Prabodh Govil

Drama

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Prabodh Govil

Drama

ज़बाने यार मनतुर्की - 13

ज़बाने यार मनतुर्की - 13

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"जिसने डाली, बुरी नज़र डाली", अच्छी सूरत की यही कहानी है!

लोग दुश्मन हो जाते हैं!

आते - जाते हुए जहां लोगों ने आपको देखा कि बस, उनके मन में जलन के तपते शरारों का दहकना शुरू हो जाता है - राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला???

साधना की कहानी दो लफ़्ज़ों की कहानी ही थी - या है मोहब्बत या है जवानी।

लेकिन इन्हीं दो लफ़्ज़ों के अगर आप हिज्जे करने बैठें तो आप रेशा -रेशा, कतरा -कतरा, लम्हा -लम्हा धुनते रहिए, आपको लगेगा रैना बीती जाए।

साधना से सवाल हुआ : सच - सच बताइए, क्या ज़िन्दगी में आपको कोई दुःख भी था?

साधना ने साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार को न जाने क्या जवाब दिया।

लेकिन इस दुख को किसी से कहा नहीं जा सकता। देखने वालों को ख़ुद देखना होगा, भांपने वालों को ख़ुद भांपना होगा।

गुलाब को क्या दुःख होता है?

यही, कि आसपास के फूल ईर्ष्या के कारण उससे दुश्मनी पालते हैं।

कुदरत को सब मालूम है, वो सब जानती है, इसी से तो उसे ज़ेड प्लस सुरक्षा देकर रखती है, कांटों से घेर देती है।

दुनिया में एक विचित्र शै और है, जो विस्मित करने वाली है।

ये है "नज़र लगना"।

वैसे तो सबके पास आंखें हैं, जिनके पास नहीं हैं उनके पास अहसास हैं। सबके पास दृष्टि है, जिनके पास नहीं है उनके लिए व्याख्याकार हैं।

सब देखते हैं दुनिया।

लेकिन फ़िर भी एक मज़ेदार कल्पना है "नज़र लग जाना"।

हम आइने के सामने घंटों खड़े होकर सज- धज कर घर से निकलते हैं लेकिन कभी - कभी बुझे बीमार मन से वापस लौटते हैं। हमें लगता है कि हमें किसी की नज़र लग गई।

हम शानदार मकान बनाते हैं, उस पर सुन्दर सजावटी रंग - रोगन करते हैं, और फिर डरते हैं कि किसी की नज़र न लग जाए। उस पर काला, बदसूरत सा कुछ टांग देते हैं।

लेकिन अगर हम सुन्दर तन, मुखर प्रतिभा और दमकता लावण्य लेकर पैदा हो जाएं तो "नज़र" से कैसे बचें? नज़र लग ही जाती है।

कम से कम बॉलीवुड का इतिहास तो यही कहता है।

साधना का सबसे बड़ा दुश्मन सौंदर्य, प्रतिभा और लावण्य का यही संगम था।

उनकी समकालीन कई अभिनेत्रियां आज तक इस भावना से ग्रसित हैं।

आज पुरानी बातों,पुरानी चीज़ों,पुराने मूल्यों को सहेज कर रखने वाले आधुनिक, तकनीकी, विलक्षण, कई साधन हैं लेकिन यदि आप गौर से इनका अध्ययन या अनुसंधान करें तो आप देख पाएंगे कि आपकी विरासत को संजोने - संभालने का काम केवल आपके परिजन या आपकी संतान ही कर रही है। यदि आपकी संतान नहीं है, या आपके परिजन नहीं रहे तो आप का आगे याद किया जाना मुश्किल है।

बात को और साफ़ कहा जाए, पिछले उन्हीं निर्माता, निर्देशक, संगीतकारों का काम और नाम ज़िंदा है जिनके बेटे- पोते - भाई - भतीजे अब कला के मैदान में हैं।

पिछले वही कलाकार अब महान सिद्ध किए जा रहे हैं जिनके बच्चे या वंशज अब कला के हरे कक्ष में हैं।

और इसका ये मतलब कतई नहीं है कि सबके बच्चे आज्ञाकारी हैं या उन्हें अपने पूर्वजों से प्यार है, इसका मतलब ये है कि वो अपने पूर्वजों के नाम की रोटी ही खा रहे हैं। उनका सबसे बड़ा हथियार उनके पूर्वजों की विरासत ही है। यदि पूर्वजों का छोड़ा पैसा, उनके संपर्क,उनके साधन, उनकी मिल्कियत इन्हें नहीं मिलते तो आज इनकी हैसियत भी शायद वो नहीं होती जो दिखाई देती है।

