! तीन-चार बार तो घर जाने के लिए भागा भी मगर रास्ता तो मालूम था नहीं सो भटक जाता पर ये अच्छी वाली आंटी मुझे ढूंढ़-ढांढ कर लें आती । बेचारी बड़े प्यार से रखती, समझाती वे मुझे कन्हैया कहती -- अरे मेरा कन्हैया, मेरा राजा बेटा ऐसे मतकर जब पैदा करने वाले ने भी छोड़ दिया तो फिर भला …… पहले तो कुछ पले नहीं पड़ता था पर गुजरते वक्त के साथ सब समझ में आने लगा ! आखिरकार मैंने हालात के आगे हथियार डाल दिये ! पांच -छ साल के बच्चे को अपनी मां से, अपने घर से अलग कर दिया, जड़ों से काट कर जमीन से ही उखाड़ दिया, अलग कर दिया ! करने वाला खुद उसका जनक कैसा था उसका प्यार ! क्या पिता का प्यार ऐसा ही होता है ?

इस तरह एक साल बीत गया यहां मुझे आधार था तो उस अच्छी आंटी का लेकिन मुझे मेरी मां और दादी चाहिए थी मैं जिंदा था तो उस आंटी के कारण जिसने मां की तरह सीने से लगाकर रखा ! नहलाना-धुलाना, खिलाना-पिलाना सब वे ही करती, अपने साथ सुलाती, मां बनकर पाला कोटि-कोटि नमन उस देवी को जिनमें अक्सर मां की झलक दिख जाती !

फिर भी मां की याद तो आती ! एक दिन सुबह उठते ही उनके गले में बाहें डालकर बरबस ही मेरे मुंह से मां निकला- मां इतना सुनना था कि वे फफक-फफक कर रोने लगीं और मुझे अपनी बाहों में बांध लिया, बेतहाशा चूमने लगी, चूमते-चूमते भरे गले से बोली- मेरे बच्चे, आज तूने मुझे नया जन्म दिया, मां बना दिया ! आज एक बेटे ने मां को जन्म दिया है !

मां, उसने भी तो मुझे जन्म दिया था मगर मैं जन्म देने के काबिल नहीं था इसीलिए मेरा त्याग कर दिया ? पर तूने मुझे इस काबिल बनाया कि मेरे प्यार में डूबी तेरी ही ममता ने तुझे जन्म दिया ! धन्य हो मां, तुमने मुझे अपने अस्तित्व का शिद्दत से अहसास कराया तब ये सब कहां समझ में आता था, यह तो गुजरते वक्त ने सब समझा दिया ! बड़ा होता गया ये मां अपनी मां होती गई, कब और कैसे पता नहीं पर अब अपनी थी ! हालांकि मां को यह दुनिया छोड़े बीस साल हो गये हैं फिर भी ज्यों की त्यों मां की बातें कानों में गूंजती है, कन्हैया-कन्हैया, बस कन्हैया अब सब़के लिए मैं कन्हैया था लेकिन इस कन्हैया को तो अपनी जिंदगी का मकसद ही नहीं मालूम ! हां, मेरी मां की जिंदगी का मकसद था और वो था मैं ! मां तो चली गई मगर मैं वहीं खड़ा हूं अपने मकसद की तलाश में ! कई बार लगता- क्या नेग मांगना ही जिन्दगी का मकसद है ? मां मुझे अक्सर कहती- तेरा मकसद यह नहीं है, कुछ और है ! पूछने पर कहती- वक्त आने पर तू खुद ही समझ जायेगा ! मुझे मांगने जाना अच्छा लगता ! मां पढ़ाना चाहती थी घर में ट्यूशन रखकर पढ़ाया क्योंकि स्कूल भेजते हुए डरती कि कहीं उसके बेटे का कोई मजाक न बनाए उसका कन्हैया लाखों में एक जो था ! मैंने बारहवीं पास कर ली पर मेरा मन नाच गाने की तरफ खिंचता पर मां ने एक कला की तरह लिया ! मां ने कहा- देख, ये सब बुरा नहीं है हमारे समाज का तो रोजी-रोटी का जरिया है पर मैं चाहती हूं मेरा बेटा बहुत बड़ा आदमी बने ! मां के इस कथन में बहुत बड़ा तथ्य था, संकेत था ! उस दिन मां की बात दिल में घर कर गई ! अब तक तो मैं सबके साथ जाता रहा था पर बारहवीं के बाद मां ने मना कर दिया - अब मेरा बेटा मांगने नहीं जायेगा !

