ज़बाने यार मनतुर्की - 17
ज़बाने यार मनतुर्की - 17


ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं। ये किसी से कहती है :"बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो तिन कोय"तो किसी से कहती है :"कोशिश करने वालों की हार नहीं होती!"साधना से उनके अनुभव ने क्या कहा, आइए सुनते हैं।
"हम आपस में बात नहीं करते। वो उसके रास्ते और मैं मेरे। न वो मुझे बुलाती है और न मैं उसे। फ़िर क्यों जाएंगे! आना- जाना तो दूर की बात है, हम रास्ते में अगर एक दूसरे को मिल जाएं तो भी पहचानते नहीं हैं।"
ये बात साधना ने एक महिला पत्रकार से उस समय कही जब उसने साधना से बबीता के बारे में सवाल किया। आप और बबीता जी बहनें हैं, आप दोनों ही कामयाब एक्ट्रेसेज़ हैं। बहुत सारे एक्टर्स भी ऐसे हैं जिनके साथ आप दोनों ने ही काम किया है, फ़िर क्या आप दोनों को किसी प्रोड्यूसर ने साथ में साइन करने की पेशकश नहीं की?
"मुझे नहीं लगता कि हम कभी साथ में काम कर पाएंगे।"
"क्यों?"
"क्योंकि साथ में काम करने के लिए एक - दूसरे की रेस्पेक्ट होनी चाहिए, एक दूसरे के प्रति समझ होनी चाहिए। कम से कम मन में ये भाव तो होना ही चाहिए कि इससे हमारा अपना व्यक्तित्व उजागर होगा। उसमें ये समझ नहीं है। वो मुझे दुश्मन समझती है।"
"लेकिन ऐसा क्यों? इसका कोई कारण।"
साधना ने कहा -" ये सब छापिएगा मत, इससे लोगों को क्या लेना - देना? पर असल में बात ये है कि उसे एक ग़लतफहमी हो गई है। और वो मुझसे दुश्मनी पाल कर बैठ गई है।"
"लेकिन क्या अापने ग़लतफहमी को कभी दूर करने की कोशिश नहीं की? किस बात पर है ये गलतफहमी?"
"जाने दीजिए, अब गढ़े मुर्दे उखाड़ने से फायदा भी क्या? साधना ने मानो बात का पर्दा गिराना चाहा।"
लेकिन पत्रकार की बेचैनी देखकर उन्हें लगा कि शायद अब उस पत्रकार की दिलचस्पी सिर्फ़ यही जानने में है कि बबीता और साधना में अनबन किस बात को लेकर हुई।साधना ने उसे सब कुछ बता डाला, कि किस तरह राजकपूर चाहते थे कि वो या तो फ़िल्मों में काम करने का ख़्याल छोड़ दे,या उनके पुत्र रणधीर कपूर से शादी करने का।
"लेकिन इसमें आपकी क्या गलती? आपसे नाराज़गी क्यों हुई"। पत्रकार ने कहा।
"मैंने एक बार बस उसे समझाने की कोशिश की थी कि सोच समझ कर आगे बढ़, राजकपूर नहीं मानेंगे। और वो नाराज़ होकर बैठ गई, उसे लगा कि मैं राजकपूर की ग़लत बात का पक्ष ले रही हूं और उसके मन की बात नहीं समझ रही। उसे लगता था कि मैंने भी प्यार किया है और फ़िल्में भी, फ़िर भी मैं उसके दिल की बात नहीं समझ रही, जबकि मैं तो एक बड़ी बहन की तरह उसकी मुश्किलें कम करने की कोशिश ही कर रही थी। नहीं?"
"ओह, लेकिन अब उनकी शादी हो जाने के बाद तो उन्हें इन बातों को भूल जाना चाहिए न, वो इसे दिल से क्यों लगा कर बैठी हैं! पत्रकार ने अपनी राय ज़ाहिर की।"
साधना ने ज़रा मुस्करा कर कहा- "ये उससे कहो जाकर, उसका इंटरव्यू लो, मेरा भी भला हो कुछ!"