और दुःख की बात ये है कि वर्तमान दौर के अधिकांश कलाकारों ने संघर्ष, प्रयास या लगन की वो आंधियां नहीं झेली हैं जो पिछली सदी के इनके पूर्ववर्तियों ने सहन की थीं।

आज यदि किसी राजकपूर,किसी धर्मेन्द्र,किसी राजेश खन्ना के वंशज को फिल्मी दुनिया में कदम रखना है तो उसकी चिंता केवल इतनी सी है कि कौन सी ब्रांड की ज़ींस पहनूं, कैसे जूते पहनूं, किस देश का हेयर स्टाइल बनाऊं और लॉन्चिंग के लिए कौन सी गर्ल फ्रेंड को साथ में लूं!

जबकि इसी फ़िल्म जगत ने कई ऐसे कलाकार भी देखे, जिन्होंने गांव से मुंबई आने की बात अपने पिता से छिपाने के लिए किराए के ख़र्च हेतु पार्टटाइम नौकरियां की, मां के ताने उलाहने सुने, बहन को अपने सपने की खिल्ली उड़ाते देखा और दोस्तों से बेकार की बातें छोड़ने की नसीहतें सुनीं। और जब फिल्मी दुनिया में आए तो बरसों बरस दर्शकों के दिल पर राज़ किया।

जो कलाकार गर्दिशों के जलजले सह कर भी अपने चेहरे की लुनाई बचाए रखने में समर्थ रहे, सेल्युलाइड की दिलकश रोशनियों में उनके चेहरे बीमारी से मुरझा जाएं, ये नज़र लगना नहीं, तो और क्या है?

ये सवाल साधना के शुभचिंतकों को हमेशा से परेशान करता रहा। खुद साधना इस दुविधा से लड़ कर अपने चाहने वालों की उम्मीद की कोशिश आखिरी वक़्त तक करती रहीं।

लेकिन और दूसरे सितारों तथा साधना के बुनियादी सोच में एक बड़ा फ़र्क रहा।

दूसरे स्टार जहां समय के साथ समझौता करते हुए अपनी उम्र और शख्सियत के अनुसार भूमिकाएं करते हुए फिल्मों, टी वी, विज्ञापनों, मॉडलिंग आदि के क्षेत्र में बने रहे वहीं साधना अपनी एक, सिर्फ़ एक, वही एक छवि चाहती थीं। उनका सोचना था कि उनके चाहने वाले,उनके शुभचिंतकों और दर्शकों के दिलों दिमाग में उनके चोटी के दिनों की स्टार की छवि ही बसी रहे।

हां, उस छवि को देर तक बनाए बचाए रखने की कोशिश में उन्होंने कभी कोई कोताही नहीं की।

लेकिन कामयाबी के शिखर पर हमेशा बने रहने में भला कौन कामयाब हुआ है। एक दिन वो भी आया कि सिनेमा हॉल में खुद साधना दर्शकों के साथ बैठी अपनी ही फ़िल्म देख रही हैं और दर्शकों ने उन्हें नोटिस नहीं किया।

शायद साधना की वही आखिरी फ़िल्म रही जो उन्होंने देखी। उसके बाद उन्होंने अपनी कोई फ़िल्म कभी नहीं देखी, घर पर टी वी में भी नहीं, जबकि उनके पास अपनी सभी फ़िल्मों का पूरा कलेक्शन था। इसके अलावा पति आर के नय्यर के फ़िल्म निर्देशक होने के चलते कई देशी विदेशी फ़िल्मों का सुन्दर संग्रह भी था।

कभी - कभी ऐसा होता है परिवार की कोई बुज़ुर्ग या प्रौढ़ महिला अपना पुराना संदूक खोल कर बैठ जाती है। उसमें से एक - एक करके चमचमाती ज़री -गोटे -सलमे -सितारों की पुरानी साड़ियां निकलती जाती हैं और वो अभिभूत होकर उन पर हाथ फेरती हुई उन पुराने दिनों की याद में खो जाती है, जब वो इन्हें पहना करती थी। तभी उसकी बेटी, पोती, बहू या और कोई लड़की वहां से ये कहती हुई गुजरती है कि इन्हें किसी को दे दो, कम से कम फेंकने से पहले कुछ दिन पहनी तो जाएंगी।