तो क्या मुफ्त की खायेगा ? यह कौनसा लाटसाब है ! ऊपर से इसकी पढ़ाई का खर्चा, क्या हम करते रहेंगे ? जिन्दगी भर ढोते रहेंगे ?

क्यों, क्या अब तक आप लोगों ने किया है ? मुझे तो याद नहीं आ रहा है !

बल्कि अब तक मैं करती आई हूं, करती रहूंगी, अब इसे बख्श दो ! कुछ बन गया तो हमारा ही नाम रोशन होगा ! मां ने मुझे इतना ही कहा था- इस मां की लाज और सपना अब तेरे हाथों में है ! और समझ में आ गया अपनी जिंदगी का मकसद ! मां गुरूमाता बनी पर सबके प्रति कोमल रही और जागरूक भी ! मैं भी जी जान से अपनी पढ़ाई में जुट गया । एक दिन मैंने मां से कहा- मां मैं डाक्टर बनना चाहता हूं ! सुनकर मां एकदम खुश - डाक्टर ! यह सपना बहुत बड़ा है मेरे लिए ! अगर तू डाक्टर बन गया तो मेरा जन्म सफल ! अब तो सही अर्थों में जिन्दगी का मक़सद मेरे सामने था और मुझे पूरा करना था अपनी मां के लिए ! मां के आशीर्वाद और सपोर्ट से डाक्टर बन गया । मेरे सर डाक्टर सिंह ने कहा- यार, तू एम डी क्यों नहीं कर लेता ? कर लेना चाहिए और मैंने एम डी भी कर लिया ! थ्रोआऊट गोल्ड मेडलिस्ट रहा था सो मां की खुशी की कोई सीमा न थी ! डाक्टर होकर भी अपनी मां को बचा नहीं पाया ! मां ने अपनी जिजीविषा के बल पर मुझे डाक्टर बनाया पर यह डाक्टर अपनी मां के लिए कुछ नहीं कर सका। केंसर ने निगल लिया, भौतिक रूप से मां नहीं है फिर भी वे हर पल मेरे साथ हैं और इस परिवार में किसी का भतीजा-भानजा हूं तो किसी का चाचा”-मामा हूं ! इन सबकी जिम्मेदारी मां ने मुझे सौंपी जिसे मैं बखूबी निभा रहा हूं । हां, यह तय है --आने वाली नई पीढ़ी की जिंदगी का मकसद नेग मांगना नहीं बल्कि अपने कैरियर पर फोकस करना होगा ! मेरी प्रेक्टिस अच्छी चल रही है बच्चों को आगे बढ़ने के लिए मोटीवेट करता रहता हूं उन्हें उनका मकसद समझाने की कोशिश करता हूं । काफी बच्चे पढ़ लिखकर आगे निकल गये हैं विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं ! अपने वजूद को शिद्दत से महसूस किया है उसे एक आकार देकर नया रूप दिया है यह उनकी जिजीविषा है जिसने उन्हें अस्त्तित्व का अहसास कराया है ! रितु, रीना, ऋषभ और शालिनी डाक्टर बन गये हैं, जयंत, कमल, प्रथमेशं इंजीनियरिंग कर रहे हैं और सबसे बड़ी बात कुछ शिक्षाक्षेत्र में जाना चाहते हैं ! अच्छा लग रहा है कि सोच बदल रहीं हैं मगर अफसोस समाज की सोच नहीं बदल रही है ! कुछ लोगों का मानना है कि हम जैसों को तो जन्म, सगाई, शादी इत्यादि में ताली पीटना, नाच-गाना करना, दुआएं देना और मांगकर अपना भरण-पोषण करना ही कार्य है, यही मकसद भी ! फिर भी अस्सी प्रतिशत तो ऐसी जिन्दगी नहीं जीना चाहते हैं लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है कारण स्पष्ट है- एक आम इंसान के रूप में हमें देखा ही नहीं जाता !