बात तो खत्म हो गई। इंटरव्यू भी पूरा हो गया किन्तु साधना ये कैसे भूल सकती थीं कि उनकी छोटी बहन ने उन्हें "औलाद के लिए तरस जाने" की बददुआ दे डाली थी, और वो कुदरत ने सच भी करके दिखा दी।इस बात का अचंभा सभी को होता था कि साधना और बबीता कभी कहीं साथ - साथ क्यों नहीं दिखाई देती हैं।
रणधीर कपूर और बबीता की शादी हो गई थी, और धीरे - धीरे बबीता ने कपूर खानदान की उस परिपाटी का पालन भी किया कि अब फ़िल्मों में काम नहीं करना है। बबीता ने नई फ़िल्में साइन करना बंद कर दिया और जो काम हाथ में था, उसे पूरा करने के बाद फ़िल्मों को अलविदा कह दिया था।
किन्तु अब स्थिति कुछ अजीब थी। रणधीर कपूर की फ़िल्में भी चल नहीं रही थीं, और न ही रणधीर को नई फ़िल्में मिल रही थीं।
ये बैठे- बैठे अपने दिखावटी सिद्धांतों के चलते अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। इसके कारण घर की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ रहा था। इससे बबीता और रणधीर कपूर में भी अनबन रहने लगी। और एक दिन बबीता रणधीर कपूर का घर छोड़ कर अलग फ्लैट में रहने चली आईं।
इस अलगाव में कहीं भी मनभेद नहीं था, केवल विचारों का मतभेद। लेकिन बच्चियों का आसमान बंट गया।
उनकी बेटियां करिश्मा और करीना तब बहुत छोटी थीं।
कहते हैं कि बार- बार की बहस और नसीहतों से आहत होकर रणधीर कपूर के सामने बबीता अपनी बेटियों को एक दिन फ़िल्म स्टार ही बनाने की चुनौती दे बैठीं । रणधीर ने इसे उनके परिवार के खिलाफ बगावत समझा।
ये कपूर खानदान के सिद्धांतों को खुली चुनौती थी।
लेकिन बबीता की कही बात ने सच में एक दिन राजकपूर के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा कर रख दीं।
वैसे भी बबीता एक अंग्रेज़ मां की बेटी थीं, वो इतनी संकीर्ण मानसिकता की बात सहन नहीं कर सकती थीं।
ये सब अपनी जगह सही था पर इससे साधना के अपने दिल पर पड़ी खरोंच तो मिट नहीं सकती थी। तो ये अबोला उम्र भर चला।
यहां तक कि बबीता के घर के मांगलिक अवसरों पर भी वहां साधना नहीं दिखाई दीं।
बबीता की बेटी की शादी के अवसर पर मौसी साधना को निमंत्रित न किए जाने पर एक पत्रिका ने कटाक्ष करता, चुभता हुआ आलेख प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था - "आखिर सगी मौसी हूं कोई सौतेली मां नहीं"!
साधना के पति आर के नय्यर के अस्थमा अटैक से हुए निधन के बाद साधना कुछ समय तो बहुत मायूस रहीं और बात- बात पर उन्हें याद करती रहीं।
कभी ज़्यादा विचलित हो जाती थीं तो कहती थीं, मुझसे शादी करते ही उनकी फ़िल्म "ये ज़िन्दगी कितनी हसीन है" फ्लॉप हुई।
मैं उनके लिए लकी नहीं रही। हमारी ज़िन्दगी में कितने उतार- चढ़ाव अाए। बाद में उनकी फिल्में पति परमेश्वर और कत्ल भी नहीं चलीं जबकि दोनों ही अच्छे विषय पर थीं।
उनकी बीमारी भी अकस्मात उनकी मौत ही ले आई। हम तो उन्हें अटैक के बाद हस्पताल भी समय पर नहीं पहुंचा सके। वो रास्ते में ही गुज़र गए।
साथ ही साधना ये भी याद करना नहीं भूलती थीं कि फ़िल्मों से संन्यास लेने के बाद ही हमें चैन मिला। हम कुछ अच्छा समय साथ में बिता पाए।
वो कहती थीं - मैं पंद्रह साल की उम्र से काम कर रही थी। कभी छुट्टी नहीं ली। पच्चीस साल की उम्र में ही शादी हो गई।
मेरे पति खाने के बेहद शौक़ीन थे। मैंने यूरोपियन और चाइनीज़ डिशेज उन्हीं के लिए सीखी। पर वो कहते थे घर का खाना सबसे अच्छा।
वो मेरी तारीफ़ करते हुए कहते थे कि घर में इतने कुक़्स अाए और गए, पर मैंने कभी परोसे जाने वाले खाने की क्वालिटी गिरने नहीं दी।
हम घर पर गर्मी - सर्दी - बरसात के मौसम के हिसाब से ख