अमानत के साथ इसी साल साधना की एक और फ़िल्म "छोटे सरकार" रिलीज़ हुई।

इस फ़िल्म की भी वही दास्तान थी। साइन करने के छः साल बाद मुश्किल से पूरी होकर देश के किसी किसी हिस्से में प्रदर्शित हो पाई।

फ़िल्म गुलशन नंदा की कहानी पर बनी थी। नंदा फ़िल्म लेखन और उपन्यास लेखन में एक लोकप्रिय नाम थे। उनकी कई फ़िल्मों ने धूम मचाई थी। मुमताज़ की खिलौना और झील के उस पार, आशा पारेख की कटी पतंग, वहीदा रहमान की नीलकमल और पालकी, मीना कुमारी की काजल, राखी की अनोखी पहचान, शर्मिला टैगोर की दाग आदि सभी फ़िल्में गुलशन नंदा की लिखी हुई थीं। गुलशन नंदा को लोग साहित्यकार तो नहीं मानते थे पर कई साहित्यकार जिस फिल्मी दुनिया में भाग्य आजमाने चोरी - छिपे पहुंचा करते थे उसके बेताज बादशाह कई साल तक गुलशन नंदा ज़रूर थे।

छोटे सरकार में आरंभ में डबल रोल के लिए सुनील दत्त को साइन किया गया था। पर बाद में सुनील दत्त ने फ़िल्म छोड़ दी थी। कहा जाता था कि सुनील दत्त अपना चोला बदल कर ज़ख्मी, हीरा जैसी फ़िल्मों में नए दौर की भूमिकाओं में व्यस्त हो गए थे। बाद में ये रोल शम्मी कपूर को दिया गया, जिन्होंने इसे कुशलता से पूरा तो कर दिया पर जब तक फ़िल्म रिलीज़ हुई तब तक वो भी चरित्र भूमिकाओं में अच्छी तरह फिट हो चुके थे। पिता की भूमिकाएं निभाने लगे थे।

साधना भी फ़िल्म के बार बार बीच में रुक जाने से खिन्न थीं और उन्होंने फ़िल्म के रिलीज़ में कोई दिलचस्पी नहीं ली। बल्कि उनकी विरक्ति तो इस हद तक बढ़ी कि बाद के कुछ दृश्यों में तो वो डबिंग के लिए भी नहीं आईं और फ़िल्म के कुछ संवाद किसी और की आवाज़ में पूरे किए गए।

शशिकला जैसी चरित्र अभिनेत्रियां भी अब आउट ऑफ डेट हो गई थीं क्योंकि पुरानी फ़िल्मों में उनके जैसे छल कपट अब नए दौर में हीरोइनें खुद करने लगी थीं।

यही हाल हर फ़िल्म में कैबरे डांस के लिए रहने वाली हेलन का हो गया था क्योंकि अब हेमा मालिनी, ज़ीनत अमान, रेखा जैसी हीरोइनें अपनी फ़िल्मों में कैबरे भी खुद ही निपटाने लगी थीं।

यही हाल नायकों का था, हास्य अभिनेता को जो कुछ दोगे, वो हमारी फीस में ही जोड़ दो, कॉमेडी भी हम कर लेंगे।

लोकप्रिय संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन के जयकिशन सन उन्नीस सौ इकहत्तर में दिवंगत हो चुके थे।

फ़िल्म में हीरो का डबल रोल हमशक्ल भाइयों का नहीं,बल्कि बड़े और छोटे दो भाइयों का था, जिसे शम्मी कपूर ने कुशलता से अंजाम दिया, मगर साधना के लिए फ़िल्म में कोई स्कोप नहीं था। गरीब लाचार लड़की की भूमिका मिलने से पहन- ओढ़ कर ख़ूबसूरत दिखने की ज़िम्मेदारी भी नहीं थी।

ऐसे में फ़िल्म कब आई और कब गई, किसी को पता नहीं चला।

कभी - कभी लगता है कि साधना ने दर्शकों की निगाह में हमेशा हीरोइन की छवि ही बनाए रखने का जो कौल ले लिया था, वही उनके विरुद्ध चला गया।

इससे तो बेहतर होता कि वो सहायक भूमिकाओं में हेमा मालिनी,रेखा, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित की बहन,भाभी, मां बन कर कहीं ज़्यादा सुर्खियों में रह सकती थीं, जैसा वहीदा रहमान, माला सिन्हा, नंदा, आशा पारेख, शर्मिला टैगोर और नूतन ने किया।

