Prabodh Govil

Abstract

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ज़बाने यार मनतुर्की - 12

ज़बाने यार मनतुर्की - 12

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एक बार साधना से एक इंटरव्यू में एक फ़िल्म पत्रकार ने पूछा- मैडम, लोग कहते हैं कि फ़िल्म का निर्देशन करना औरतों का काम नहीं है, इसे पुरुष ही कर सकते हैं। इस कथन पर आपकी राय क्या है, आप एक अत्यधिक सफल अभिनेत्री होने के साथ -साथ एक फ़िल्म निर्देशक की पत्नी भी हैं।

साधना ने कुछ मुस्करा कर कहा, इस सवाल के जवाब के लिए कुछ दिन ठहर जाइए, मैं खुद निर्देशन के क्षेत्र में उतर रही हूं।

कुछ दिन गुज़रे होंगे कि "गीता मेरा नाम" फ़िल्म की घोषणा हो गई। साधना इसकी निर्देशक थीं। साथ ही वो इसमें दोहरी भूमिका भी कर रही थीं।

इस फ़िल्म में दो नायक थे। साधना के साथ कई बेहतरीन फ़िल्में देने वाले सुनील दत्त और आरज़ू में उनके साथ काम कर चुके फिरोज़ खान को इस फ़िल्म में लिया गया।

कहते हैं एक बार साधना की बीमारी में उनकी मिजाज़ पुरसी करने के लिए आए फिरोज़ खान ने मज़ाक में साधना से कहा कि आपकी छोटी बहन बबीता को मेरे छोटे भाई संजय के साथ जोड़ी बनाने दीजिए, आप बड़ी बहन हैं, बड़े भाई के साथ जोड़ी बनाने की सोचिये।

संजय खान के साथ साधना ने इंतकाम और एक फूल दो माली जैसी हिट फ़िल्में अपनी बीमारी के बाद भी दी थीं।

मज़ाक में कही गई बात साधना के दिमाग में कहीं दबी रह गई। बाद में जब साधना ने उन्नीस सौ तिहत्तर में खुद अपनी फ़िल्म का निर्देशन करने की घोषणा की तो सच में फिरोज़ खान उसमें थे।

आर के नय्यर के साधना की पहली फ़िल्म लव इन शिमला का निर्देशन करने के साथ- साथ ये ज़िन्दगी कितनी हसीन है, ये रास्ते हैं प्यार के, आओ प्यार करें, कत्ल और पति परमेश्वर जैसी अनेक फ़िल्मों का निर्देशन किया था। उन्हें अपनी प्रतिभा को मांजने का मौक़ा राजकपूर के सहायक बन कर रहने से भी मिला था।

लेकिन ये भी सच था कि और अभिनेत्रियां जहां शूटिंग से लौटने के बाद मिलने- जुलने और पार्टियों में वक़्त बिताती पाई जाती रहीं, वहीं साधना ने अपने काम के साथ - साथ नय्यर के काम में भी पूरा सहयोग दिया।

वे निर्देशक- स्टार की मुलाकातों में उपस्थित रहती थीं बल्कि समय- समय पर अपने सुझाव और राय भी खुल कर देती थीं। नय्यर इस बात को मानते थे कि साधना के कई सुझावों से उन्हें फ़ायदा पहुंचा, वहीं उन्हें ऐसी एक भी घटना याद नहीं थी कि जब साधना की बात मानने से उन्हें कोई नुक़सान हुआ हो, या कोई बात बिगड़ गई हो।

यही कारण था कि साधना का निर्देशन करने के पंद्रह साल बाद जब साधना ने खुद निर्देशन की कमान संभाली तो नय्यर एक बार फ़िर उनके साथ बाकायदा सहायक निर्देशक की भूमिका में आ गए।

उन्हें साधना को लेकर कभी कोई हीन भावना या ग्रंथि अपने भीतर नहीं दिखाई दी। इसका कारण केवल ये नहीं था कि वो साधना से बेइंतेहा प्यार करते थे, बल्कि इसका कारण ये था कि उन्होंने कई बार साधना की तीक्ष्ण दृष्टि, बुद्धिमत्ता और सहयोग भावना का खुल कर अनुभव हुआ था।