ाने की तैयारी करते थे। बीसियों तरह की तो मैं उनके लिए दालें बनाती थी।
जिन साधना के लिए कभी राजा मेहंदी अली खान ने लिखा था, "गोरे- गोरे चांद से मुख पर काली - काली आंखें हैं, देख के जिनको नींद उड़ जाए, वो मतवाली आंखें हैं", वही नर्गिसी आंखें 'यू वाइटिस' होने के बाद अपनी चमक इस तरह खो बैठी थीं कि उनकी एक आँख की रोशनी तो बिल्कुल चली गई।
साधना खुद गाड़ी ड्राइव करती थीं। एक आंख खराब होने के बाद कुछ दिन तो उन्हें गाड़ी चलाने में कठिनाई हुई पर जल्दी ही वो फ़िर फ़र्राटा ड्राइविंग करने लगीं। उन्हें मैराथन ड्राइविंग में मज़ा आता था।
साधना कहती थीं लालच का तो कोई अंत नहीं है, अब मुझे मर्सिडीज़ नहीं चाहिए, मैं अपनी छोटी गाड़ी आई ट्वेंटी में खुश हूं।
उनकी सहायक फ्लॉरी अब सहायक,संरक्षक,साथी और दोस्त की तरह हमेशा उनके साथ रहने लगी थी।
उनकी गोद ली हुई लड़की रिया उन्हें नानी कहती थी, क्योंकि उसकी मां भी साधना के पास ही शुरू से काम करती रही। उसकी पढ़ाई, शादी आदि का सारा खर्च साधना ने ही उठाया था। उनका तो अब मानो यही परिवार बन गया था।
साधना का मन लगाने का एक साधन उनका पालतू मिट्ठू भी था।
उनके डॉगी का नाम बोबो था।
वे बतातीं, अकेलापन अब उन्हें बिल्कुल नहीं सालता था क्योंकि उनकी सहेलियां वहीदा रहमान, आशा पारेख, नंदा, हेलेन, शम्मी और शकीला हमेशा उनके सुख - दुःख में उनके साथ थीं।
ये सब मुंबई के ओटर्स क्लब में साथ में ताश भी खेलती थीं। इनके आपसी मिलने- जुलने के कार्यक्रम भी बनते रहते। कभी किसी के यहां लंच है, तो कहीं जन्मदिन की पार्टी है।
साधना अब फ़ोटो खिंचवाना बिल्कुल पसंद नहीं करती थीं क्योंकि उनका मानना था कि उनकी छवि अपने चाहने वालों के मन में वही रहे जो उनकी शोहरत के दिनों में थी।
सन दो हजार बारह के फ़िल्मफेयर ने जब फ़िल्म इतिहास के 50 सबसे खूबसूरत चेहरों की सूची ज़ाहिर की तो साधना उसमें थीं ही, ये उनके चाहने वालों के लिए कोई अचंभे की बात नहीं थी। यश चोपड़ा तो उन्हें फिल्म जगत की सर्वकालिक दस खूबसूरत हीरोइनों में गिनते थे।
लेकिन ये सब पढ़- सुन कर नई पीढ़ी के लोग जब उन्हें कार्यक्रमों में निमंत्रित करते, तो वो टाल जाती थीं। वो सार्वजनिक कार्यक्रमों में आना- जाना पसंद नहीं करती थीं।
एक बार एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि आप लोगों के यहां गमी या मौत के समय भी नहीं पहुंचती हैं, ऐसा कहा जाता है।
साधना इस सवाल पर एकाएक गंभीर हो गईं। फ़िर धीरे से बोलीं- मुझे फ्यूनरल (अंतिम संस्कार) बहुत भयभीत करते हैं, मैं डर जाती हूं। वैसे मैं बाद में अलग से जाकर संतप्त परिवार से ज़रूर मिलती हूं। राजेश खन्ना की मृत्यु के बाद मैं डिंपल से मिल कर आई। यश चोपड़ा की डेथ पर भी मैं पामेला जी से एक दिन बाद ही जाकर मिली।
कुछ समय पहले देवानंद ने अपनी बहुत पुरानी फ़िल्म "हम दोनों" के पचास साल बीत जाने के बाद उसका रंगीन प्रिंट जारी होने का भव्य समारोह रखा। इस फ़िल्म में देवानंद की दोहरी भूमिका थी, और उनके साथ साधना और नंदा हीरोइनें थीं।
फ़िल्म बेहद कामयाब हुई थी।
किन्तु इस पार्टी का निमंत्रण साधना और नंदा को नहीं दिया गया था। वे इसमें नहीं पहुंचीं।
समारोह के दौरान बहुत से लोग उन दोनों के बारे में पूछते हुए उन्हें ढूंढ़ते रहे। किसी को पता नहीं था कि वो क्यों नहीं आईं।
इस बात का खुलासा तब जाकर हुआ जब निमंत्रित करने के बावजूद वहीदा रहमान उस पार्टी में नहीं आईं। पूछने पर उन्होंने साफ कहा कि जब मेरी उन फ्रेंड्स साधना और नंदा तक को नहीं बुलाया गया है, जिन्होंने इस फ़िल्म में काम किया है, तो मैं आकर क्या करूं?
