Aditi Mishra

Abstract Inspirational

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Aditi Mishra

Abstract Inspirational

जीवित है साहित्य

जीवित है साहित्य

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आज वह किसी भी प्रकार से उसका पता ढूँढ ही लेगी। कहीं तो रहता होगा अब वह, किसी से तो मिलता होगा। यूँ ही दुनिया में लोग उसके अस्तित्व का डंका थोड़े ही बजाते रहते हैं। बचपन में किसी ने उसे बताया था कि वह उसे अचानक जीवन के किसी मोड़ पर मिलेगा और फ़िर उसके जीवन की दिशा बदल जाएगी। उसे आज भी याद है एक स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर कोने की बेंच पर जब वह बैठी हुई कुछ सोच रही थी तब सचमुच वह उसके पास आया था या शायद उसे दिख गया था, अचानक ही उसके अस्तित्व का अहसास हुआ था और फ़िर उससे मिलकर सब कुछ बदल गया। उसने कहा था वह कहीं जाएगा नहीं, उसकी हर रचना में उसके साथ रहेगा। और सच भी है। उसने एक माँ की भाँति अपनी हर रचना में उसे जीवंत रखा है। पर अब ज़माना बदल गया है। उसकी परिभाषा बदल गई है। ऐसा तो नहीं है कि लोग अब पढ़ते नहीं, लिखते नहीं, पर अब बस उसका मन खिन्न हो जाता है जब लोग साहित्य की धज्जियाँ उड़ाते दिखते हैं, और पीछे एक भीड़ उन्हें हौसला देती है। आज वह उससे मिलकर अपने मन की सारी भड़ास निकाल देगी।


शाम तक एक पता मिला उसे। और वह उसे ढूँढते हुए उस वीरान मोहल्ले में पहुँची। बहुत सुनसान था सब कुछ यहाँ। इतने सन्नाटे में तो कोई ग़मगीन आदमी ही रहेगा। लगता है उसकी तबियत सचमुच आजकल सुस्त रहती होगी, साँसें टूटने लगीं होंगी, तभी वह यहाँ आकर अपने अन्तिम दिन काट रहा है। चलते चलते अंततः वह एक पुरानी सँकरी गली में मुड़ गई। एक बार यहाँ भी देख लेती हूँ क्या पता यहाँ हो। उस गली के अन्त में उसे झोपड़ी दिखी, जिसका छप्पर टूटा था, दरवाज़ा भी नहीं था। वह थोड़ा सकुचाते हुए, थोड़ा डरते हुए उस झोपड़ी में घुस गई। अंदर छत से पानी रिस रहा था, फ़र्श गीला था, और एक तिरछी चारपाई पर वो लेटा था। किसी के कदमों की आहट सुनकर चौक गया वह।


"कौन है?" उसने कराहते हुए पूछा।

कोई जवाब नहीं आया। क्या सोचकर वह यहाँ चली आई। इतनी दयनीय स्थिति में उससे प्रश्नोत्तर करेगी वह। पर यही तो एक रास्ता होगा।

"जी, मैं हूँ", उसने दबी ज़बान में उत्तर दिया।

"क्या काम है मुझसे?", लड़खड़ाती बूढ़ी आवाज़ ने पूछा।

"मैं एक कलाकार हूँ, आपको कब से ढूँढ रही थी।"

"सब मर गए हैं क्या?" उसने तल्ख़ ज़बान में पूछा।

"आप मर रहे हैं क्या?" उसने भृकुटी तानकर पूछा।

वह खाँसते हुए हँसा और बोला, "अच्छा तो तुम हो वह स्टेशन वाली लड़की। बताओ क्या चाहिए?"