खुद साधना कई नाकाबिल निर्देशकों से दो - चार हो चुकी थीं जो अपने बचकाने सुझाव स्टारों पर लादते दिखाई देते थे। एक दिन अपनी प्रिय सहेली आशा पारेख के साथ गप्प लड़ाते हुए इन दोनों अप्रतिम अदाकाराओं ने ऐसे अप्रशिक्षित निर्देशकों का जम कर मज़ाक उड़ाया था, जिन्होंने अपने बेतुके निर्देशन से कई हास्यास्पद फ़ैसले दिए थे।

आशा पारेख मानती थीं कि यदि उनके पास फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूशन और समाज सेवा जैसे दूसरे कई कार्य न होते तो वो भी अभिनय से बचे समय में निर्देशन करने की बात ही सोचतीं।

लेकिन इस बात पर भी पूरी सतर्कता से ध्यान दिया जाना चाहिए कि कुछ लोग साधना के निर्देशन को उनकी मजबूरी भी कहते हैं। दरअसल आर के नय्यर की कुछ फ़िल्में न चलने के कारण उन पर काफी कर्ज हो गया था। बाज़ार में उनकी साख को बट्टा लगा था। उनकी एक फ़िल्म पति परमेश्वर तो सेंसर बोर्ड की नामंजूरी की गिरफ्त में भी आ गई थी।

लेकिन जब साधना की दो- तीन फ़िल्मों के सफ़ल हो जाने के बाद वो दोबारा फ़िल्म बनाने की स्थिति में आए तो वित्तीय संकट को छिपाने के मक़सद से उन्होंने निर्देशक के रूप में साधना का नाम दे दिया,जबकि सच्चाई यही थी कि फ़िल्म का सारा काम और ज़िम्मेदारी उन्होंने खुद संभाली।

उन्नीस सौ चौहत्तर में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म "गीता मेरा नाम" को साधना की फ़िल्म जगत से विदाई के रूप में भी देखा जा सकता है क्योंकि इसके बाद उन्होंने और कोई भी नई फ़िल्म साइन नहीं की।

इसके बाद समय - समय पर उनकी कुछ फ़िल्में आधे - अधूरे ढंग से पर्दे पर आने की खबरें ज़रूर मिलती रहीं, किन्तु ये सब पुरानी साइन की हुई वही फ़िल्में थीं जो किसी कारण से बीच में रुक गई थीं या लेट हो गई थीं।

डबल रोल वाली फ़िल्म गीता मेरा नाम उस समय आई जबकि सीता और गीता या जॉनी मेरा नाम जैसी फ़िल्में पर्दे पर दर्शक देख चुके थे। इन दोनों ही फ़िल्मों में काम करने वाली हेमा मालिनी तब तक "ड्रीम गर्ल" का खिताब पा चुकी थीं और लगातार लोकप्रियता की पायदान चढ़ रही थीं।

अतः फ़िल्म में नए पन के नाम पर केवल यही एक तथ्य था कि इससे साधना जैसी नामी - गिरामी हस्ती निर्देशन के क्षेत्र में आ रही थी।

कहानी काफ़ी आम थी जहां एक अच्छी और एक बुरी लड़की को दर्शक कई बार देख चुके थे।

फ़िल्म की पटकथा ने साधना के लिए तो परस्पर विपरीत दो भूमिकाओं की गुंजाइश निकाली ही थी, सुनील दत्त की भूमिका में नयापन और ताज़गी लाने के लिए भी काफ़ी मेहनत की गई थी। सुनील दत्त की भूमिका एक बेहद मशहूर हॉलीवुड फ़िल्म "म्यूज़ियम ऑफ वैक्स" से प्रभावित थी, जिसमें वे एक खल पात्र के रूप में दर्शाए गए थे जो अपने गिरोह के किसी व्यक्ति को भूल करने पर मोम के गर्म कड़ाह में फेंक कर मोम के पुतले के रूप में तब्दील कर देने जैसा क्रूर व्यक्ति है।

मज़े की बात ये कि फ़िल्म में सुनील दत्त ने नायिका साधना के भाई की भूमिका अभिनीत की थी।