जैसे किसी लहलहाते हुए खेत में फसल चौपट कर जाने के लिए कई दुश्मन आते हैं : कभी बाढ़, कभी अकाल, कभी कीट पतंगों के रूप में रोग, कभी पौधों को पैरों तले रौंदने वाले जंगली जानवर तो कभी कर्ज और ब्याज की बहियां बगल में दबाए हुए साहूकार,

वैसे ही फिल्मी दुनिया में खिले गुलाबों को रौंदने के लिए भी ज़हरीले दुश्मन आते हैं। जैसे नरगिस के बाग में कैंसर, मधुबाला के बाग में मोहब्बत, मीना कुमारी के बाग़ में शराब, साधना के बाग़ में थायरॉइड...और इनके साए में सब दफन हो जाता है। लोग इन दुश्मनों को कोसते रहते हैं और सब कुछ किसी धुंध में चला जाता है।

लेकिन लहलहाती फसलों को रौंदने वाले इस बेजान ज़हर के पांव नहीं होते। ये अपने आप नहीं आता। इसे भी कोई न कोई लाता ही है।

इतिहास जब ढूंढने बैठता है तो गए वक़्त के खंडहरों से भी कुछ न कुछ निकाल कर ही उठता है। कई बिजलियां चमकने लगती हैं और उनके उजास में कई चेहरे भी नज़र आने लगते हैं।

कई बड़े - बड़े चेहरे!

फिल्मी दुनिया में शोध और अनुसंधान करने वाले जानते हैं कि देश का नाम ऊंचा करने में बंगाल और पंजाब हमेशा आगे रहे।

इन दोनों सूबों से एक से बढ़कर एक फिल्मकार और कलाकार निकले। साहित्य का नोबल पुरस्कार हो, अंतरराष्ट्रीय ख्याति के फ़िल्म पुरस्कार हों, देश के राष्ट्रगान लिखने वाले हों, कई बड़े बड़े निर्माता निर्देशक हों, या फिर सुचित्रा सेन, शर्मिला टैगोर, जया भादुड़ी, राखी जैसी हीरोइनें हों, सुष्मिता सेन, लारा दत्ता जैसी ब्रह्माण्ड सुंदरियां हों, बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, शक्ति सामंत जैसे निर्देशक हों, अनिल बिस्वास, एस डी बर्मन, आर डी बर्मन जैसे संगीतकार हों, या अशोक कुमार, किशोर कुमार, उत्तम कुमार हों, ये सब हमें बंगाल से ही मिले।

शायद फ़िल्म वर्ल्ड को जितने कामयाब नायक पंजाब ने दिए उतने तो किसी प्रांत ने नहीं दिए। इनकी एक लम्बी फेहरिस्त है । विभाजन पूर्व पाकिस्तान से भी कई कलाकार हिंदुस्तान में आए।

इसी तरह मद्रास, जो अब तमिलनाडु है, कामयाब हीरोइनें देने में हमेशा आगे रहा।

मुंबई तो सबकी कर्मस्थली रही।

इसी मुंबई में भारतीय फ़िल्म उद्योग पनपा। देशभर के कौने- कौने से आकर लोग यहां बस गए और उन्होंने फ़िल्म के विभिन्न पक्षों को अपने हुनर से संवारने में ज़िंदगियां खपा दीं।

फ़िल्म जगत में आने से पहले की कहानियां, फ़िल्म जगत में आने के बाद की कहानियां दोनों ही दिलचस्प हैं, हैरतअंगेज हैं, हृदय विदारक हैं।

जिस तरह जब हम किसी बस के इंतजार में सड़क के किनारे खड़े होते हैं,तो बस आने पर हम चाहते हैं कि बस ज़रूर रुके, चाहे वो कितनी भी खचाखच भरी हुई ही क्यों न हो। उसी तरह जब हम किसी बस में बैठे हों तो हम चाहते हैं कि बस अब ये कहीं न रुके। भरी हुई हो, तब तो बिल्कुल न रुके।

ये मानव स्वभाव है। हम चाहे फ़िल्म जगत के कामयाब लोगों को "सितारे" कहें, पर वो होते इंसान ही हैं।

और इसीलिए, कोई बस में चढ़ पाए, या न चढ़ पाए, अपनी मंज़िल पर पहुंचे या न पहुंचे, हमें क्या ?


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