खैर पर जनाब, कुछ लोग ऐसे नहीं है फिर भी हम जैसे बन कर सिग्नलों पर चौराहों पर तालियां पीट-पीटकर मांगते हैं ! तरस आता है मुझे उन पर जो अपनी नाकाबिलियत से अपने अस्त्तित्व का हनन करते हैं लेकिन यहां भी कहीं न कहीं समाज ही जिम्मेदार है इसलिए सच में कहीं कुछ भी नजर नहीं आता। वाकई हमारा क्या वजूद है ? हमारी शख्सियत यहीं पर खत्म हो जाती है, हम हैं या नहीं किसी कोई फर्क नहीं पड़ता ! बावजूद इसके किसी को भी उसके वजूद का अहसास करा सका तो मेरी मां के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ! बस जो मेरी मां का मकसद था वही मेरा है- आम लोगों की तरह समाज में जीने का मौका मिले, पढ़-लिखकर विभिन्न पदों पर काम करे, वे भी किसी के बास बनें ! मेरे परिवार के बुजुर्ग हैं उन्हें आम वरिष्ठ नागरिकों की तरह सामाजिक जिन्दगी जीने का अवसर मिले ना कि मांगकर जिन्दगी जीये। पूरी तरह से समाज के साथ जीने-मरने का हक मिले- अपने व्यक्तित्व को विकसित करने का, विभिन्न आयामों पर एक विशिष्ट पहचान पाने का अधिकार मिले, बस इससे अधिक तो हमारी कोई चाहत नहीं !

आम नागरिकों की तरह तो हमें कुछ भी हासिल नहीं होता, हमें काफी मशक्कत करनी पड़ती है ! कोशिशें जारी हैं, माना कि हम तीसरी दुनिया के बाशिंदे है पर हमें भी तो कानूनी हक मिले, स्कूल कालेजों में प्रवेश मिलने में, पढ़ने में कठिनाई या परेशानी का सामना न करना पड़े। हालांकि कहने को बदलाव आया पर कितना ? इतना सब होने पर भी जिन्दगी में खालीपन तो रहेगा। रिश्ते तो बहुत है पर खून का एक भी नहीं, जो थे उन्होंने नाता तोड़ दिया, हमारा जन्म तो जन्महीन है इसीलिए तो न भूत है न भविष्य है और वर्तमान है तो भी अधर में लटका हुआ त्रिशंकु मात्र है ! आज भी तमाम काबिलियत और उपलब्धियों के बावजूद भी कहीं कुछ नहीं ! अभी कल ही श्रषि ने मुझसे सवाल किया- चाचू, हमारी शादी क्यों नहीं होती ? बच्चे क्यों नहीं होते ? अब उस दस साल के मासूम को क्या बताऊं, कैसे समझाऊं ! उसके इस सवाल ने मुझे झकझोर के रख दिया ! 

माना कि जन्महीन हैं फिर भी इस जन्म को जाया नहीं करेंगे यह वादा है अपने आप से -- अपना भविष्य भी बनायेंगे, वर्तमान को भी जमीन और आकार देंगे तब भूत तो खुद-ब-खुद स्थापित हो जायेगा ! ठीक है हमारा कोई अंश नहीं पर वंश तो है अपनी उपलब्धियों का, अपने रिश्तों का ! 


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