दर्शकों के लिए ये देखना विचित्र था कि जिन सुनील दत्त को उन्होंने साधना के हीरो के रूप में वक़्त, मेरा साया, गबन जैसी फ़िल्मों में पहले देखा था, वो यहां हीरोइन के बचपन में किसी मेले में खोए हुए भाई की भूमिका में थे।

हर बात पर पर्याप्त ध्यान देने वाले सजग दर्शकों को ये बात भी चौंकाती थी कि साधना को उनकी कई फ़िल्मों में स्कूल टीचर की भूमिका दी गई थी।

सोचने पर इसके कुछ कारण नजर आते थे, जैसे - वास्तविक जीवन में साधना की मां एक स्कूल टीचर ही रही थीं और साधना उनकी इकलौती संतान होने के कारण उनका अपनी मां से लगाव जगजाहिर था।

दूसरे साधना का नैसर्गिक सौंदर्य, युवा सोच, और शालीन पहनावा दर्शाने के लिए शिक्षक की भूमिका सहयोगी सिद्ध होती थी। कई अभिनेत्रियां जहां अपने लुक्स को लेकर इतनी सतर्क रहती हैं कि अपने आभा मंडल को बचाए रखने के लिए युवाओं के साथ आने से कतराती हैं, वहीं साधना में ये कुंठा कहीं दूर - दूर तक नहीं थी। वो ढेर सारे फूलों के बीच भी गुलाब की तरह अलग ही दमक जाती थीं।

उनके कुछ फ़िल्मकार कहते थे कि किसी विदुषी, बुद्धिमान महिला पर शिक्षक की भूमिका वैसे भी अच्छी लगती है।

हिंदी फ़िल्मों के उस स्वर्णयुग में, जहां सारा दारोमदार ही सौंदर्य और युवावस्था पर टिका होता था, वहां एक अभिनेत्री का पंद्रह वर्ष तक अपना जलवा बरकरार रख पाना एक बड़ी बात थी। खासकर तब, जब अपनी जवानी में ही उन्हें एक ऐसे रोग ने घेर लिया हो जो भीतरी कमज़ोरी के साथ शारीरिक विकलता भी देता हो।

कुछ लोग शायद इस बात से नाराज़ हो जाएं, किन्तु ये भी एक कटु सत्य है कि एस मुखर्जी जैसे गॉडफादर का अपने पुत्र के कारण, और राजकपूर जैसे संरक्षक का अपनी बहू के कारण साधना से अकारण हुआ मनमुटाव भी साधना के हंसते - खेलते जीवन में तनाव का सबब बना। वे ऐसी घटनाओं से विचलित तो नहीं हुईं पर भीतर से कहीं अकेली और असुरक्षित ज़रूर हो गईं।

इस अकेलेपन को संतान न होने के खालीपन ने और गहरा दिया।

जॉय मुखर्जी के बेटे बॉय मुखर्जी ने अपने पिता की किसी डायरी के हवाले से एक बार बताया था कि साधना जॉय मुखर्जी की फेवरेट हीरोइन ही नहीं, बल्कि निजी जीवन में भी उनकी पहली पसंद थीं।

साधना की शादी के समारोह में उनके किसी हीरो का न पहुंचना भी साधना ने भीतर तक महसूस किया था।

मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान साधना का शुक्रिया आज भी अदा करना नहीं भूलती हैं, क्योंकि उन्हें किसी फ़िल्म में अकेले पहलीबार डांस डायरेक्टर बनने का मौक़ा फ़िल्म गीता मेरा नाम में साधना ने ही दिया। उससे पहले वो सहायक हुआ करती थीं।

अगले ही वर्ष साधना की एक और पुरानी अधूरी फ़िल्म "वंदना" पूरी होकर पर्दे पर आई। इस फ़िल्म में उनके हीरो परीक्षित साहनी थे जो पहले अजय साहनी नाम से फ़िल्मों में आए थे। परीक्षित उन बलराज साहनी के बेटे थे जिन्होंने कभी साधना के साथ एक फूल दो माली और वक़्त में काम किया था।

ये फ़िल्म अपने समय से काफ़ी पीछे थी अतः ये पूरे भारत में नहीं, बल्कि कुछ टेरिटरीज़ में ही रिलीज़ हो पाई।