वैसे ये समारोह बहुत शानदार रहा और इसमें पर्दे पर साधना को देखकर नई पीढ़ी के कई नायक दंग रह गए।
आमिर खान तो इतने प्रभावित हुए कि इसके बाद उन्होंने साधना की कई फ़िल्में डी वी डी में देखीं। उनकी कई भूमिकाओं को आमिर खान ने अद्भुत, आश्चर्यजनक बताया।
रणबीर कपूर ने भी फ़िल्म को बहुत पसंद किया। उसके बाद वो साधना के मुरीद हो गए और एक बार तो साधना को बहुत अनुनय- विनय करके रैंप पर भी ले आए।
आधी सदी गुज़र जाने के बाद भी मानो सिने दर्शक साधना से कहते रहे - "अभी न जाओ छोड़ कर, कि दिल अभी भरा नहीं "!
ये दिल शायद कभी नहीं भरा, क्योंकि आसमान का ये तारा अपने चमकने की घड़ी में ही अपने पुरनूर जलवे समेट कर अस्त हो चला था।
उम्र के इस दौर में साधना पूरी तरह संतुष्ट थीं। वो कहती थीं कि मुझे सब कुछ मिला- दौलत, शौहरत, इज्ज़त। ढेरों महंगे कपड़े, ज्वैलरी, क्या करती इनका?
मेहनत में कभी कोई कमी नहीं की। वो दिन भी देखे, जब "मेरे मेहबूब" के प्रोड्यूसर रवैल अपनी अगली फ़िल्म संघर्ष में मुझे लेने की बात कह कर फ़िर दिलीप कुमार के कहने पर मुकर गए और वैजयंती माला को ले लिया तो भी मैं मन ही मन गर्व से खुश ही हुई थी। जानते हैं क्यों?
क्योंकि एक समर्थ और विश्वसनीय निर्माता ने मुझे कहा था कि दिलीप कुमार तुम्हारे साथ स्क्रीन शेयर करने में घबराते हैं। उन्हें ऐसा कुछ नहीं चाहिए कि लोग किसी दृश्य में उन्हें छोड़ कर किसी और को देखें!
इस बात को सुनकर मैं इतनी अभिभूत हुई थी कि जब मैंने एच एस रवैल को संघर्ष फ़िल्म का साइनिंग अमाउंट लौटाया तो वो नज़रें झुकाए हुए थे, मैं नहीं। वो मुझसे नज़र मिला नहीं पा रहे थे।
यही हाल तब हुआ था जब मैंने पांच दिन शूटिंग करने के बाद पंछी को "अराउंड द वर्ल्ड" का साइनिंग अमाउंट लौटाया। राजकपूर उन पर नाराज़ हुए थे, मुझसे कुछ नहीं कह सके।
ये सब साधना की ज़िंदगी के अदृश्य प्रमाण पत्र थे जिन्हें कोई जानकर ही समझ सकता था। ये फ़िल्मफेयर की बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड ट्रॉफ़ी से कहीं बड़े सनद दस्तावेज़ थे।
और बाद में जब आर के नय्यर "इंस्पेक्टर डाकू और वो" की शूटिंग करने के लिए जंगलों में भटक रहे थे, साधना तब भी उनके साथ किसी युवा सहायक की तरह कंधे से कंधा मिला कर खड़ी थीं। कोई उन्हें देखकर ये कह नहीं सकता था कि ये भारतीय फ़िल्म जगत की वो अभिनेत्री है जिसने पिछले दशक की अपनी उन्नीस फ़िल्मों में से ग्यारह सुपर हिट फ़िल्में दीं। और बीमारी का इलाज करा कर विदेश से लौटने के बाद तीन कामयाब फ़िल्में देने के साथ साथ बाइस नई फ़िल्में साइन कीं।
मानो समूचे फ़िल्म वर्ल्ड को उनका गया वक़्त ये उलाहना दे रहा हो कि "मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं, यूं जा रहे हैं जैसे हमें जानते नहीं"!