उसके अंदर का बाँध फूट गया और वह बिलखकर बोली,

"कला मर रही है, साहित्य तड़प रहा है,

सब पैसों के ठेकेदार हो गए हैं,

कोई सच्चा साहित्य नहीं पढ़ता अब,

साहित्य के रखवाले माया में लीन हैं,

जो दिखता है वही बिकता है,

काव्य कब का विलुप्त हो गया है,

कहानियाँ घुट घुट कर बिगड़ रही हैं,

जीवन देने वाला अब ज़हर उगल रहा है,

कला का स्वरूप अब कलाकार तोड़ रहा है,

मैं विवश हूँ क्या करुँ अब घोर निराशा छाई है,

दुनिया में नित नया रचता द्वेष भला नहीं लगता,

कलम उठाने को अब मेरा हृदय नहीं कहता।"


"कला कहाँ मर रही है", वो दैत्यों सा हँसकर बोला,

"कौन सी कला संकट में है,

क्या कुछ लोगों का साहित्य ही कला है,

अरे वह तो अनंत काल तक रहेगी,

वह 7 अरब रूप लेकर दुनिया में घूम रही है,

हर इन्सान के भीतर जन्म लेकर रह रही है।

कभी मिल जाती है किसी को अपनी कला,

और वो महान बन जाता है उसे पाकर।

कभी ढूँढ ही नहीं पाता कोई उसे,

और वो अंदर ही दब जाती है उसकी मृत्यु तक।"


"पर वह तो खो रही है आजकल", उसने बीच में ही टोका। उसे लगा वह समझा नहीं पाई समस्या की गंभीरता ठीक से। यहाँ रहकर तो किसी को बाहर की दुनिया का पता भी नहीं चलता होगा।


"तुम मेरी बात समझी नहीं", उसने कहा,

"हर इन्सान की अपनी कहानी है कला,

हर आदमी का अपना मोक्ष है साहित्य,

कोई टॉलस्टॉय बन गया,

कोई प्रेमचन्द हो गया,

किसी ने प्रेम पर काव्य लिखा,

किसी ने युद्ध को लाल रंगा,

कोई आकाश में ऊँचा उड़ा,

कोई ज़मीन पर सत्य में गड़ा,

काफ़का बना कोई भावनाओं में,

दिनकर बना कोई घटनाओं में,

कला इतनी बार जन्मी,

और फ़िर जब जब इन्हें पढ़ा गया,

वो बढ़ती रही, कभी मरी नहीं,

और हर बार जब कोई कलम उठाएगा,

वो जन्म लेती रहेगी।


साहित्य तड़प रहा है क्योंकि,

कलाकार का अहम ऊपर उठ गया है।

वो अब भी कुलबुला रहा है,

सच्चाई से लिखे जाने को।

बस उसका कोई अपमान ना कर दे,

वो फ़िर से लहलहाएगा।

बस तुम याद रखना वो नाज़ुक है,

हर किसी का अपना साहित्य है।

जो किसी की कला है वो तुम्हारी नहीं,

जो तुम्हारी कलम का रंग है वो किसी और का नहीं,

कलाकार की तरह रंगो उसे,

वो मरती नहीं है, तुम्हें हर रूप में मिलेगी।"


अब वह कुछ कुछ समझ रही थी। यही साहित्य का सार है। यही कला का उद्गम है। वह किसी स्थान, व्यक्ति की मोहताज नहीं होती। इसी तरह किसी प्रश्न, किसी परिस्थिति, किसी वार्तालाप में भी जन्म ले सकती है। वह मुस्कुराई। मन का संताप दूर हो रहा था।

"और आप?", उसने धीरे से पूछा।


उस बूढ़े के चेहरे की झुर्रियाँ ग़ायब हो रही थीं। वह बूढ़ा था भी या यह सब मेरे मन की माया है, उसने सोचा। एक पल में ही वह उठकर बैठा और बोला, "लो मैं भी फ़िर से जाग गया। मैं तुम्हारे क्लेश को दूर हटाने की प्रतीक्षा कर रहा था। जानता था तुम अवश्य आओगी। अब जब तुम्हारी कला मिल ही गई है, तो मैं तुम्हारा साहित्य हूँ, लिख डालो मुझे फ़िर से।"

वह सब समझ गई। आँखें खोलीं स्वप्न से और कलम उठाकर शब्द उकेरने चल दी अपनी दुनिया में।



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