फ़िल्म में "आपकी इनायतें, आपके करम, आप ही बताएं कैसे भूलेंगे हम" जैसे कर्णप्रिय और नफासत भरे गीत थे मगर तब तक "शोले" और "ज़ंजीर" का ज़माना आ चुका था, जहां "कोई हसीना जब रूठ जाती है, तो और भी नमकीन हो जाती है... हट साले!" जैसे गाने दौर का सच बन चुके थे।

किसी फ़िल्म में निर्देशक की भूमिका को लेकर साधना के अपने स्पष्ट विचार थे। वो कहती थीं कि किसी अच्छे अभिनेता में औरों की तुलना में कुछ "एक्स्ट्रा" होता है, किसी अच्छे निर्देशक को सिर्फ़ उस एक्स्ट्रा को परफॉर्मेंस में आने देना होता है,और बस, इससे वो शॉट बेहतरीन बन जाता है।

लेकिन अगर दकियानूसी सोच वाला निर्देशक कलाकार को लिखे हुए दृश्य या संवाद से ज़रा भी इधर उधर हटने की मोहलत न दे तो वो बेहतरी की संभावना तो खो ही देता है, कलाकार के बेहतर कर पाने की मौजूदा क्षमता को भी आहत कर देता है।

उन्होंने एकबार एक पत्रकार से बात करते हुए अपनी बात का उदाहरण भी पेश कर दिया था। उन्होंने बताया- एक फ़िल्म में रोमांटिक दृश्य था जिसमें हीरोइन और हीरो साथ - साथ चल रहे हैं। तभी अचानक हीरो का हाथ हीरोइन के हाथ से अनजाने में छू जाता है। ऐसा होने पर हीरोइन को शरमा कर प्यार भरी नजर से हीरो की ओर देखना था।

निदेशक ने मुझसे कहा कि अब मैं कुछ सेकेंड्स ( निर्देशक महाशय ने ये भी बताया कि कितने सेकेंड्स) के लिए नज़रें झुका लूं, फ़िर निगाहें ज़रा उठाऊं और अपना चेहरा पैंतालीस डिग्री के कोण से तिरछा करके अपनी आंखों को तीन बार फड़फड़ाऊं, और पुनः नीचे देखूं।

साधना ने आगे बताया कि मैं और सेट पर उपस्थित कोई भी शख़्स निर्देशक को समझा नहीं सका कि ये ठीक नहीं लगेगा, और अगर मैं बिल्कुल उसके कहे अनुसार नहीं करूं, यहां तक कि आंखें तीन की जगह दो बार फड़फड़ा दूं, तो वो उखड़ जाता था। ऐसी सोच से कोई भी कलाकार अपना उम्दा नहीं दे सकता।

एक अच्छा निर्देशक कलाकार को दृश्य करने के खुले अवसर देता है और फ़िर कलाकार जो अपनी रेंज के दो चार छह विकल्प करके दिखाए, उनमें से बेस्ट चुन लेता है।

ऐसी परिपक्वता आख़िर कितने कलाकारों में होती है ?

वो शायद इसीलिए साधना थीं।

साधना की ये फ़िल्म "अमानत" एक बड़े बजट की फ़िल्म थी जिसमें लगभग हर चीज़ में भव्यता का ध्यान रखते हुए उन्हीं सफल लोगों की टीम जुटाई गई थी जो कभी न कभी साधना की फ़िल्मों में अच्छा परिणाम दे चुके थे और अच्छा प्रदर्शन करते रहे थे।

इस फ़िल्म में एक विशेष बात ये थी कि इसकी मूल पटकथा को फ़िर से संवारने का काम सुविख्यात लेखक निर्देशक राजेंदर सिंह बेदी से करवाया गया था। इसके संवाद वेद राही ने लिखे थे।

और इसमें "वो कौन थी" की जोड़ी साधना और मनोज कुमार को ही दोहराया गया था।

फ़िल्म रुक - रुक कर बनी थी। बीच में एक बार निर्देशक को बदला गया था।

इतना ही नहीं, बल्कि फ़िल्म के गीत पॉपुलर हो जाने के बावजूद फ़िल्म संगीत जारी हो जाने के छः साल बाद रिलीज़ की जाने से लोग उन मधुर गीतों को भूल चुके थे।

ये सारी अस्त - व्यस्तता उसी दोहे को याद दिलाती थी- बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो तिन कोय !


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